Gyan Ganga: पहली मुलाकात के दौरान श्री रामजी और हनुमंत लाल की मीठी लुका−छुपी
सज्जनों यहाँ श्री राम जी का श्री सीता जी के निमित्त 'बैदेही' शब्द का प्रयोग एवं उनके निशाचरों द्वारा हरे जाना एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य उजागर कर रहा है। बैदेही अर्थात् देह के बंधनों से परे, समस्त विकारों व कर्म बंधनों से मुक्त आत्मा। और श्री सीता जी ऐसी ही थीं।
विगत अंक में हमने जाना कि विप्र रूप श्री हनुमान भगवान श्री राम से प्रश्नों की एक श्रृंखला तो रखते हैं लेकिन श्रीराम मात्र सुनते रहते हैं। प्रतिउत्तर में एक शब्द तक नहीं कहते। लेकिन जैसे ही हनुमान जी ने पूछा, 'की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार' तो श्री राम जी ने सोचा कि जब श्री हनुमान जी स्वयं अपना वास्तविक परिचय छुपा रहे हैं तो लो हम भी स्वयं को प्रकट नहीं करते। और श्री राम ने अपना दैवीय परिचय देने की बजाए दैहिक परिचय दे डाला−
कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए।।
नाम राम लछिमन दोऊ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।।
अर्थात् हम कोसलराज दशरथ जी के पुत्र हैं और पिता का वचन मान कर वन में आए हैं। राम−लक्ष्मण नाम हैं और हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री भी थी।
कमाल है भगवान भी कैसे विचित्र हैं। महाभारत के युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को भगवान के ब्रह्म रूप के दर्शन में कोई रुचि नहीं है। कोई एक भी प्रश्न वह ऐसा नहीं पूछ रहा कि हे केशव आप कहीं भगवान तो नहीं। बल्कि उन्हें अपना सखा मानता हुआ केवल अपने सगे−संबंधियों के मोहपाश में बंध युद्ध छोड़ने को तत्पर है। लेकिन तब भी श्रीकृष्ण अर्जुन को घेर−घेरकर मजबूर करते हैं कि वह उनके ब्रह्म रूप से परिचित हों और इधर श्री हनुमान जी पूछ भी रहे हैं कि आप कहीं स्वयं ईश्वर तो नहीं। और प्रभु श्री राम उल्टे स्वयं को पूर्णतः छुपा जाते हैं। और कह देते हैं कि हम तो कोसलराज दशरथ जी के पुत्र हैं। लेकिन अगली पंक्ति में अत्यंत रहस्यपूर्ण वाक्य कह जाते हैं−
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'इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।
अर्थात् हे हनुमंत! हमारे सारे रास्ते बैदेही श्री सीता जीद्ध भी साथ थीं। लेकिन निशाचरों ने उसे हर लिया। और हम उसे खोजते फिरते हैं।
सज्जनों यहाँ श्री राम जी का श्री सीता जी के निमित्त 'बैदेही' शब्द का प्रयोग एवं उनके निशाचरों द्वारा हरे जाना एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य उजागर कर रहा है। बैदेही अर्थात् देह के बंधनों से परे, समस्त विकारों व कर्म बंधनों से मुक्त आत्मा। और श्री सीता जी ऐसी ही थीं। लेकिन जीवन में जब श्री सीता रूपी आत्मा इस सांसारिक वासना के विष से विषाक्त होती है कि मुझे एक स्वर्ण मृग चाहिए ही चाहिए। भले ही इसके लिए मुझे प्रभु को भी स्वयं से दूर भेज कर उन्हें दाँव पर लगाना पड़ जाए। तो निश्चित ही ऐसे में प्रभु से विलग होना टाला नहीं जा सकता। लेकिन ऐसे में भी प्रभु की दया व ममतामय भाव देखिए। पता है कि श्री सीता रूपी आत्मा स्वयं से निर्मित विषय के कारण ही हमसे विलग हुई और यह भी कोई अनिवार्यता नहीं कि प्रभु उन्हें जंगल−जंगल, बेले−बेले ढूंढ़ें ही। लेकिन जीवात्मा के प्रति प्रेम के कारण प्रभु स्वयं कहाँ−कहाँ जाकर उसे नहीं ढूंढ़ते। क्योंकि प्रभु तो जानते हैं न कि जीवात्मा भले ही कितने भी सांसारिक सुख व संपदाओं में क्यों न पले। तब भी बिना मेरे उसे प्रसन्नता की एक बूंद तक महसूस नहीं हो सकती। तभी तो मानो प्रभु ने तब मन ही मन सोचा होगा कि हे सीते हमें दूर भेजकर तुम उस स्वर्ण मृग को पास लाने में ही सुख की कल्पना कर रही हो। तो लो फिर, तुम भी क्या याद रखोगी। तुम एक स्वर्ण मृग की कामना करती हो। हम तुम्हें 400 मील की स्वर्ण जड़ित लंका नगरी में बिठाए देते हैं। देखते हैं तुम्हें स्वर्ण कोई सुख देता है अथवा नहीं। सज्जनों हम भलीभांति अवगत हैं कि माता सीता लंका नगरी में निरंतर तेरह मास निवास करती हैं। लेकिन कोई एक क्षण भी ऐसा नहीं था कि उनके दुःखद नेत्रों से अश्रु सूखे हों। प्रभु वियोग में माता सीता सदैव रोती रहीं।
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प्रभु श्री राम, बैदेही जी के उपरोक्त प्रसंग से श्री हनुमान जी को यही उत्तर देना चाह रहे हैं कि हे हनुमंत लाल! 'बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही' हम तो उन्हें ढूंढ़ते फिर रहे हैं। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम भी कहीं खोए हुए हो। हाँ खोए हुए तो हो ही। तभी तो भगवान शंकर का अवतार होते हुए भी सुग्रीव जैसे भीरू और विषयी व्यक्ति की सेवा में एक चौकीदार से आगे नहीं बढ़ पाए। कहाँ आपने खेल−खेल में सूर्यदेव को भी निगल लिया था। और कहाँ आप सूर्यपुत्र सुग्रीव की एक परछाई भर बनकर रह गए हैं। सेवा करनी ही है तो ईश्वर की करो हनुमंत। फिर देखना जिस चोटी पर तुम बैठे हो। ऐसी पता नहीं कितनी ही चोटियां तुम्हारी हथेली पर गेंद की तरह उठी रहेंगी। और हां हनुमंत ऐसा नहीं कि हम केवल सीता को ही ढूंढ़ते हैं। वास्तव में हम तो हर उस जीवात्मा को ढूंढ़ने निकले हैं जो हमसे बिछुड़ी है। जीवात्मा हमें ढूंढ़ पाए ऐसा उसमें सामर्थ्य नहीं। और चौरासी के चक्कर में उसका भटकना हमसे देखा नहीं जाता। और हमारी प्रिय जीवात्माओं को ढूंढ़ने में भले ही हमारी प्रिय पत्नी ही क्यों न गुम हो जाए। तब भी हमारे कदम पीछे नहीं हटेंगे−
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।
अर्थात् हे ब्राह्मण देव! हमने तो अपना चरित गाकर सुना दिया।
अब कृपया अपनी कथा समझाकर कहिए?
श्री राम जी के इन वाक्यों में भी गहन रहस्य छुपा हुआ था। जिसे शायद हनुमान जी भांप गए थे। सज्जनों क्या श्री हनुमंत लाल अपना वास्तविक परिचय देते हैं। अथवा अपना मूल परिचय छुपा लेते हैं। जानेंगे अगले अंक में क्रमशः
- सुखी भारती
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