Gyan Ganga: श्रीराम ने लंका जाने तक के अभियान को एक 'टीम वर्क' के रूप में साकार किया था
श्रीहनुमान जी के यह वाक्य भी यही इंगित कर रहे हैं, कि हे भाईयों! आप तब तक यहीं सागर इस पार रह कर मेरी राह ताकना। भले ही इसमें आप लोगों को कष्ट महसूस हो, लेकिन आप डटे रहना। कारण कि तभी तो यह सिद्ध हो पायेगा कि श्रीसीता जी की खोजने में सभी वानरों का ही हाथ है।
क्योंकि जाम्बवान ने श्रीहनुमान जी को यही प्रस्ताव दिया कि राक्षसों का वध तो स्वयं श्रीरघुनाथ जी अपने कर कमलों से करेंगे। आप तो बस श्रीसीता जी की सुधि लेकर लौट आओ। यह सुन श्रीहनुमान जी को बहुत ही अच्छा लगा-
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‘जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।’
श्रीहनुमान जी ने वानरों से कहा कि भाई तुम लोग यहीं रह कर मेरा इन्तजार करना। मुझे पता है कि इस दौरान आपको दुख भी झेलने पड़ेंगे। कारण कि इन्तजार करना, अपने आप में एक भयंकर कष्ट होता है। लेकिन तुम लोग तब भी एक तपस्वी की भाँति कंद मूल खाकर मेरी राह देखते रहना। राह इसलिए देखना, क्योंकि मन में प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार आना, मन का स्वभाव है। पता नहीं कब निराशा घेरकर खड़ी हो जाती है। निराशा हो तो हाथी भी ढेरी ढाह कर बैठ जाता है। हार जाता है। लेकिन उत्साह हो, तो नन्हां-सा कीट भी सागर पार कर सकता है। इसलिए जब-जब भी आप उस राह पर देखोगे, जिस राह पर से मुझे लौट कर आना है, तब-तब आप की आस को पंख लगेंगे। और आप निकट सुंदर भविष्य के प्रति आश्वस्त होंगे। कारण कि अध्यात्म का मार्ग है ही ऐसा कि आप को सुखद परिणाम का फल भले ही सुनिश्चित रहे। लेकिन जिस समय साधक इस इन्तजार की घड़ी को जी रहा होता है, उस समय तो परिणाम सागर के उस पार छुपा होता है। और सागर के उस पार न तो वानरों जैसा साधारण देख ही पाता है, और न ही उसे वहाँ पहुँचने का सामथर्य होता है। इसलिए भले ही इतने वानरों में कोई एक ही वानर सागर पार जाने में सक्षम हो, लेकिन तब भी बाकी वानरों को यह विश्वास तो निरंतर बनाये रखना पड़ना आवश्यक था, कि श्रीहनुमान जी मैदान फतह करके बस अब लौटै, कि तब लौटे। फिर यह अभियान भले ही पूरे का पूरा, श्रीहनुमान जी के पराक्रम पर ही टिका था। कारण कि श्रीराम मुद्रिका भी तो श्रीराम जी ने केवल श्रीहनुमान जी को ही तो दी थी। जिसका सीधा-सा तात्पर्य था कि इस अभियान के एकमात्र ‘हीरो’ श्रीहनुमान जी ही थे। लेकिन श्रीराम जी ने तब भी इस पूरे महाअभियान को एक ‘टीम वर्क’ के रूप में साकार करने का माडल प्रदान किया था। ताकि भले ही श्रीसीता जी की सुधि लाने का श्रेय श्रीहनुमान जी के शीश पर ही बँधना चाहिए। लेकिन तब भी इससे बाकी वानरों का उत्साह बने, व उन्हें अपनी असफता की निराशा न घेरे। इसलिए सब और यही प्रचारित होना चाहिए कि वानरों ने मिलकर श्रीसीता जी को खोज निकाला।
