Gyan Ganga: जब भक्ति भाव में डूबे हनुमान जी पहली बार श्रीराम के चरणों में गिर पड़े
श्री राम तो अब मानो श्री हनुमंत लाल जी के समर्पित प्रेम भाव में ही बंधे जा चुके थे। और श्री हनुमंत लाल थे कि प्रेम में मोम की मानिंद बस पिघले जा रहे थे। क्या अद्भुत व आनंददायक पल हैं कि 'भक्त और भगवान' दोनों ही एक दूसरे को समर्पित हो रहे थे।
गतांक से आगे...श्री हनुमान जी की हृदय गति प्रभु प्रेम स्पंदन पर ही टिकी थी। युगों की जुदाई का दर्द वे मानो चार शब्दों में ही कह देना चाहते थे। लेकिन भला रेशम के धागों से हाथी के कदमों को कैसे बांधा जा सकता है। शब्दों की भी एक सीमा है और हृदय की पीड़ा असीम है। जिसे मात्र समझा ही जा सकता है। और श्रीराम जी ही तो केवल वह सत्ता हैं जो इस कला में निपुण हैं। श्री राम जी ने जैसे ही हनुमंत लाल जी के मुख से यह वचन सुने−
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सेवक सुत पति मातु भरोसे।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।।
तो उनका हृदय अपनी प्रभुता को श्री हनुमान जी पर न्यौछावर किए बिना रह ही न सका। क्योंकि इन शब्दों में श्री हनुमंत जी ने प्रभु के समक्ष अपना स्पष्ट निर्णय व निवेदन कह सुनाया था। कि हे प्रभु! सेवक अपने स्वामी के और पुत्र अपनी माता के भरोसे ही निश्चिंत रहता है। आपको अपने सेवक का लालन−पालन करना ही पड़ेगा। हनुमान जी आप क्या पते की बात कह गए कि श्री राम जी को अपने समस्त हथियार समर्पित करने पड़ गए। श्री हनुमंत लाल ने प्रभु श्री राम जी से अपना रिश्ता केवल सेवाकार्य का ही नहीं रखा। अपितु माता−पिता एवं संतान का भी गढ़ लिया। क्योंकि स्वामी भले ही शिष्य पर सदा स्नेह रखे लेकिन गलती होने पर दण्ड भी तो मिलता है। लेकिन हनुमान जी तो श्री राम से बिना प्रेम, ममता व स्नेह के और कोई आशा करते ही कहाँ हैं? तो सोचा कि हम तो ठहरे वानर और गलतियां करना तो हमारे स्वभाव में है। ठीक है सौ में से हमसे कभी एक−आध प्रतिशत अच्छा भी हो जाता होगा। वह भी गलती से। तो जब अच्छा हो तो प्रभु हमें सेवक बनाकर स्नेह लुटाएं और जब हमारी गलतियां देखें तो हमारे माता−पिता बनकर हमें नादान समझ कर टाल दें। अर्थात् प्रेम ममता लूटने में विजय सदैव हमारी ही हो।
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श्री राम तो अब मानो श्री हनुमंत लाल जी के समर्पित प्रेम भाव में ही बंधे जा चुके थे। और श्री हनुमंत लाल थे कि प्रेम में मोम की मानिंद बस पिघले जा रहे थे। क्या अद्भुत व आनंददायक पल हैं कि 'भक्त और भगवान' दोनों ही एक दूसरे को समर्पित हो रहे थे। 'मैं' तू में और 'तू' मैं में समा एक 'हम' की ही रचना कर रहे थे। जैसे दूध और पानी के संगम में होता है। प्रभु को अगर दूध मान लें और पानी भक्त को माना जाए तो दोनों बड़े ही सुंदर प्रेम व समर्पण के सूचक हैं। क्योंकि एक सेर दूध में जब दूध वाले ने एक सेर पानी मिला दिया तो सांसारिक दृष्टि में भले ही अनुचित हो लेकिन दूध और पानी की वार्ता को तो जरा सुनिए। इसे सुन कर सच, न्याय, सिद्धांत व मर्यादा बिलकुल ही व्यर्थ प्रतीत होते हैं। पानी बोलता है कि हे दूध! मैं आपके कर्ज