Gyan Ganga: कामदेव ने भगवान शंकर की समाधि तोड़ने के लिए क्या प्रयास किए?
देवताओं ने अपनी व्यथा का समग्र व्रताँत कह सुनाया। जिसे सुन कामदेव भी सोच में पड़ गया। कामदेव ने सोचा, कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है। लेकिन समस्या कि देवताओं की पीड़ा भी देखी नहीं जा रही।
संसार की यह बड़ी विडम्बना है, कि वह अति स्वार्थ भाव से भरा है। देवता भी अपने भोगों के संरक्षण हेतु ही, ब्रह्मा जी के समक्ष प्रस्तुत हुए थे। इसके लिए ब्रह्मा जी ने समाधान निकाला, कि कामदेव का सहारा लिआ जाये। उसकी सहायता के बिना यह कार्य संभव प्रतीत नहीं हो रहा है। आदेश हुआ तो कामदेव भी प्रगट हो गए। सभी देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ कर कामदेव से प्रार्थना की-
‘सुउन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार।।’
देवताओं ने अपनी व्यथा का समग्र व्रताँत कह सुनाया। जिसे सुन कामदेव भी सोच में पड़ गया। कामदेव ने सोचा, कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है। लेकिन समस्या कि देवताओं की पीड़ा भी देखी नहीं जा रही। देवता भी एक टकाटक कामदेव की ओर निहार रहे हैं। वे सोचने लगे, कि कामदेव के चेहरे पर इतनी गंभीर मुद्रा बन गई है, तो इसका अर्थ कामदेव भी हमारी सहायता करने वाले नहीं है। देवता भी अपनी मतिनुसार सही ही थे। क्योंकि कामदेव सच में यही सोच रहा था, कि भगवान शंकर की समाधि से छेड़छाड करने का सीधा सा अर्थ है, कि मेरी मृत्यु निश्चित है। लेकिन तब भी कामदेव के मुख से जो वचन निकले, वे सच में प्रशंसनीय थे। कामदेव बोला-
‘तदपि करब मैं काजु तुम्हारा।
श्रुति कह परम धरम उपकारा।।
पर हित लागि तजइ जो देही।
संतत संत प्रसंसहिं तेही।।’
कामदेव के वचन सुन कर सभी देवताओं के कलेजे में ठंढ पड़ गई। क्योंकि कामदेव ने कहा, कि भले ही भगवान शंकर के साथ विरोध में मेरे प्राण जाने निश्चित हैं। किंतु तब भी मैं तुम्हारा काम तो करुँगा ही। क्योंकि वेदों में दूसरों का परोपकार करने को ही परम धर्म कहा गया है। जो दूसरों के हित के लिए अपने सरीर का त्याग कर देता है, उसकी संत भी बड़ाई करते हैं। ऐसा कहकर कामदेव सबको सिर नवाकर, अपने सहायकों को साथ ले एवं अपने पुष्प के धनुष को ले चल दिया।
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इससे पहले कि कामदेव अपना प्रभाव दिखाता, उसने एक बार फिर स्मरण किया, कि मैं जो कार्य करने जा रहा हुँ, उसमें भोलेनाथ के हाथों मेरा मरण निश्चित है। लेकिन तब भी इसमें छिपे परहित के भाव के चलते मुझे वह सब करना है, जिससे देवताओं का हित हो।
सज्जनों! कितना आश्चर्य हो रहा है न? कामदेव की भावना भी ऐसी हो सकती है, यह तो हमने कभी सोचा भी नही था। क्योंकि हम जब से होश संभालते हैं, तब से यही तो सुना है, कि काम भाव तो एक निंदनीय भाव है। जितना हो सके काम से दूर ही रहना चाहिए। मन में काम भाव आयें, तो उन्हें बल पूर्वक भगाना चाहिए। ऐसा नहीं करेंगे तो प्रभु हमसे रुठ जायेंगे। लेकिन कामदेव के मन में भी परहित की भावना हो सकती है, यह तो किसी ने बताया ही नहीं था। काम हमारे जीवन के लिए लाभप्रद है, यह तो सोचना भी पाप लगता था। लेकिन कामदेव के मन में देवताओं के प्रति सद्भाव को देख कर लगता है, मानों कामदेव कोई संत के मानिंद हो। जो परहित के लिए अपने प्राणों की भी आहुति देने को तत्पर था।
संतों की दृष्टि से देखेंगे तो कामदेव के संबंध में देनों ही विचार ठीक हैं। अर्थात एक स्थान पर तो कामदेव किसी देव तुल्य है, और दूसरी और कामदेव निंदा के योग्य भी है। जिसे हमें एक उदाहरण के माध्यम से समझना होगा। जैसे नदिया का पानी जब तक दो किनारों के मध्य बहता है, उससे हम कितने ही लाभकारी कार्य कर सकते हैं। जैसे खेतों को पानी देना, पीने के लिए प्रयोग करना, अथवा नहाना इत्यादि। लेकिन वही पानी, अगर नदी के दोनों किनारों की मर्यादा को छोड़ अवारा हो जाये, तो वही पानी बाढ़ का रुप धारण कर लेता है। जो कि भयंकर विध्वँस का कारण बनता है। ठीक ऐसे ही काम का भी कार्य है। काम जब तक नियँत्रण में है, तो इससे सृष्टि विस्तार का महान कार्य होता है। बडे़-बड़े संत महात्मा योगी पुरुष इस धरा पर आते हैं। लेकिन यही काम जब अपनी मर्यादा तोड़ता है, तो नारीयों के शोषण का भी कारण बनता है। ऐसे में काम का कार्य निंदनीय हो जाता है।
कामदेव भगवान शंकर की समाधि तोड़ने के लिए क्या प्रयास करता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
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