Gyan Ganga: हनुमानजी ने जब पहली बार लंका को देखा तो उसकी सुंदरता देखते ही रह गये थे
श्रीहनुमान जी जैसे साधु, अगर हमें कभी कुपित भी प्रतीत हों, तो सदा यह मानना चाहिए, कि वे हमारा पाप हरने के लिए ही हमसे ऐसा ठोस व्यवहार कर रहे हैं। साधु जनों की निरमल व पावन मन की, एक और झाँकी हम अभी आगे भी दृष्टिपात करने वाले हैं।
श्री हनुमान जी ने सिंहिका राक्षसी का वध कर डाला। इस विषय पर हम पिछले अंक में विस्तार से विवेचना कर चुके हैं। सच कहें तो महापुरुषों का लक्ष्य किसी का वध करना कभी भी नहीं होता है। कारण कि वे किसी से शत्रुता ही नहीं रखते, तो भला वे किसी का वध क्यों कर करेंगे। अगर किसी को ऐसा प्रतीत होता है, कि नहीं-नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है, कि महापुरुषों को किसी से वैर नहीं। अगर वैर नहीं, तो क्यों सिंहिका राक्षसी का वध कर डाला। भला बिना किसी लाग लपेट के भी कोई किसी को मारता है क्या? आरंभिक स्तर पर तो हमें यह समस्त तर्क सही प्रतीत होते हैं। लेकिन जिस समय हम इन विषयों पर तात्विक चिंतन करते हैं। तो हम अवगत होते हैं, कि महापुरुषों का तो डांटना भी कल्याणप्रद है, और स्नेह करना भी। श्रीराम मारीच का वध करते हैं, तो बाहरी दृष्टि से हमें सर्वप्रथम, यह कोई अबल पे सबल का प्रहार ही प्रतीत हो। लेकिन वास्तविक्ता में तो श्रीराम मारीच को अपना परमपद् ही प्रदान करते हैं। भले ही क्यों न, मारीच सदा रावण की सेवा करता, उसकी आज्ञा मानता। लेकिन उसके द्वारा रावण की युगों तक भी की हुई सेवा, क्या मारीच का कल्याण कर सकती थी? बिल्कुल नहीं। और इस विभूषित तथ्य से मारीच भली भाँति अवगत था। तभी तो मारीच जब देखता है, कि श्रीराम उसके वध हेतु उसके पीछे-पीछे भाग रहे हैं, तो वह अपनी मृत्यु की अटल संभवना देख कर भी, अतिअंत प्रसन्न होता है। कारण कि उसे पता है कि श्रीराम जी का क्रोध, कोई क्रोध न होकर भी, एक आर्शीवाद है, प्रेम है। इसीलिए कबीर जी कहते हैं-
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‘आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
साधु से झगड़ा भला, न मनमुख से मेल।।’
श्रीहनुमान जी जैसे साधु, अगर हमें कभी कुपित भी प्रतीत हों, तो सदा यह मानना चाहिए, कि वे हमारा पाप हरने के लिए ही हमसे ऐसा ठोस व्यवहार कर रहे हैं। साधु जनों की निरमल व पावन मन की, एक और झाँकी हम अभी आगे भी दृष्टिपात करने वाले हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, कि सिंहिका का वध कर श्रीहनुमान जी आगे बढ़ गए। श्रीहनुमान जी हों, भले गोस्वामी तुलसीदास जी। दोनों ही श्रीराम जी के अनन्य भक्त हैं। ऐसे भक्त कि वे श्रीराम जी के विरुद्ध बोला गया, एक वचन भी सहन नहीं कर सकते। और अगर कोई भी व्यक्ति श्रीराम जी के बारे में कुछ अनुचित वचन कहता भी है, तो वहाँ श्रीहनुमान जी होंगे, तो वे सर्वप्रथम उसे दण्डि़त करने का कदम उठायेंगे। और अगर यहाँ गोस्वामी जी होंगे, तो वे यथासंभव विरोध करने के पश्चात, वहाँ से अनयत्र जाना ही पसंद करेंगे। कारण कि उन्हें श्रीराम