से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि वैसे तो मेरी कीमत शून्य थी लेकिन जैसे ही आपने मुझे 'अपने आप' में मिश्रित होने की स्वीकृति दी तो मैं भी अब पानी नहीं कहला रहा। लोग मुझे दूध ही समझ कर ही मूल्य लगा रहे हैं। देखिए न आप का संग करने के पश्चात मैं भी दूध के ही भाव बिकने लगा। आपके संग मैं भी शिवलिंग पर चढ़ने लगा हूँ। दूध ने सुना तो बीच में ही टोकते हुए बोला− 'अरे नहीं−नहीं पानी भाई! अहसान मैंने आप पर नहीं किया अपितु आप ने भी मुझ पर किया है। जब तक आप मुझ में नहीं मिले थे मैं केवल एक सेर के ही भाव बिक रहा था। लेकिन आप आकर मुझमें क्या मिले मेरी कीमत दोगुणी हो गई। केवल कीमत ही नहीं मेरा वज़न भी दोगुणा हो गया है। पहले मुझे कोई यूं ही उठा लेता था लेकिन अब उसे जरा सोचना पड़ता है।
सज्जनों दूध और पानी के प्रेम में आगे और भी रोचक मोड़ आता है। तीव्रतम भीषण विपरीत परिस्थितियों में भी दूध और पानी अपना प्रेम व समर्पण नहीं त्यागते। हलवाई दूध पकाने के लिए जब उसे कढ़ाई में डालता है तो अग्नि ताप से पहले कौन प्राण त्यागता है? जी हाँ! पहले पानी का दम घुटता है और उसे वाष्प बन कर दूध से विलग होना पड़ता है। दूध बेचारा लेकिन यह जुदाई का दंश भला कैसे सहन करे। दूध भी उबाल खाने लगता है। और वेग से ऊपर उठता है। उसका ऊपर उठना कुछ और नहीं अपितु एक अंतिम प्रयास होता है कि भाप बनकर जो पानी उसका साथ छोड़कर जा रहा है उसे या तो खींचकर पीछे ले आऊं या फिर मैं भी उसके पीछे चल दूं। भले ही इसके लिए कढ़ाई के किनारे लांघने की आत्मघाती गलती ही क्यों न घटित हो जाए। दूध में यूं एक दम उबाल आता देखकी हलवाई समझ जाता है कि दूध अब कढ़ाई से बाहर छलक जाएगा। इसे रोकने हेतु हलवाई क्या करता है? वह जल्दी से पानी के कुछ छींटे दूध पर छिड़क देता है। आप देखेंगे कि दूध का उबाल भी उसी क्षण शांत हो जाता है। हलवाई को लगता है कि पानी छिड़का तो दूध का तापमान गिर गया और दूध नीचे बैठ गया। यद्यपि वास्तविक्ता यह नहीं है। वास्तव में पानी के वियोग में तड़पते−उबलते दूध को जब चंद पानी के छींटे मिलते हैं तो वह इसलिए नीचे नहीं बैठता कि उसका तापमान गिर गया। अपितु इसलिए शांत होता है क्योंकि जो पानी उससे जुदा हो रहा था, जिसे दूध अपनी नज़रों से विलग होते देख रहा था वह पानी उसे फिर से नसीब हो उठा था। भले ही उसके चंद छींटे ही क्यों न मिले हों।
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ठीक यही प्रेम श्री राम और श्री हनुमंत लाल जी के बीच पल रहा था। तभी तो श्री राम प्रिय सीता जी के बहाने ढूंढ़ अपने प्रिय भक्त हनुमान जी को ही रहे थे। श्री हनुमान जी भी भाव सरिता में डूबे फिर श्री राम जी के चरणों में गिर पड़े। और ब्राह्मण का रूप त्याग कर अपने निज वानर रूप में आ गए।
अस कहि परेउ चरन अकुलाई।
निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई।।
अब श्री राम जी भी श्री हनुमंत लाल जी को हृदय से लगा लेते हैं। और ऐसा वाक्य कहते हैं जो विचित्र व अकथनीय था। क्या था वह वाक्य जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः
- सुखी भारती
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