Gyan Ganga: क्या सुरसा ने देवताओं की प्रेरणा से हनुमानजी का रास्ता रोका था?
सुरसा ने देवताओं की प्रेरणा से श्रीहनुमान जी का रास्ता रोक लिया। अचानक सुरसा को सामने देख श्रीहनुमान जी ने अपनी गति थमा दी। सुरसा श्रीहनुमान जी को देख वचन कहती है कि आज देवताओं ने मुझे भेजन दिया है-‘आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।’
श्री हनुमान जी ने मैनाक पर्वत से विदा लेकर फिर से लंका की ओर उड़ान भरी। आँसमां को चीरते हुए, पवन से एक रूप हुए, श्री हनुमान जी इस दुर्गम गति को नापते जा रहे थे। सागर के इस पार रह गए अन्य वानर दूर तक श्रीहनुमान जी को तब तक निहारते रहे, जब तक कि पवन में रचे बसे पवनसुत हनुमान जी आँखों से ओझल नहीं हो गए। पीछे रह गए वानरों के हृदयों से निरंतर यह प्रार्थना निकल रही थी, कि हे प्रभु! किसी भी प्रकार बस, श्री हनुमान जी शीघ्र अति शीघ्र माता सीता की सुधि लेकर लौट आएं। लौटना तो श्रीहनुमान जी को था ही। लेकिन वानरों को यहाँ पीछे कोई खाली थोड़ी न बैठना था। कारण कि आध्यात्मिक उन्नति की साधना में प्रार्थना का भी बहुत बड़ा हाथ है। कई बार ऐसा भी होता है कि विधि वश हमारे भाग्य में सफलता होने की संभावना नहीं होती। लेकिन अगर भक्तों की प्रार्थना हो, तो अकसर प्रभु भक्त के प्रेमवश हो, अमुक व्यक्ति को सफलता प्रदान कर देते हैं। जैसे हिरण्यकश्यिपु के ऐसे एक भी संस्कार नहीं थे, कि वह भी प्रभु की दया का कारण बनता। लेकिन केवल और केवल भक्त प्रह्लाद की प्रभु से प्रार्थना के चलते ही, प्रभु ने उसे यह वरदान दिया था कि जिस कुल में हे प्रह्लाद! तुम्हारे जैसा भक्त जन्म लेगा, उसकी तो इक्कीस पीढ़ियों को कल्याण का मार्ग तो वैसे ही प्राप्त हो जायेगा। ठीक ऐसे ही श्रीहनुमान जी के मार्ग में अन्य कोई बाधायें न आयें। उनकी यात्रा सकुशल संपन्न हो। व उन्हें कोई कष्ट न महसूस हो, इसके लिए प्रार्थना बहुत बड़ा संबल है। प्रार्थना मानो एक ऐसा मंत्र है, जिससे राह में बिछे काँटे भी पुष्प बन जाया करते हैं। और श्रीहनुमान जी के मार्ग में प्रथम मैनाक पर्वत का उनकी सेवा में उपस्थित होना यह दर्शाता है कि इसमें भक्त वानरों की प्रार्थना का भी हाथ था।
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खैर! श्रीहनुमान जी तो श्रीराम जी को हृदय में धारण किए हुए अपनी डगर की और बढ़े चले जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि श्रीहनुमान जी की इस उड़ान पर केवल प्रभु और वानरों की ही दृष्टि थी। समस्त देवता गण भी अपने विषय भोगों से निवृति पा श्रीहनुमान जी पर ही दृष्टि गड़ाए हुए थे। लेकिन यहाँ एक अजीब-सी घटना घटती है। देवता गण वानरों की भाँति कोई प्रार्थना में संलग्न नहीं थे। अपितु वे तो नीति से हट कर ही क्रिया करते हैं। वे श्रीहनुमान जी के मार्ग में कोई सहयोग देने की अपेक्षा, उल्टे उनकी परीक्षा लेने की ठान लेते हैं। और वे सर्पों की माता सुरसा को श्री हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने हेतु भेजते हैं-
