Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-29
मरे हुए मनुष्य का धन दूसरे लोग भोगते हैं, उसके शरीर को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। उसका कोई साथ नहीं देता वह मनुष्य पुण्य-पाप के साथ पर लोक में गमन करता है। भर्तृहरि ने नीतिशतक में सत्य ही कहा है।
मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणों को निखारा जा सकता है।
नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज पुत्र मोह में फँसे धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि ---
मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या उत्क्षिप्य राजन्स्वगृहान्निर्हरन्ति ।
तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्तश् चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति ॥
हे राजन् ! जिस पुत्र को बड़े कष्ट से पाला-पोसा था, वह पुत्र जब मर जाता है तो मनुष्य उसे उठाकर तुरंत अपने घर से बाहर कर देता है। कुछ देर तक चीखता चिल्लाता है करुण स्वर में विलाप करता है और फिर जलती चिता में झोंक देता है, ।।
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अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्क्ते वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून् ।
द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र पुण्येन पापेन च वेष्ट्यमानः ॥
मरे हुए मनुष्य का धन दूसरे लोग भोगते हैं, उसके शरीर को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। उसका कोई साथ नहीं देता वह मनुष्य पुण्य-पाप के साथ पर लोक में गमन करता है। भर्तृहरि ने नीतिशतक में सत्य ही कहा है—
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः॥
धन भूमि पर, पशु गोष्ठ में, पत्नी घर में, संबन्धी श्मशान में, और शरीर चिता पर रह जाता है। केवल कर्म ही है जो परलोक के मार्ग पर साथ-साथ जाता है।
उत्सृज्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदः सुताः ।
अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथा तात पतत्रिणः ॥
तात ! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके भाई बंधु, सुहृद् और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं ॥
अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं कर्मान्वेति स्वयं कृतम् ।
तस्मात्तु पुरुषो यत्राद् धर्म संचिनुयाच्छनैः ॥
अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के साथ तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे ॥
इदं वचः शक्ष्यसि चेद्यथावन् निशम्य सर्वं प्रतिपत्तुमेवम् ।
यशः परं प्राप्स्यसि जीवलोके भयं न चामुत्र न चेह तेऽस्ति ॥
मेरी इस बात को सुनकर यदि आप अच्छी तरह समझ लेंगे तो इस मनुष्यलोक में आप को महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा ।।
आत्मा नदी भारत पुण्यतीर्था सत्योदका धृतिकूला दमोर्मिः ।
तस्यां स्नातः पूयते पुण्यकर्मा पुण्यो ह्यात्मा नित्यमम्भोऽम्भ एव ॥
हे भारत ! यह जीवात्मा एक नदी है, इसमें पुण्य ही तीर्थ है, सत्य स्वरूप परमात्मा से इसका उद्गम हुआ है, धैर्य ही इसके किनारे हैं, इसमें दया की लहरें उठती हैं, पुण्य कर्म करने वाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है और पवित्र आत्मा की ही सद्गति होती है ॥
कामक्रोधग्राहवतीं पञ्चेन्द्रिय जलां नदीम् ।
कृत्वा धृतिमयीं नावं जन्म दुर्गाणि सन्तर ॥
काम-क्रोध, लोभ आदि ग्राह से भरी, पाँच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरण रूप दुर्गम प्रवाह को धेर्य की नौका बनाकर पार कीजिये ॥
नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्न वर्जी ।
ऋतं ब्रुवन्गुरवे कर्म कुर्वन् न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात् ॥
जो प्रतिदिन जल से स्नान सन्ध्या-तर्पण आदि करता है, नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है. सत्य बोलता और गुरु की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता ॥
महात्मा विदुर जी की सारगर्भित बातें सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा---
धृतराष्ट्र उवाच।
एवमेतद्यथा मां त्वमनुशासति नित्यदा ।
ममापि च मतिः सौम्य भवत्येवं यथात्थ माम् ॥ ३० ॥
धृतराष्ट्र ने कहा– हे विदुर ! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार से उपदेश दे रहे हो, वह बहुत ठीक है, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ और समझता हूँ। हे सौम्य ! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हो ऐसा ही मेरा भी विचार है ॥
सा तु बुद्दिः कृताप्येवं पाण्डवान्रप्ति मे सदा ।
दुर्योधनं समासाद्य पुनर्विपरिवर्तते ॥ ३१ ॥
मैं पाण्डवो के प्रति भी सदा ऐसी हो बुद्धि रखने का प्रयास करता हूँ लेकिन जब दुर्योधन मेरे सामने आता है या जब भी मैं उससे मिलता हूँ मेरी बुद्धि पलट जाती है आपके द्वारा दिये गए सारे उपदेश मेरे मन और मस्तिष्क से उसी प्रकार छलक जाते हैं टिकते नहीं हैं जैसे कि कमल पुष्प की पंखुड़ियों से जल बिन्दु फिसल कर नीचे गिर जाते हैं।
न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं मर्त्येन केन चित् ।
दिष्टमेव कृतं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् ॥ ३२ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा --- हे विदुर ! प्रारब्ध का उलंघन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है। मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता हूँ। उसके सामने पुरुषार्थ तो व्यर्थ है। मेरे हिसाब से प्रारब्ध और भाग्य के सामने सभी बौने हैं। इसीलिए कहा गया है कि ---
“भाग्यम फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम”
॥ इति विदुर नीति संपन्ना ॥
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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