Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-26

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Sep 13 2024 5:07PM

जिस व्यक्ति में धैर्य, मनो निग्रह, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना ये सात बातें विद्यमान होती हैं, उसको लक्ष्मी कभी भी छोड़ती नहीं हैं। जिसका चरित्र निन्दनीय है, जो गुणों में दोष देखने वाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही संकट का पहाड़ टूट पड़ता है।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणों को निखारा जा सकता है और धृतराष्ट्र-बुद्धि से बचा जा सकता है। 

नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज, धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं--- 

विद्या शीलवयोवृद्धान्बुद्धिवृद्धांश्च भारत।

धनाभिजन वृद्धांश्च नित्यं मूढोऽवमन्यते ॥ 

विदुर जी कहते हैं- हे भरत श्रेष्ठ ! मूर्ख मनुष्य हमेशा विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल में जो बड़े ही माननीय हैं उनका सदा अनादर किया करता है जो सर्वथा अनुचित है। 

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अनार्य वृत्तमप्राज्ञमसूयकमधार्मिकम्।

अनर्थाः क्षिप्रमायान्ति वाग्दुष्टं क्रोधनं तथा ॥ 

जिसका चरित्र निन्दनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखने वाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही संकट का पहाड़ टूट पड़ता है। 

अविसंवादको दक्षः कृतज्ञो मतिमानृजुः ।

अपि सङ्क्षीण कोशोऽपि लभते परिवारणम् ॥

किसी को भी धोखा न देने वाला चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान् और सरल राजा खजाना समाप्त हो जाने पर भी अपने सहायकों से घिरा रहता है उसके सहायक और शुभ चिंतक उसे छोड़ते नहीं हैं । 

धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा ।

मित्राणां चानभिद्रोहः सतैताः समिधः श्रियः ॥

जिस व्यक्ति में धैर्य, मनो निग्रह, इन्द्रिय संयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना ये सात बातें विद्यमान होती हैं, उसको लक्ष्मी कभी भी छोड़ती नहीं हैं। 

असंविभागी दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः ।

तादृङ्नराधमो लोके वर्जनीयो नराधिप ॥ 

राजन ! जो अपने आश्रितों में धन का ठीक-ठाक बॅटवारा नहीं करता है तथा जो दुष्ट, कृतघ्न और निर्लज्ज है, संसार ऐसे व्यक्ति को त्याग देता है ।। 

न स रात्रौ सुखं शेते स सर्प इव वेश्मनि ।

यः कोपयति निर्दोषं स दोषोऽभ्यन्तरं जनम् ॥ 

जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्प युक्त घर में रहने वाले मनुष्य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता ।। 

येषु दुष्टेषु दोषः स्याद्योगक्षेमस्य भारत ।

सदा प्रसादनं तेषां देवतानामिवाचरेत् ॥ ४१ ॥

हे भ्राता श्री ! जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग और क्षेम में बाधा आती  हो, उन लोगों को देवता की तरह सदा प्रसन्न रखना चाहिये |

यत्र स्त्री यत्र कितवो यत्र बालोऽनुशास्ति च ।

मज्जन्ति तेऽवशा देशा नद्यामश्मप्लवा इव ॥ ४३ ॥

राजन् ! जहां का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है, वहाँ के लोग नदी में पत्थर की नाव पर बैठने वाले की भांति विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं॥ 

यं प्रशंसन्ति कितवा यं प्रशंसन्ति चारणाः ।

यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो न स जीवति मानवः ॥ 

जुआरी जिसकी तारीफ करता है, चारण जिसकी प्रशसा का, गान करता है और वेश्याएँ जिसकी प्रशंसा करती हैं वह मनुष्य जिंदा रहते ही मुर्दे के समान है। 

हित्वा तान्परमेष्वासान्पाण्डवानमितौजसः ।

आहितं भारतैश्वर्यं त्वया दुर्योधने महत् ॥ 

हे भारत ! आपने उन महान् धनुर्धर और अत्यन्त तेजस्वी पाण्डवों को छोड़कर इस महान् ऐश्वर्य का भार दुर्याधन के ऊपर रख दिया है, जो सर्वथा अनुचित है। 

अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्।

लभते बुद्ध्यवज्ञानमवमानं च भारत ॥ 

विदुरजी कहते हैं – हे भरत श्रेष्ठ ! समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोले, तो उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि भी तिरस्कृत होगी ॥

द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डितः ।

प्रिये शुभानि कर्माणि द्वेष्ये पापानि भारत ॥ 

जिससे द्वेष हो जाता है, वह साधु होते हुए भी साधु नहीं दिखता, विद्वान् होने पर भी विद्वान नहीं दिखता और बुद्धिमान् होने पर भी बुद्धिमान् नहीं जान पड़ता है। उसके विपरीत प्रियतम के सभी कर्म शुभ ही जान पड़ते हैं चाहे वह कितना भी अशुभ कर्म क्यों न करे। 

तस्य त्यागात्. पुत्रशतस्य ।

वृद्धि-रस्यात्यागात् पुत्रशतस्य नाशः ॥

राजन् । दुर्योधन के जन्म लेते ही मैंने कहा था कि केवल इसी एक पुत्र को तुम त्याग दो। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और इसका त्याग न करने से सौ पुत्रों का नाश होगा।॥ 

न वृद्धिर्बहु मन्तव्या या वृद्धिः क्षयमावहेत् ।

क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत् ॥ 

जो बुद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये; जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण बने । 

समृद्धा गुणतः के चिद्भवन्ति धनतोऽपरे ।

धनवृद्धान्गुणैर्हीनान्धृतराष्ट्र विवर्जयेत् ॥ 

कुछ लोग गुण के धनी होते हैं, और कुछ लोग धन के धनी । जो धन के धनी होते हुए भी गुण के कंगाल हैं, उन्हें सर्वथा त्याग देना चाहिए। 

धृतराष्ट्र उवाच ।

सर्वं त्वमायती युक्तं भाषसे प्राज्ञसंमतम् ।

न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः ॥

धृतराष्ट्र ने कहा- हे विदुर ! आपकी बातें बिलकुल सही हैं लोग इसका अनुमोदन भी करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी मैं अपने बेटे दुर्योधन का त्याग नही कर सकता ।। 

विदुर उवाच ।

स्वभावगुणसम्पन्नो न जातु विनयान्वितः ।

सुसूक्ष्ममपि भूतानामुपमर्दं प्रयोक्ष्यते ॥

विदुरजी बोले- जो सभी गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। इसलिए तनिक विचार कीजिए और वही कीजिए जो सबके लिए श्रेयस्कर हो ।। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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