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‘जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।’
सुरसा ने देवताओं की प्रेरणा से श्रीहनुमान जी का रास्ता रोक लिया। अचानक सुरसा को सामने देख श्रीहनुमान जी ने अपनी गति थमा दी। सुरसा श्रीहनुमान जी को देख वचन कहती है कि आज देवताओं ने मुझे भेजन दिया है-‘आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।’ श्रीहनुमान जी ने देखा कि यह सुरसा तो मुझे खाने के विचार से रोक रही है। तब श्रीहनुमान जी ने शायद सोचा होगा कि अगर मैं सर्पों से उलझ गया, तो नाहक ही समय की बर्बादी होगी। ऐसा नहीं कि मुझे सुरसा को हराने में कोई अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। लेकिन जब माता सीता से भेंट करने निकल ही पड़ा हूँ, तो क्यों किसी से उलझ कर अपना ध्यान बटाऊँ, क्यों न मैं सुरसा को बातों में उलझा कर इससे निवृत हो जाऊँ। यह सोच कर श्रीहनुमान जी ने कहा कि हे माई! अब क्योंकि मैं श्रीराम जी के विशेष कार्य हेतु लंका प्रस्थान कर रहा हूँ, तो मैं श्रीराम जी का कार्य करके जब पुनः लौटूंगा और श्रीराम जी को माता सीता जी की ख़बर सुना दूंगा, तो मैं वापिस आकर आपके मुख का आहार बन जाऊँगा-
‘तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।’
यह सुन सुरसा ने कहा कि वाह! मुझे पागल समझ रखा है क्या? तुम मेरे कौन से रिश्तेदार हो, जो तुम्हारी बात मानुं। भला सामने आया शिकार, मैं सूखा कैसे जानें दूं? मैं तो तुम्हें बिना खाये जाने नहीं दे सकती। श्रीहनुमान जी ने तब देखा, कि सुरसा तो किसी भी प्रकार से मान ही नहीं रही। श्रीहनुमान जी तो अभी कुछ सोच ही रहे थे, कि सुरसा ने तो हनुमंत लाल को खाने हेतु अपने मुख को योजन भर खोल लिया। एक योजन चार कोस का होता है। तो सोचिए कि सुरसा ने कितना बड़ा मुख खोल लिया होगा। श्रीहनुमान जी समझ गए कि अब तो सुरसा ने मुझे खाने का मन बना ही लिया है। तो यहाँ श्रीहनुमान जी एक लीला करते हैं। वे अपनी देह के आकार को भी बढ़ाना आरम्भ कर देते हैं, और बढ़ा कर आठ कोस का, अर्थात सुरसा से भी दुगना कर लेते हैं-
‘जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिसतारा।।’
श्रीहनुमान जी ने सोचा कि मेरा यह रुप देख अवश्य ही सुरसा सहम जायेगी। मुझसे क्षमा याचना करेगी। और मेरा मार्ग निष्कंटक हो जायेगा। लेकिन श्रीहनुमान जी का अनुमान स्टीक नहीं निकला। कारण कि सुरसा न तो सहमी, और न ही उसने श्रीहनुमान जी को मार्ग दिया। उल्टे सुरसा तो सौलह योजन की हो गई। यह देख श्रीहनुमान जी ने देखा कि सुरसा पीछे नहीं हट रही। ठीक है, मैं भी सुरसा से दुगुने रूप को धारण कर लेता हूँ-
‘सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।’
इस प्रकार श्रीहनुमान जी बत्तीस योजन के हो गए। और मानों यहाँ बड़े होने का कोई दंगल चल रहा हो। क्या यह परस्पर द्वन्द्ध यूँ ही चलता रहा? यह जानने लिए कदम रखेंगे अगले अंक में... (क्रमशः)... जय श्रीराम!
-सुखी भारती
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