Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-19

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Jul 19 2024 6:52PM

विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें । 

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –

विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर  मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है। 

विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की। 

विदुर जी धृतराष्ट्र से कहते हैं, हे राजन !

असूयको दन्द शूको निष्ठुरो वैरकृन्नरः ।

स कृच्छ्रं महदाप्नोतो नचिरात्पापमाचरन् ॥ 

जो दूसरों के गुणो में दोष देखता है , मर्म पर आधात करता है, अनावश्यक किसी से शत्रुता करता है उसको शठ कहा गया है वह मनुष्य पापका आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान् कष्ट को प्राप्त करता है॥ 

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अनसूयः कृतप्रज्ञ्टः शोभनान्याचरन्सदा ।

अकृच्छ्रात्सुखमाप्नोति सर्वत्र च विराजते ॥ 

दोषदृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धिवाला व्यक्ति सदा शुभ कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ महान् सुख को प्राप्त करता है और सर्वत्र उसका सम्मान होता है ॥ 

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यः स पण्डितः ।

प्राज्ञो ह्यवाप्य धर्मार्थौ शक्नोति सुखमेधितुम् ॥ 

जो बुद्धिमान् पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्त करता है, वही समझदार और पण्डित है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपनी उन्नति करने में समर्थ होता है ॥ 

दिवसेनैव तत्कुर्याद्येन रातौ सुखं वसेत् ।

अष्ट मासेन तत्कुर्याद्येन वर्षाः सुखं वसेत् ॥ 

मनुष्य को चाहिए कि वह दिनभर में ही वह कार्य कर ले, जिससे रात में सुख से रह सके और आठ महीनों में वह कार्य कर ले, जिससे वर्षा के चार महीने सुख से व्यतीत कर सके॥ 

पूर्वे वयसि तत्कुर्याद्येन वृद्धसुखं वसेत् ।

यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥ 

जीवन की पहली अवस्था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्था में सुखपूर्वक रह सके और जीवन भर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी सुख से रह सके ॥ 

जीर्णमन्नं प्रशंसन्ति भार्यं च गतयौवनाम् ।

शूरं विगतसङ्ग्रामं गतपारं तपस्विनम् ॥ ६९ ॥

सज्जन पुरुष वह है, जो भोजन पच जाने पर जो अन्न की प्रशंसा करता है, जवानी बीत जाने पर अपनी पत्नी की प्रशंसा करता है, संग्राम जीत लेने पर अपने शूर-वीरों की प्रशंसा करता है और तत्त्व ज्ञान प्राप्त हो जानेपर तपस्वी की प्रशंसा करता है।। 

धनेनाधर्मलब्धेन यच्छिद्रमपिधीयते ।

असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते ॥ 

अधर्म से प्राप्त हुए धन के द्वारा जो दोष छिपाया जाता है, वह तो छिपता नहीं, उससे अलग और नया दोष प्रकट हो जाता है ।। 

गुरुरात्मवतां शास्ता शासा राजा दुरात्मनाम् ।

अथ प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥ 

अपने मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले शिष्यों के शासक गुरु हैं, दुष्टों के शासक राजा हैं और छिपे-छिपे पाप करने वालों के शासक सूर्यपुत्र यमराज हैं॥ 

ऋषीणां च नदीनां च कुलानां च महामनाम् ।

प्रभवो नाधिगन्तव्यः स्त्रीणां दुश्चरितस्य च ॥ 

ऋषि, नदी, महात्माओं के कुल तथा स्त्रियों के दुश्चरित्र का मूल नहीं जाना जा सकता ॥ 

द्विजातिपूजाभिरतो दाता ज्ञातिषु चार्जवी ।

क्षत्रियः स्वर्गभाग्राजंश्चिरं पालयते महीम् ॥ 

राजन् ! ब्राह्मणों की सेवा-पूजा में संलग्र रहने वाला, दाता, अपने परिवार जनों के प्रति कोमलता का बर्ताव करने वाला और शीलवान् राजा चिरकाल तक पृथ्वी का पालन करता है॥ 

सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः ।

शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ॥ 

शूर, विद्वान् और सेवाधर्म को जानने वाले ये तीन प्रकार के मनुष्य पृथ्वी से सुवर्ण रूपी पुष्प का चयन सदा करते रहते हैं। 

बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत ।

तानि जङ्घा जघन्यानि भारप्रत्यवराणि च ॥ 

भारत ! बुद्धि से विचारकर किये हुए कर्म श्रेष्ठ होते हैं, बाहुबल से कियें जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के हैं, जडता से होने वाले कार्य अधम हैं और भार ढोने का काम सबसे अधिक अधम है ॥ 

दुर्योधने च शकुनौ मूढे दुःशासने तथा ।

कर्णे चैश्वर्यमाधाय कथं त्वं भूतिमिच्छसि ॥ 

हे भ्राता श्रेष्ठ ! अब आप ही बताएँ कि दुर्योधन, शकुनि, मूर्ख दुःशासन तथा कर्ण पर राज्य का भार रखकर उन्नति कैसे चाहते हैं ? ॥ 

सर्वैर्गुणैरुपेताश्च पाण्डवा भरतर्षभ ।

पितृवत्त्वयि वर्तन्ते तेषु वर्तस्व पुत्रवत् ॥ 

भरत श्रेष्ठ ! पांडव तो सभी उत्तम गुणों से संपन्न हैं और आप में पिता जैसा  भाव रखकर बर्ताव करते हैं, आप भी उन पर पुत्रभाव रखकर उचित व्यवहार कीजिये ॥ 

इस प्रकार विदुर जी ने अपने विवेक के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र को खूब समझाया। हम सबको भी विदुर जी द्वारा बताई गईं बातों पर गौर करना चाहिए और विदुर्नीति को अपने जीवन में उतारना चाहिए। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

- आरएन तिवारी

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