श्रीहनुमान जी के यह वाक्य भी यही इंगित कर रहे हैं, कि हे भाईयों! आप तब तक यहीं सागर इस पार रह कर मेरी राह ताकना। भले ही इसमें आप लोगों को कष्ट भी महसूस हो, लेकिन आप लोग डटे रहना। कारण कि तभी तो यह सिद्ध हो पायेगा कि श्रीसीता जी की खोजने में सभी वानरों का ही हाथ है। वरना श्रीहनुमान जी के लंका हेतु प्रस्थान करने पर बाकी वानर सोच सकते थे, कि चलो भाई! माता सीता की खोज तो श्रीहनुमान जी कर ही लायेंगे। अपना कार्य तो समाप्त समझो। तो क्यों न हम अपने घरों को वापिस लौट जायें। सज्जनों वानर अगर ऐसा कुछ कर बैठते और वापिस अपने क्षेत्रों में लौट जाते, तो क्या इस पूरे अभियान की सुंदरता शेष रह पाती? फिर तो पूरा घटनाक्रम श्रीहनुमान जी तक सिमट कर रह जाता। और श्रीराम जी का उद्देश्य तो प्रत्येक वानर को श्रीहनुमान जी जैसा सम्मान देने का है। ठीक है, बाकी वानरों ने भले ही श्रीहनुमान जी भाँति छलाँग नहीं लगाई है, लेकिन उस महान, अलौकिक व श्रेष्ठ छलाँग के साक्षी तो बने ही हैं। आज उस छलाँग के साक्षी हैं, तो कल को हो सकता है कि बाकी वानर भी ऐसी ही छलाँग बात ही बात में लगा जाया करें। और ऐसा हुआ भी। श्रीरामचरितमानस में यह वर्णन है कि जिस समय श्रीराम जी सागर पर सेतु का निर्माण करते हैं, तो सेतु इतना संकरा था कि पूरे साजो सामान के साथ सभी वानरों का एक साथ सागर पार करना संभव ही नहीं था। तो श्रीराम जी ने कहा कि पहले तो केवल श्रीहनुमान जी ही उड़ कर गए थे, लेकिन इस बार बाकी वानर भी उड़ कर जायेंगे। तो उस समय करोड़ों ने उड़ कर सागर पार किया था। खैर! श्रीहनुमान जी सागर जाने के लिए पूरे उत्साह के साथ भरे हुए हैं। तभी वे बात ही बात में एक सुंदर पर्वत पर जा कर खडे हो गए। उनके मुख से बार-बार श्रीराम जी के जय घोष निकल रहे हैं। श्रीहनुमान जी उस पहाड़ी पर जोर से उछले-
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‘बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।’
जैसे ही श्रीहनुमान जी उस पर्वत पर जोर से उछले, एक महान कौतुक घटा। हुआ क्या कि श्रीहनुमान जी के उस पहाड़ी पर उछलते ही, वह पहाड़ी, पताल में धँस गई-
‘जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।’
जी हाँ! यह शत प्रतिशत सत्य है। श्रीहनुमान जी के उस पर्वत पर उछलते ही, वह पर्वत पाताल में धँस गया। और श्रीहनुमान जी हवा में इस प्रकार से गतिमान हुए, जैसे श्रीराम जी का बाण उनके धनुष से छूटकर निकलता है। यहाँ कुछ जिज्ञासुयों को यह विचार हो सकता है, कि अपच पैदा करे, कि श्रीहनुमान जी के उस पर्वत पर उछलने मात्र से वह पर्वत भला पाताल में कैसे धँस सकता है? लगता ऐसे जिज्ञासु जनों ने उनरोक्त चौपाई को ध्यान से नहीं पढ़ा। जिसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितना स्पष्ट लिखा है कि श्रीहनुमान जी पर्वत से यूँ उछले मानो श्रीराम जी का बाण उनके धनुष से छूटा हो। सज्जनों इस घटनाक्रम में विज्ञान का स्पष्ट दर्शन प्रतीत हो रहा है। न्यूटन का गति का तृतीय नियम कहता है कि जब किसी भी वस्तु किसी अन्य वस्तु द्वारा बल लगाया जाता है, तो उतना ही बल वह वस्तु भी लगाती है, जिसपे बल लगाया गया है। श्रीहनुमान जी ने उस पर्वत पर इतना बल लगाया, कि वह पर्वत पाताल में धँस गया। और विज्ञान के नियम अनुसार उतना ही बल श्रीहनुमान जी पर भी लगा। जिसका परिणाम यह हुआ, कि श्रीहनुमान जी ऐसी गति से पवनमय हुए, कि मानों श्रीराम जी का बाण निकला हो। क्योंकि बाण की गति भी तो इसी सिद्धांत पर आधारित है, कि धनुष पर उस बाण द्वारा जितना अधिक बल देकर पीछे धकेला जाता है, वह बाण उतनी ही गति से गतिमान होता है।
आगे श्रीहनुमान जी के मार्ग पर क्या-क्या घटनाक्रम घटते हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
- सुखी भारती
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