Gyan Ganga: जब आमने-सामने हुए हनुमानजी और सुरसा, जानें फिर क्या हुआ?

Hanumanji
सुखी भारती । Oct 28 2021 4:25PM

श्रीहनुमान जी के लिए सुरसा को हराना बाएँ हाथ का खेल था। लेकिन तब भी उन्होंने सुरसा को दण्ड नहीं दिया। और यह आदर्श प्रस्तुत किया कि आवश्यक नहीं कि सबको बल से व बड़ा होकर ही जीता जा सकता है। कोई आपके समक्ष बहुत बड़ा बने, तो आप उससे बहुत छोटा बन कर भी जीत सकते हो।

श्रीहनुमान जी सुरसा नामक देवताओं की दूत से मानों भिड़े बैठे हैं। सुरसा जैसे जैसे अपना बदन बढ़ाये जा रही है, श्री हनुमान जी भी वैसे वैसे ही, अपना बदन सुरसा से दूना करे जा रहे हैं-‘जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रुप देखावा।’ देखते ही देखते सुरसा ने अपना आकार सौ योजन का कर लिआ। ऐसा आकार कि मानों सुरसा धीरे धीरे, पूरी धरती को ही नाप देने की तैयारी में थी। सज्जनों विश्वास सा नहीं हो रहा, कि श्रीहनुमान जी यह किस दौड़ के पुजारी से बने जा रहे थे। उन्हें भला क्या किसी से बड़े होने की पड़ी थी। उनका सिद्धांत तो कभी यह रहा ही नहीं, कि स्वयं को किसी से बड़ा करने के लिए उलझा जाये। श्रीहनुमान जी के पावन नाम का तो एक अर्थ भी यही है, कि जिन्होंने अपने ‘मान’ का ‘हनन’ कर दिया हो, वही ‘हनुमान’ है। श्रीहनुमान जी ने तो अपने मान सम्मान का ऐसा हनन किया है, कि उनकी दिव्य अवस्था का वर्णन तो शब्दों में किया ही नहीं जा सकता। उनकी नम्रता व सहनशीलता का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं, कि जबकि उन्हें भी यह सत्य पता है, कि माता सीता जी से मिलने हेतु श्रीराम जी ने उनका चयन पहले से ही कर रखा है। तो क्यों न वानरों के दल का नेता मुझे ही होना चाहिए। आप अच्छी प्रकार से जानते हैं सज्जनों, कि श्रीहनुमान जी अपने संबंध में, इतनी स्पष्ट स्थिति प्रक्ट होने के पश्चात भी, पूरे दल में सबसे पीछे ही चलते हैं। वरना उनके स्थान पर अगर कोई और हो, तो छपाक से छलाँग लगाकर आगे आन खड़ा हो, और स्वयं ही घोषणा कर दे, कि हम ही श्रीराम जी के इस महाअभियान के मुख्य सूत्रधार हैं। आगे से कोई भी कार्य हो, तो वह हमारी आज्ञा के बिना नहीं होना चाहिए। अगर हमने देखा कि किसी ने ऐसा दुस्साहस किया है, तो अपने दुखद परिणाम का वह स्वयं ही उत्तरदायी होगा। हम ऐसा फतवा जारी करेंगे, कि यमराज भी उसे सुन कर सहम जाये। लेकिन मजाल है, कि श्रीहनुमान जी कुछ भी ऐसा करते। उल्टा वे तो सबकी सेवा व संभाल में लगे रहते हैं। कहीं कोई शिकायत नहीं, कोई गिला नहीं। बस एक ही धुन है कि मुझे श्रीराम जी के कार्य को संपन्न करना है बस। कारण कि उन्हें पता है, कि अहंकार का अनुसरण करके, तो प्रभु से दूर ही जाया जा सकता है, समीप नहीं। ऐसा नहीं कि भगवान हमसे कहीं कोई दूर हैं। अपितु वे तो पास से भी पास हैं। बस नज़र में क्या बसता है, वह नज़र में बसना ही निर्धारित करता है, कि हमें क्या दिखाई देगा। अगर हम अहंकार के उपासक हैं, तो हमें यह दिखाई देगा कि कहीं हमसे कोई बड़ा तो नहीं प्रतीत हो रहा? और अगर नज़र में भगवान हैं, तो सदैव यह भय लगा रहेगा कि कहीं मेरे दासत्व में कोई तृटि तो नहीं है? मैं किसी को आहत तो नहीं कर रहा। और प्रत्येक क्षण हमें प्रभु की उपस्थिति का आभास रहेगा। किसी ने खूब कहा है-

