राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्षीय यात्रा पर एक नजर

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विजय कुमार । Oct 16 2024 1:21PM

डा. हेडगेवार ने संगठन को देश की राष्ट्रीय आवश्यकता कहा था। उन्होंने कोलकाता में क्रांतिकारियों और नागपुर में कांग्रेस के साथ काम कियाय पर संघ स्थापना के बाद पूरी शक्ति यहीं लगा दी। इसलिए पहले 50 साल संघ ने केवल संगठन किया।

2025 की विजयादशमी पर संघ सौवें वर्ष में पहुंच रहा है। ऐसे में इस यात्रा के कुछ पड़ावों पर नजर डालना उचित होगा।

डा. हेडगेवार ने संगठन को देश की राष्ट्रीय आवश्यकता कहा था। उन्होंने कोलकाता में क्रांतिकारियों और नागपुर में कांग्रेस के साथ काम कियाय पर संघ स्थापना के बाद पूरी शक्ति यहीं लगा दी। इसलिए पहले 50 साल संघ ने केवल संगठन किया। यद्यपि अन्य बहुत कुछ भी शीर्ष नेतृत्व के मन में था। दत्तोपंत ठेंगड़ी इसे 'प्रोगेसिव अनफोल्डमेंट' कहते थे। इसके बल पर ही संघ ने हर संकट को झेला। 

इस पहले दौर में स्वयंसेवकों ने कई संस्थाएं बनायीं। इनमें राष्ट्र सेविका समिति (1936), अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (1949), वनवासी कल्याण आश्रम (1952), भारतीय मजदूर संघ (1955), विश्व हिन्दू परिषद (1964), भारतीय जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी (1951), सरस्वती शिशु मंदिर/विद्या भारती (1952) आदि प्रमुख हैं। यद्यपि इनके संविधान, कोष, पदाधिकारी, कार्यक्रम आदि अलग हैंय पर प्रेरणा संघ की ही है।

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संघ पर प्रतिबंधः संघ पर 1932 और 1940 में शासन ने आंशिक प्रतिबंध लगायेय पर वे ज्यादा नहीं चले। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद फिर प्रतिबंध लगा। तब शासन, प्रशासन और जनता संघ के विरोध में थी। प्रचार माध्यम सरकार के पास थे। संघ के पास अपनी बात कहने का कोई साधन नहीं था। फिर भी संघ ने सत्याग्रह से सरकार को झुका दिया। 

पर फिर शाखा के साथ ही समविचारी संगठनों का विस्तार और प्रभाव बढ़ने लगा। इसीलिए जब 1975 में इंदिरा गांधी ने संघ पर प्रतिबंध लगाया, तो जनता संघ के साथ रही। संघ ने फिर सत्याग्रह किया। जनता डर से चुप थी, पर चुनाव में उसका आक्रोश फूट पड़ा और इंदिरा गांधी हार गयी। यह संगठन के बल पर ही हुआ। समाज में बढ़ती स्वीकार्यता का लाभ उठाकर संघ ने संगठन को फैलाया तथा स्वयंसेवकों ने अनेक नयी संस्थाएं बनायीं।

1992 में बाबरी विध्वंस के बाद सरकार ने फिर प्रतिबंध लगाया, जिसे न्यायालय ने ही खारिज कर दिया। 1975 और 1992 के प्रतिबंध से संघ के संगठन और प्रभाव में वृद्धि हुई। उसका नाम दुनिया भर में फैल गया।

1977 के बादः इसे हम दूसरा 50 वर्षीय कालखंड कह सकते हैं। संघ ने अनुभव किया कि हमारा काम समाज के निर्धन वर्ग में नहीं है। इनकी पहली जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान है। इस कारण लोग धर्मांतरण भी कर लेते हैं। मीनाक्षीपुरम् कांड इसका उदाहरण था। अतः सेवा के क्षेत्र में प्रवेश किया गया। 1989 में डा. हेडगेवार की जन्मशती पर 'सेवा निधि' एकत्र कर हजारों पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाये गये। निर्धन बस्तियों को 'सेवा बस्ती' कहकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के हजारों छोटे प्रकल्प शुरू किये। अब इनकी संख्या डेढ़ लाख से भी अधिक है। अब सैकड़ों बड़े प्रकल्प भी हैं, पर मुख्य ध्यान छोटी इकाइयों पर ही है। केवल संघ ही नहीं, तो सभी समविचारी संस्थाएं सेवा कार्य कर रही हैं। यहां से पुरुष और महिला कार्यकर्ता भी आगे आ रहे हैं। 

