Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-4
मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत-से लोग उससे मौज उड़ाते हैं। मौज उड़ाने वाले तो छूट जाते हैं, पर पाप करने वाला वह व्यक्ति दोष का भागी होता है। इसलिए अनैतिक कमाई के द्वारा अपने परिवार का पालन-पोषण करने से बचना चाहिए।
मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।
पिछले अंक में विदुर जी ने महाराज धृतराष्ट्र को विद्वान और पंडित के लक्षण बताने के पश्चात मूर्ख के कौन-कौन से लक्षण होते हैं, इसकी शुरुआत की थी आइए ! उसी प्रसंग में आगे चलते हैं।
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति ।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥
विदुर जी कहते हैं, हे धृतराष्ट्र !! जो व्यक्ति अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है।
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अकामां कामयति यः कामयानां परित्यजेत् ।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को छोड़ देता है तथा जो अपने से बलवान के साथ दुश्मनी करता है, उसे मूढ़ विचारका मनुष्य' कहते हैं ॥
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है तथा सदा बुरे कर्मो का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ मति वाला' कहते हैं ॥
संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते ।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ॥
हे भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! जो मनुष्य अपने कामों को व्यर्थ में ही फैलाता है और सब जगह सन्देह करता रहता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है ॥
श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि नार्चति ।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
विदुर जी के अनुसार जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा मूर्खता के कारण जिसको पास सुहृद् मित्र नहीं मिलते, उसे मूढ़ चित्तवाला' कहा जाता है ॥
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
विश्वसत्यप्रमत्तेषु मूढ चेता नराधमः ॥
विदुर जी कहते हैं- जो मनुष्य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है और बिना कुछ पूछे ही बहुत बोलता है तथा जिन पर विश्वास न किया जाए उन पर भी विश्वास करता है वह मूर्ख कहलाता है ।
परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा ।
यश्च क्रुध्यत्यनीशः सन्स च मूढतमो नरः ॥
विदुर जी के अनुसार जो स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्य महामूर्ख है।।
आत्मनो बलमाज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम् ।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढ बुद्धिरिहोच्यते ॥
जो अपने बल को न समझकर बिना पुरुषार्थ किये ही धर्म और अर्थ के विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में 'मूढ़बुद्धि' वाला कहलाता है ॥
अशिष्यं शास्ति यो राजन्यश्च शून्यमुपासते ।
कदर्यं भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
राजन् ! जो अपात्र व्यक्ति को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्तवाला कहते हैं ॥
अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा ।
विचरत्यसमुन्नद्धो यः स पण्डित उच्यते ॥
जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर भी इठलाता नहीं घमंड नहीं करता बल्कि नम्र बना रहता है , बह पण्डित कहलाता है ॥
एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम् ।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ॥
जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य और आश्रित व्यक्तियों को कुछ नहीं देता है। अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन हो सकता है ? अर्थात अपने आश्रित व्यक्तियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥
मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत-से लोग उससे मौज उड़ाते हैं। मौज उड़ाने वाले तो छूट जाते हैं, पर पाप करने वाला वह व्यक्ति दोष का भागी होता है। इसलिए अनैतिक कमाई के द्वारा अपने परिवार का पालन-पोषण करने से बचना चाहिए।
एकं हन्यान्न वाहन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता ।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राष्ट्रं सराजकम् ॥
किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है एक को भी मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजाके साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है ।।
एकया द्वे विनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिर्वशे कुरु ।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट्सप्त हित्वा सुखी भव ॥
एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्चय करके चार (साम, दान, भेद, दण्ड) से तीन (शत्रु, मित्र, तथा उदासीन) को वश में करना चाहिए। पाँच (इन्द्रियों) को जीतकर छः (सन्धि विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्ड की कठोरता और अन्याय से धन का उपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाना चाहिए।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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