Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-21
विदुर जी कहते हैं– जिस कुल में तप, इन्द्रिय संयम वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार- ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें महान् (उतम) कुल कहते हैं।
मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारा जा सकता है।
विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र शोक थोड़ा कम हुआ उन्होने मन ही मन विदुर जी की प्रशंसा की और उत्तम कुल के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की।
धृतराष्ट्र उवाच ।
महाकुलानां स्पृहयन्ति देवा धर्मार्थवृद्धाश्च बहुश्रुताश्च ।
पृच्छामि त्वां विदुर प्रश्नमेतत भवन्ति वै कानि महाकुलानि ॥
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर। धर्म और अर्थ के नित्य ज्ञाता एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न होने की इच्छा करते हैं। इसलिये मैं तुमसे यह जानना चाहता हूँ कि महान् (उत्तम) कुल कौन है ? ॥
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विदुर उवाच।
तमो दमो ब्रह्मवित्त्वं वितानाः पुण्या विवाहाः सततान्न दानम् ।
येष्वेवैते सप्तगुणा भवन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि ॥
विदुर जी कहते हैं –जिस कुल में तप, इन्द्रिय संयम वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार- ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें महान् (उतम) कुल कहते हैं ॥
येषां न वृत्तं व्यथते न योनिर् वृत्तप्रसादेन चरन्ति धर्मम् ।
ये कीर्तिमिच्छन्ति कुले विशिष्टां त्यक्तानृतास्तानि महाकुलानि ॥
जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्न चित्त से धर्म का आाचरण करते हैं तथा असत्य का परित्याग कर अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं, वे ही महान् कुलीन हैं ॥
अनिज्ययाविवाहैर्श्च वेदस्योत्सादनेन च ।
कुलान्यकुलतां यान्ति धर्मस्यातिक्रमेण च ॥
किन्तु हे भ्राता श्री ! यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उलंघन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं।।
ब्राह्मणानां परिभवात्परिवादाच्च भारत ।
कुलान्यकुलतां यान्ति न्यासापहरणेन च ॥
हे भारत ! ब्राह्मणों के अनादर और निन्दा से तथा धरोहर रखी हुई वस्तु को छिपा लेने से अच्छे कुल भी निन्दनीय हो जाते
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि ।
कुलसङ्ख्यां तु गच्छन्ति कर्षन्ति च मयद्यशः ॥
थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्र हैं, तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं ।।
वृत्त यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥
सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये॥
मा नः कुले वैरकृत्कश् चिदस्तु राजामात्यो मा परस्वापहारी ।
मित्रद्रोही नैकृतिकोऽनृती वा पूर्वाशी वा पितृदेवातिथिभ्यः ॥
हमारे कुल में कोई बैर करने वाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला राजा अथवा मन्त्री न हो और मित्र द्रोही, कपटी तथा असत्य वादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता एवं अतिथियों को भोजन कराने के बाद ही भोजन ग्रहण करे।
सूक्ष्मोऽपि भारं नृपते स्यन्दनो वै शक्तो वोढुं न तथान्ये महीजाः ।
एवं युक्ता भारसहा भवन्ति महाकुलीना न तथान्ये मनुष्याः ॥
नृपवर ! छोटा-सा भी रथ भार ढो सकता है, किन्तु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते । इसी प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सह सकते हैं, किन्तु अपनी कुलीनता पर आँच नहीं आने देते।
न तन्मित्रं यस्य कोपाद्बिभेति यद्वा मित्रं शङ्कितेनोपचर्यम् ।
यस्मिन्मित्रे पितरीवाश्वसीत तद्वै मित्रं सङ्गतानीतराणि ॥
जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शङ्कित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है । मित्र तो वही है, जिस पर पिता की भाँति विश्वास किया जा सके, दूसरे तो सङ्गमात्र हैं ॥
चलचित्तमनात्मानमिन्द्रियाणां वशानुगम् ।
अर्थाः समतिवर्तन्ते हंसाः शुष्कं सरो यथा ॥
जैसे हंस सुखे सरोवर के आस-पास ही मंड़राकर रह जाते हैं, भीतर नहीं प्रवेश करते उसी प्रकार जिसका चित्त चञ्चल है; जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, उसे अर्थ की प्राप्ति नहीं होती।
अकस्मादेव कुप्यन्ति प्रसीदन्त्यनिमित्ततः ।
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा ॥
दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेध के समान चञ्चल होता है, वे सहसा क्रोध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥
अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते ।
अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति मा स्म शोके मनः कृथाः ॥
अभीष्ट चस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो केवल शरीर को कष्ट होता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें ॥
सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च ।
पर्यायशः सर्वमिह स्पृशन्ति तस्माद्धीरो नैव हृष्येन्न शोचेत् ॥
सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण- ये वारी: बारी से सबको प्राप्त होते रहते हैं, इसंलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये।
इस प्रकार विदुर जी ने अपने विवेक के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र को खूब समझाया। हम सबको भी विदुर जी द्वारा बताई गईं बातों पर गौर करना चाहिए और विदुर्नीति को अपने जीवन में उतारना चाहिए।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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