Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-11
विदुर जी कहते हैं, हे भ्राता श्री ! जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म-इन चारों से अपनी प्रजा को प्रसन्न रखता है, वही प्रजा अपने राजा को भी प्रसन्न रखती है और राजा तथा राज्य की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझती है।
मित्रों! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें ।
प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –
विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं ---
कांश्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लभु मूलान्महाफलान् ।
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ॥
जिस कार्य का मूल छोटा हो और फल महान् हो, बुद्धिमान् पुरुष उस कार्य को शीघ्र ही आरम्म कर देता है, वैसे कामों में वह विघ्न नहीं आने देता।॥
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ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव ।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्ति तं प्रजाः ॥
जो राजा अपनी आँखों से सब पर प्रेम रस बरसाता रहता है और सभी को प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, वह चुपचाप बैठा रहे तो भी उसकी प्रजा उससे सदा अनुराग रखती है।
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम् ।
प्रसादयति लोकं यस्तं लोकोऽनुप्रसीदति ॥
विदुर जी कहते हैं, हे भ्राता श्री ! जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म-इन चारों से अपनी प्रजा को प्रसन्न रखता है, वही प्रजा अपने राजा को भी प्रसन्न रखती है और राजा तथा राज्य की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझती है।
यस्मात्त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव ।
सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते ॥
जैसे व्याघ्र से हिरण भयभीत रहता है, उसी प्रकार यदि राजा भी अपनी प्रजा को डराता और धमकाता रहे तो वह कितना भी पराक्रमी क्यों न हो, वह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर राज्य क्यों न करता हो, वह प्रजा जनों के द्वारा तत्काल त्याग दिया जाता है ।
पितृपैतामहं राज्यं प्राप्तवान्स्वेन तेजसा ।
वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ॥
अन्याय के मार्ग पर चलता हुआ राजा बाप-दादों का राज्य पाकर भी अपने ही कर्मो से उसे इस तरह भ्रष्ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है ॥
र्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्चरितमादितः ।
वसुधा वसुसम्पूर्णा वर्धते भूतिवर्धनी ॥
परम्परा से सज्जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्म का आचरण करनेवाले राजा के राज्य की पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति को प्राप्त होती है और उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है॥
अथ सन्त्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः ।
प्रतिसंवेष्टते भूमिरग्नौ चर्माहितं यथा ॥
जो राजा सत्य और धर्म को छोड़ता है और अधर्म का अनुष्ठान करता है, उसकी राज्यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है । ।
य एव यत्नः क्रियते प्रर राष्ट्रावमर्दने ।
स एव यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्र परिपालने ॥
जो प्रयास दूसरे राष्ट्रों का नाश करने के लिये किया जाता है, यदि वही प्रयास और शक्ति अपने राज्य की रक्षा के लिये करना उचित है ।
धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत् ।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ॥
धर्म से ही राज्य प्राप्त करे और धर्म से ही उसकी रक्षा करे; क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न राज्यलक्ष्मी उस राजा को छोड़ती है॥
अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिसर्पतः ।
सर्वतः सारमादद्यादश्मभ्य इव काञ्चनम् ॥
निरर्थक बोलने वाले, पागल तथा बकवाद करने वाले बच्चे से भी ज्ञान और तत्वकी बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्थरों में से सोना ले लिया जाता है॥
सुव्याहृतानि सुधियां सुकृतानि ततस्ततः ।
सञ्चिन्वन्धीर आसीत शिला हारी शिलं यथा ॥
जैसे साधन हीन व्यक्ति अपनी जीविका चलाने के लिए अनाज का एक-एक दाना चुगता रहता है, उसी प्रकार धैर्य वान पुरुष को सत्कर्मो का संग्रह करते रहना चाहिये ॥
गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः ।
चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ॥
गो माता गन्धसे, ब्राह्मण लोग वेदों से, राजा अपने गुप्तचरों से और अन्य साधारण लोग आँखों से देखा करते हैं ॥
भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा ।
अथ या सुदुहा राजन्नैव तां विनयन्त्यपि ॥
राजन ! जो गाय बड़ी कठिनाई से दूध दुहने देती हैं, वह बहुत कष्ट उठाती हैं लोग उसको मरते-पीटते हैं किंतु जो आसानी से दुध देती है, उसे लोग कष्ट नहीं देते।।
यदतप्तं प्रणमति न तत्सन्तापयन्त्यपि ।
यच्च स्वयं नतं दारु न तत्संनामयन्त्यपि ॥
जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्हें आग में नहीं तपाया जाता है । जो काठ स्वयं झुका होता है, उसे लोग झुकाने का प्रयल्न नहीं करते।।
एतयोपमया धीरः संनमेत बलीयसे ।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ॥
इस दृष्टान्त के अनुसार बुद्धिमान् पुरुष को अधिक बलवान के सामने झुक जाना चाहिये। जो अधिक बलवान के सामने झुकता है, वह मानो इन्द्रदेवता को प्रणाम करता है।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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