कुछ चुनौतियांः 1947 में देश विभाजन एक बड़ी चुनौती थी। इस दौरान पंजाब और सिंध में संघ ने सीमित शक्ति के बावजूद लाखों हिन्दुओं की रक्षा की, महिलाओं की लाज बचाई और उनका पुनर्स्थापन किया। बंगाल में शक्ति कम होने से यह प्रभावी ढंग से नहीं हो सका।

1950 में प्रतिबंध हटने पर कुछ लोगों का विचार था कि निर्दोष होते हुए भी संसद या किसी विधानसभा में कोई हमारे पक्ष में नहीं बोला। अतः हमें शाखा छोड़कर केवल राजनीति करनी चाहिएय पर सरसंघचालक श्री गुरुजी नहीं माने। उन्होंने कहा कि राजनीति जरूरी होते हुए भी सब कुछ नहीं है। इससे कई बड़े लोग नाराज हो गये। यद्यपि संघ ने फिर राजनीति में भी कई लोगों को भेजा, पार्टी भी बनायी, पर राजनेताओं और दलों का जो हाल है, उससे श्री गुरुजी की बात प्रमाणित हो रही है।

संगठन होने के कारण संघ तथा संघ प्रेरित संस्थाएं लगातार नयी टीम बनाकर पुरानों के संरक्षण में उन्हें पदस्थापित करते रहते हैं, पर 1968 में भारतीय जनसंघ को एक झटका लगा। दीनदयाल जी का निधन हो चुका था। जनसंघ वाले अटल बिहारी वाजपेयी को आगे लाना चाहते थे। इससे रुष्ट होकर बलराज मधोक ने पार्टी छोड़ दी, पर जल्दी ही वे समझ गये कि कुछ लोग कुछ समय के लिए कोई संस्था तो चला सकते हैं, पर संगठन नहीं। अतः वे शांत होकर फिर संघ के कार्यक्रमों में आने लगे। यद्यपि उनके अलगाव से श्री गुरुजी सहित सब स्वयंसेवकों को दुख हुआ, पर संघ में व्यक्ति नहीं, संगठन महत्वपूर्ण है। 

ऐसी ही एक चुनौती 2018 में विश्व हिन्दू परिषद में आयी। एक प्रभावी नेता ने अपनी नयी संस्था बना ली। यहां भी टकराव व्यक्ति और संगठन में ही था। आशा है वे भी शीघ्र ही मुख्य धारा में लौट आएंगे।

अब आगे की ओरः कभी 'संगठन के लिए संगठन' की बात कही जाती थी, पर 50 साल संगठन और 50 साल विस्तार के बाद अब संघ समाज परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है। जहां संघ का काम पुराना है, वहां परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी और स्थानीय वस्तुओं का प्रयोग, सामाजिक समरसता, एक मंदिर, एक शमशान, एक जलस्रोत, नागरिक कानूनों के पालन आदि का आग्रह किया जा रहा है। संघ के प्रयास से इस दिशा में भी निःसंदेह सुधार होगा। समाज में हजारों संस्थाएं और लोग अच्छे काम कर रहे हैं। संघ उन्हें भी साथ लेकर सम्मान और श्रेय देता है। संस्थागत अभिनिवेश से मुक्ति संघ की एक बड़ी विशेषता है।

यद्यपि जब से भाजपा की सरकारें केन्द्र और राज्यों में बन रही हैं, तब से संघ में बहुत भीड़ भी आने लगी है। नये लोगों का आना सुखद है, पर जो स्वार्थवश आ रहे हैं, उनसे सावधान रहना होगा। 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे' से लेकर 'परम वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्' की इस अविराम यात्रा में बहुत काम बाकी है। निरूसंदेह अगले कुछ वर्ष में करोड़ों स्वर 'भारत माता की जय' बोलेंगे और विश्वगुरु भारत का सपना साकार होगा। 

− विजय कुमार

देहरादून

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