क्या आप जानते हैं जाकिर हुसैन का पहला कॉन्सर्ट अमेरिका में 11 साल की उम्र में हुआ था? पूरी कहानी यहाँ जानें

Zakir Hussain
ANI
रेनू तिवारी । Dec 16 2024 3:14PM

तबला वादक जाकिर हुसैन का रविवार को लंबी बीमारी के बाद अमेरिका के एक अस्पताल में निधन हो गया। कथित तौर पर, पद्म श्री प्राप्तकर्ता इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस से पीड़ित थे।

तबला वादक जाकिर हुसैन का रविवार को लंबी बीमारी के बाद अमेरिका के एक अस्पताल में निधन हो गया। कथित तौर पर, पद्म श्री प्राप्तकर्ता इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस से पीड़ित थे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि उस्ताद जाकिर हुसैन का पहला कॉन्सर्ट 11 साल की उम्र में हुआ था, वो भी अमेरिका में, जहाँ उन्होंने अपनी आखिरी साँसें लीं? जी हाँ! उन्होंने अपनी कला को न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में फैलाया। जीवन में प्रसिद्धि पाने के बाद भी, उन्होंने एक साधारण जीवन जीना पसंद किया और जमीन से जुड़े रहे। उनके जीवन के बारे में जानने के लिए आगे पढ़ें-

11 साल की उम्र में अमेरिका में हुआ था पहला कॉन्सर्ट

जाकिर हुसैन का जन्म 9 मार्च, 1951 को मुंबई में हुआ था। वे तबला वादक उस्ताद अल्लाह रक्खा के बेटे हैं। जाकिर को तबला बजाने की प्रतिभा अपने पिता से विरासत में मिली थी। उन्होंने बचपन से ही पूरी लगन के साथ वाद्य बजाना सीखा। उन्होंने महज तीन साल की उम्र में पखावज बजाना सीखा था। यह कला उन्हें उनके पिता ने सिखाई थी। उन्होंने महज 11 साल की उम्र में अमेरिका में अपना पहला संगीत कार्यक्रम दिया था। इसके बाद उन्होंने साल 1973 में अपना पहला एल्बम 'लिविंग इन द मैटीरियल वर्ल्ड' लॉन्च किया।

जाकिर ने बहुत कम उम्र में ही तबले पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। इसके बाद उन्होंने 11-12 साल की उम्र में तबला बजाने का सफर शुरू कर दिया था। वे अपने संगीत कार्यक्रमों के लिए जगह-जगह जाते थे। अपने तबले को सरस्वती मानकर उसकी रक्षा और पूजा में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। एक समय ऐसा भी था जब उस्ताद के पास ट्रेन में बैठने के लिए रिजर्व सीट नहीं थी, तो वे अखबार बिछाकर बैठ जाते थे। तबले को वे अपनी गोद में रखते थे ताकि किसी का पैर या जूता उस पर न लगे।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में महान योगदान

तमाम चुनौतियों को पार करते हुए उन्होंने दुनियाभर के लोगों के दिलों में जगह बनाई। उस्ताद जाकिर हुसैन ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में महान योगदान दिया है। उन्हें 1988 में पद्मश्री और 2002 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। इसके बाद 2009 में उन्हें संगीत के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

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