Gyan Ganga: अर्जुन ने चंचल मन को स्थिर करने का उपाय पूछा तो भगवान ने क्या कहा ?
अर्जुन कहते हैं- हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल, हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो यह लग सकता है।
गीता प्रेमियो ! हवाएँ अगर मौसम का रुख बदल सकती हैं तो दुआएँ भी मुसीबत के पल बदल सकती हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो किस्मत बदल देते हैं।
अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण किस्मत से ही प्राप्त हुए थे, जिन्होंने सबको छोड़कर केवल अर्जुन को चुना और उनको प्रत्यक्ष रूप से गीता सुनाई।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं-
पिछले अंक में हमने पढ़ा- भगवान त्रिभुवन के स्वामी हैं तथा हमारे परम हितैषी और सखा हैं। श्रद्धा और विश्वास के साथ अगर हम दृढ़तापूर्वक हरि चिंतन करें, तो भगवान का साक्षात्कार निश्चित है। अब आगे भगवान मनुष्य को अपना उद्धार करने की प्रेरणा देते हैं।
श्री भगवान उवाच
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा ही जन्म-मृत्यु के बन्धन से अपना उद्धार करने का प्रयत्न करे और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही हमारा मित्र है, और मन ही हमारा शत्रु भी है। आइए ! इस पर थोड़ा विचार करें— ‘मैं’ शरीर नहीं हूँ, क्योंकि शरीर बदलता रहता है और ‘मैं’ वही रहता हूँ। यह शरीर मेरा नहीं है, क्योंकि शरीर पर मेरा वश नहीं चलता। मैं इस शरीर को जैसा रखना चाहूँ वह वैसा नहीं रह सकता, जितने दिन तक रखना चाहूँ उतने दिन तक नहीं रख सकता, जितना सुंदर और सबल बनाना चाहूँ नहीं बना सकता। कौन चाहता है, कि मेरा शरीर बूढ़ा हो किन्तु बूढ़ा होना पड़ता है। इस शरीर पर मेरा कोई अधिकार नहीं। यदि यह मेरे लिए होता तो हमेशा मेरे पास रहता। इस प्रकार शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिए नहीं। यदि मनुष्य इस सच्चाई पर अमल करे, तो उसका अपने आप उद्धार हो जाएगा।
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जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥
जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। अर्थात् जिसका शरीर में मैं-पन और मेरा-पन नहीं है वह अनुकूलता और प्रतिकूलता में भी निर्विकार रहता है, क्योंकि वह मानता है कि सुख-दुःख और मान-अपमान तो आते जाते हैं, पर परमात्मतत्व ज्यों का त्यों रहता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! जो मनुष्य सभी प्राणियों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणियों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। श्रीमदभागवत कथा का एक बहुत ही रोचक प्रसंग स्मरण में आता है—
ब्रह्माजी जब गाय-बछड़ों और ग्वाल-बालों को चुराकर ले गए, तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही गाय-बछड़े और ग्वाल-बाल बन गए। केवल ग्वाल-बाल ही नहीं बल्कि उनके बेंत, सींग, बांसुरी और वस्त्र-आभूषण भी बन गए। यह लीला एक वर्ष तक चलती रही, पर किसी को इसका पता नहीं चला। जब बलराम जी ने ध्यान लगाकर देखा तो उनको गाय-बछड़ों और ग्वाल-बालों के रूप में भगवान श्रीकृष्ण ही दिखाई दिए। ऐसे ही भगवान का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान को ही देखता है। उसके लिए यह जगत सर्वं विष्णुमयं जगत है। कर्मयोगी परमात्मा को नजदीक देखता है, ज्ञानयोगी परमात्मा को अपने में देखता है और भक्तियोगी परमात्मा को सर्वत्र ही देखता है।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणियों के हृदय में मुझको देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है। अर्थात् भगवान और भक्त दिखने में तो दो हैं, पर वास्तव में एक ही हैं। भक्त में भगवान हैं और भगवान में भक्त है। भगवान में अत्यंत प्रीति होने के कारण भक्तियोग का साधक भगवान को प्राप्त हो जाता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणियों को देखता है, सभी प्राणियों के सुख और दुःख को अपना ही सुख और दुख समझता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। वह भक्त सभी प्राणियों की आत्मा में भगवान के ही दर्शन करता है, वह सभी शरीरों को अपना शरीर ही मानता है, इसलिए वह दूसरे के दुख से दुखी और दूसरे के सुख से सुखी होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस के उत्तर कांड में संत के लक्षण बताते हुए कहते हैं- संत सांसरिक विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। उन्हें दूसरे का दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। विषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
अब अर्जुन भगवान से इस चंचल मन को स्थिर करने का उपाय पूछते हैं-
अर्जुन उवाच
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
अर्जुन कहते हैं- हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल, हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो यह लग सकता है।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
श्री भगवान ने कहा- हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है।
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अर्जुन की माता कुंती बहुत बुद्धिमती तथा सांसरिक भोगों से विरक्त रहने वाली थी। श्रीमद भागवत महापुराण में कुंती ने भगवान श्रीकृष्ण से विपत्ति का वरदान मांगा था।
विपद: सन्तु न: शश्वत तत्र तत्र जगत्गुरो।
भवतो दर्शनं यत् स्यात् अपुन: भवदर्शनम्।।
ऐसा वरदान मांगने वाला इतिहास में बहुत कम मिलता है। यहाँ भगवान अर्जुन को कुंती माता की याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुंती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसार से विरक्त होकर अपने मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाओ।
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
अर्जुन ने पुन: पूछा- हे कृष्ण! प्रारम्भ में श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में चंचल मन होने के कारण योग से विचलित होने वाला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस गति को प्राप्त करता है?
श्रीभगवानुवाच
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
भगवान कहते हैं— हे अर्जुन! योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग के भोगों को भोगता है। पुण्य क्षीण होने और भोगों से अरुचि हो जाने पर वह फिर लौटकर मृत्युलोक में सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। भगवान उसकी अधूरी साधना पूरी करने का मौका देने के लिए शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्री कृष्ण...
-आरएन तिवारी
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