जी ही प्रिय हैं, और अपने कोनों से श्रीराम जी की निंदा नहीं सुन सकते। और अगर श्रीराम जी का कोई भयंकर विपक्षी अथवा शत्रु है। जो श्रीराम जी को अपमानित करने के हरसंभव प्रयास कर चुका हो। तो वह पात्र, व उस पात्र से जुड़ी प्रत्येक वस्तु, श्रीहनुमान जी व गोस्वामी जी के लिए, क्रोध व घृणा की ही पात्र होंगे। लेकिन आश्चर्य है, कि जिस समय श्रीराम जी सिंहिका वध से निर्वत होकर, सागर पार कर उस पार किनारे पर उपस्थित होते हैं, तो निश्चित ही उस पाप नगरी लंका को देख, दोनों के हृदय में रावण और लंका नगरी के प्रति के कटु भाव आने चाहिए। कारण कि रावण ही वह पात्र है, जिस कारण श्रीराम जी श्रीसीता का वियोग सहन कर रहे हैं। लेकिन तब भी, गोस्वामी जी, लंकापुरी के संदर्भ में, जो शब्द अपनी रचनाओं में लिख रहे हैं, वह देख तो किंचित भर भी नहीं लगता, कि वे रावण अथवा लंका नगरी के प्रति वैर भाव से भरे हों। अपितु उनके द्वारा तो, लंका पुरी के लिए अलंकृत भाषा का उपयोग किया जा रहा है, वह निश्चित ही आश्चर्य में डालने वाला है-
‘ताहि मार मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।’
अर्थात श्रीहनुमान जी जिस समय सिंहिका को मार सागर पार पहुँचे, तो वहा उन्होंने एक अतिअंत सुंदर वन देखा। जहाँ मधु के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे। प्रश्न उठता है, कि श्रीहनुमान जी तो मानो लंका के द्वार पर ही हों। और यहाँ भी उन्हें कुछ सुंदर प्रतीत हो, इस बात पर विश्वास करने का मन मानता ही नहीं। लेकिन गोस्वामी जी स्वयं लिख रहे हैं, फिर तो सिवाए मानने के, कोई चारा भी नहीं है। वन तो चलो, लंका नगरी का हिस्सा नहीं थे। तो माना जा सकता है, कि गोस्वामी जी ने इसकी प्रशंसा कर दी हो। लेकिन आगे के वचनों में तो पूर्णतः स्पष्ट लंका नगरी की प्रशंसा है। कारण कि श्रीहनुमान जी वहाँ एक पर्वत पर चढ़ जाते हैं। जहाँ से लंका पुरी को श्रीहनुमान जी स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे। और गोस्वामी जी उसका वर्णन कुछ ऐसे करते हैं-
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‘गिरि चढि़ लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।’
अर्थात जब श्रीहनुमान जी ने जब लंकापुरी का किला देखा, तो उसका वर्णन कहते ही नहीं बन रहा। लंकापुरी की सुंदरता पर आगे कई चौपाईयां हैं। जो यह सिद्ध करती हैं, कि महापुरुष जीव की वर्तमान व तात्कालिक अवस्था पर निर्धारित करते हैं, कि वह जीव दण्ड के योग्य है, अथवा दया या प्रेम के। उनकी किसी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं होती। यही संतों के पावन व दिव्य अंतःकरण की विशेषता है। जिस कारण श्रीराम व अन्य महापुरुष सदैव संतजनों का सम्मान करते हैं। श्री हनुमान जी लंकापुरी को दूर से देख तो लेते हैं। लेकिन क्या वे सहजता से लंकापुरी में दाखिल हो पाते हैं, अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में-
--(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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