भगवान शिव ने आखिर क्यों भूत-प्रेत और पिशाचों को अपनी बारात में शामिल किया था?
चण्डीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुईं भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहां आ पहुंचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण से स्वयं को विभूषित कर रखा था। वे प्रेत पर आरुढ़ होकर अपने मस्तक पर सोने का एक अत्यन्त चमकीला कलश धारण किये हुए थीं।
भगवान शिव की बारात के बारे में माना जाता है कि इसमें भूत-प्रेत नाचते हुए पार्वतीजी के घर तक पहुंचे थे और बारातियों ने सजने धजने की बजाय खुद पर भस्म को रमाया हुआ था। आइए जानते हैं शिव विवाह और उनकी बारात से जुड़ा किस्सा। माना जाता है कि पवित्र सप्तऋषियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिये जाने के बाद भगवान शंकर जी ने अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया। उनके इस आदेश से अत्यन्त प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, कंकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुण्डक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रसथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े। नन्दी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नील चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी। इन गणों के साथ शंकर जी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गयी। इनमें डाकिनी, शाकिनी, यातुधान, बेताल, बह्मराक्षस आदि भी शामिल थे।
इन सभी के रूप रंग, आकार प्रकार, वेष भूषा, हाव भाव आदि सभी कुछ अत्यन्त विचित्र थे। किसी का मुख नहीं था तो किसी के बहुत से मुख थे। कोई बिना हाथ पैर का था तो कोई बहुत से हाथ पैरों वाला था। किसी के बहुत सी आंखें थीं तो किसी के एक भी आंख नहीं थी। किसी का मुख गधे की तरह, किसी का स्यार की तरह तो किसी का मुख कुत्ते की तरह था। उन सभी ने अपने अंगों में ताजा खून चुपड़ रखा था। कोई अत्यन्त पवित्र तो कोई अत्यन्त वीभत्स तथा अपवित्र वेष धारण किये हुए था। उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे। उन्होंने हाथ में नर कपाल ले रखा था। वे सब के सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकर जी के चारों ओर एकत्र हो गये।
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चण्डीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुईं भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहां आ पहुंचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण से स्वयं को विभूषित कर रखा था। वे प्रेत पर आरुढ़ होकर अपने मस्तक पर सोने का एक अत्यन्त चमकीला कलश धारण किये हुए थीं। धीरे धीरे वहां सारे देवता भी आकर एकत्र हो गये। उसे देवमण्डली के मध्यभाग में सबके अंतर्यामी भगवान श्रीविष्णु गरुड़ के आसन पर विराज रहे थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनकी बगल में मूर्तिमान वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ उपस्थित थे। देवराज इंद्र भी नाना प्रकार के आभूषण धारण किये अपने विशाल ऐरावत गज पर आरुढ़ हो वहां पहुंच गये थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहां आ गये थे। तुम्बरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नरगण भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहां पहुंच गये थे। संपूर्ण जगन्माताएं, सारी देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी आदि सारी सिद्धिदात्री देवियां तथा सभी पवित्र देवकन्याएं भी वहां आ गयी थीं।
इन सबके वहां एकत्र हो जाने के उपरांत भगवान शंकर जी साक्षात धर्म स्वरूप अपने स्फटिक के समान उज्ज्वल, सर्वांग सुंदर वृषभ पर सवार हुए। उस समय सारे देवताओं, सिद्धों, महर्षियों और भूतों, प्रेतों, यक्षों, किन्नरों, गंधर्वों से घिर हुए दूल्हावेश में भगवान शिवजी की अद्भुत शोभा हो रही थी। उस अति पवित्र, दिव्य और अत्यन्त विचित्र बारात के प्रयाण के समय डमरूओं की डम डम, भेरियों की गड़गड़ाहट और शंखों के गंभीर मंगलनाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गंधर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के हर्ष विभोर नृत्य, कणन और रणन ध्वनि के मांगलिक निनाद से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे। इस प्रकार भगवान शिवजी की वह पवित्र बारात हिमालय की ओर प्रस्थित हुई। महादेव की इस दिव्य बारात का स्मरण, ध्यान, वर्णन और श्रवण सभी प्रकार के लौकिक पारलौकिक उत्तम फलों को प्रदान करने वाला है।
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