‘न मैं उससे दूर, न वो मुझसे दूर था,

नज़र नहीं आया, यह नज़र का कसूर था।’

और श्रीहनुमान जी को प्रभु श्रीराम जी की उपस्थिति तो कण-कण में प्रतीत होती है। भला वे कैसे किसी से यूँ अहंकार के युद्ध में छलाँग लगा सकते हैं। लेकिन तब भी सुरसा के साथ श्रीहनुमान जी का चल रहा यह देहवृधि का दंगल, मानों यह प्रक्ट सा करता प्रतीत हो रहा है, कि श्रीहनुमान जी भी काई अहंकार की ही लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन सज्जनों ऐसा कुछ किचिंत मात्र भी नहीं है। कारण कि अभी हमने प्रसंग को आगे देखा ही कहां है। जी हाँ! श्रीहनुमान जी ने निरंतर अपना आकार बढाना थोड़ी न जारी रखा। अपितु जैसे ही श्रीहनुमान जी ने देखा, कि सुरसा ने अपना आकार सौ योजन का कर लिया है, तो श्रीहनुमान जी एक अतिअंत सुंदर कौतुक करते हैं। वे अपने रुप को अति लघु कर लेते हैं। अब क्योंकि सुरसा का मुख तो सौ यौजन के हिसाब से था। अर्थात बहुत बड़ा था। तो श्रीहनुमान जी तत्काल ही सुरसा के मुख में चले गए, और उसी क्षण मुख में घूम कर क्षण भर में ही मुख से बाहर आ गए-

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‘सत जोजन तेहिं आनन कीन्हां।

अति लघु रुप पवनसुत लीन्हा।।’

सुरसा इससे पहले कि कुछ सोच पाती, श्रीहनुमान जी सुरसा को प्रणाम करके कहते हैं, कि हे माई! मैं तो आपके मुख में घूम कर वापिस भी आ गया। और आप मुझे खा ही नहीं पाई। तो इसमें मैं भला क्या कर सकता हूँ, मेरा क्या दोष। आपके मुख में जाने की मैंने आपकी इच्छा पूर्ण भी करदी, और अपना वचन भी निभा दिया, कि मैं श्रीराम कार्य करके, स्वयं आपके मुख में घुस जाऊँगा, ताकि आप मुझे खा सकें। लेकिन आप मुझे खाने में पूर्णतः असफल रही। इसलिए अब मुझे आप मार्ग दें, तांकि मैं प्रभु का कार्य करके, शीघ्रता से पुनः श्रीराम जी के श्रीचरणों में उपस्थित हो पाऊँ। सुरसा ने कहा कि मैंने तुम्हारी बल बुद्धि का थाह पा लिया है। जिसे देखने के लिए देवताओं ने मुझे भेजा था-

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‘मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।’

माना कि श्रीहनुमान जी के लिए सुरसा को हराना बाएँ हाथ का खेल था। लेकिन तब भी उन्होंने सुरसा को दण्ड नहीं दिया। और यह आदर्श प्रस्तुत किया कि आवश्यक नहीं कि सबको बल से व बड़ा होकर ही जीता जा सकता है। कोई आपके समक्ष बहुत बड़ा बने, तो आप उससे बहुत छोटा बन कर भी जीत सकते हो। याद रखो, किसी को हराना तो आसान व सहज है। लेकिन किसी को जीतना हो, तो इसके लिए सामने वाले से नहीं, अपितु स्वयं से लड़ना पड़ता है। और श्रीहनुमान जी ने यही किया। सुरसा प्रसन्न हो गई। और श्रीहनुमान जी को उनकी यात्रा हेतु शुभ आशीर्वाद देकर चली गई-

‘राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।’

श्री हनुमान जी ने भी सुरसा को प्रणाम किया और आगे प्रभु कार्य हेतु निकल पड़े। आगे की यात्र में श्रीहनुमान जी को कोई और विघ्न तो नहीं आता, यह जानने के लिए अपनी नज़रें गड़ायें रखें, अगले अंक पर---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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