Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-20
जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्म पर आघात करता और वाग्बाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महा दरिद्र है और वह अपने मुख में दरिद्रता को बाँधे हुए जी रहा है।
मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारा जा सकता है।
विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की।
विदुर जी कहते हैं ---
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षितः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥
हे भरत श्रेष्ठ !
दूसरा व्यक्ति यदि गाली भी दे तो उसको क्षमा कर देना चाहिए। क्षमा करने वाले का भीतरी क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्य को भी नष्ट कर देता है ॥
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी ।
न चातिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वाचं रुशतीं वर्जयीत ॥
दूसरे को न तो गाली दे और न उसका अपमान करे, मित्रों से द्रोह तथी नीच पुरुषों की सेवा न करे, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो, कठोर तथा रोष भरी वाणी का परिल्याग करे ॥
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मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून् घोरा वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम् ।
तस्माद्वाचं रुशतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत ॥
इस जगत् में रूखी बातें मनुष्यों के मर्म स्थान को दग्ध करती रहती हैं; इसलिये धर्मानुरागी पुरुष दूसरों को जलाने वाली रूखी बातों को सदा के लिये परित्याग कर दे।।
अरुं तुरं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निरृतिं वहन्तम् ॥
जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्म पर आघात करता और वाग्बाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महा दरिद्र है और वह अपने मुख में दरिद्रता को बाँधे हुए जी रहा है।
परश्चेदेनमधिविध्येत बाणैर् भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्क दीप्तैः ।
विरिच्यमानोऽप्यतिरिच्यमानो विद्यात्कविः सुकृतं मे दधाति ॥
यदि कोई मनुष्य अग्नि और सूर्यक समान दग्ध करने वाले तीखे वचनों से चोट पहुँचावे तो समझदार पुरुष को चाहिए कि वह उसका प्रतिकार न करें बल्कि ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यो को पुष्ट कर रहा है ॥
यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव ।
वासो यथा रङ्ग वशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥
जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, तपस्वी अथवा चोर की सेवा करता है तो वह उसी के जैसा हो जाता है उस पर वैसा ही रंग चढ़ जाता है।।
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तद्द्वितीयम् ।
प्रियंवदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ १२ ॥
वाणी की विशेषता बताते हुए विदुर जी कहते हैं---
जब भी बोलें व्यवहारिक बातें ही बोलें, सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, सत्य भी यदि प्रिय बोला जाय तो तीसरी विशेषता है और वह भी यदि धर्म सम्मत कहा जाय तो वह बचन की चौथी विशेषता है ॥
यादृशैः संविवदते यादृशांश् चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पुरुषः ॥
मनुष्य जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है ॥
यतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते ।
निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि ॥ १४ ॥
मनुष्य जिस विषय से मन को हटाता जाता है उससे उसकी मुक्ति होती जाती है, इस प्रकार यदि सब ओर से निवृत हो जाय तो उसे लेशमात्र भी दुःख का अनुभव नहीं होता ।।
भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मतिम् ।
सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः ॥
जो सबका कल्याण चाहता है, किसीके अकल्याण की बात मन में भी नहीं लाता; जो सत्यवादी कोमल और जितेन्द्रिय है, वह उत्तम पुरुष माना गया है ॥
नानर्थकं सान्त्वयति प्रतिज्ञाय ददाति च ।
राद्धापराद्धे जानाति यः स मध्यमपुरुषः ॥
जो झूठी सान्त्वना नहीं देता, देने की प्रतिज्ञा कर के दे ही डालता है, दूसरों के दोषों को जानता है, वह मध्यम श्रेणी का पुरुष है ॥
दुःशासनस्तूपहन्ता न शास्ता नावर्तते मन्युवशात्कृतघ्नः ।
न कस्य चिन्मित्रमथो दुरात्मा कलाश्चैता अधमस्येह पुंसः ॥
जिसका शासन अल्यन्त कठोर हो, जो अनेक दोषों से दूषित हो, कलंकित हो, जो किसी की बुराई करने से पीछे न हटता हो, दूसरों के किये हुए उपकार को नहीं मानता हो, जिसकी किसी के साथ मित्रता नहीं हो ये अधम पुरुष के लक्षण हैं।।
उत्तमानेव सेवेत प्राप्ते काले तु मध्यमान् ।
अधमांस्तु न सेवेत य इच्छेच्छ्रेय आत्मनः ॥
अपनी उन्नति और अपना कल्याण चाहने वाला व्यक्ति उत्तम पुरुषों की ही सवा करे, समय आने पर मध्यम पुरुषों की भी सेवा कर ले, परंतु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करे ।।
इस प्रकार विदुर जी ने अपने विवेक के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र को खूब समझाया। हम सबको भी विदुर जी द्वारा बताई गईं बातों पर गौर करना चाहिए और विदुर्नीति को अपने जीवन में उतारना चाहिए।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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