Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-4 में क्या क्या हुआ

lord rama
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आरएन तिवारी । Jan 31 2025 12:23PM

इस दुनिया में चन्दन को सबसे अधिक शीतल माना जाता है पर चन्द्रमा चन्दन से भी अधिक शीतल होता है लेकिन सज्जन पुरुष चन्द्रमा और चन्दन दोनों से अधिक शीतल होते हैं। संत की संगति चंद्रमा और चन्दन से भी अधिक शीतलता प्रदान करती है।

श्री रामचन्द्राय नम:

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥

संत और सज्जनों की संगति की महिमा का बखान करते हुए संत शिरोमणि गोस्वामी जी कहते हैं कि संत महात्माओं में वह शक्ति होती है कि वे अपनी संगति के प्रभाव से कौए को कोयल बना देते हैं, बगुले को हंस बना देते हैं यहाँ तक कि लोहे को स्वर्ण बना देते हैं। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा अपरम पार है। 

अनेक सुभाषितकारों ने भी संतों की महिमा का गुणगान किया है। 

इस दुनिया में चन्दन को सबसे अधिक शीतल माना जाता है पर चन्द्रमा चन्दन से भी अधिक शीतल होता है लेकिन सज्जन पुरुष चन्द्रमा और चन्दन दोनों से अधिक शीतल होते हैं। संत की संगति चंद्रमा और चन्दन से भी अधिक शीतलता प्रदान करती है। 

चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा |

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ||

गोस्वामी जी कहते हैं कि ----

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥

बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं।  जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥

सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी पूरी तरह से संत महिमा का वर्णन करने में समर्थ नहीं है तो मैं अल्प बुद्धि वाला व्यक्ति कैसे कर सकता है।  

दोहा :

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥

मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।

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संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।

बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, कि वे श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 


खल वंदना

चौपाई :

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥

अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥

जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं। 

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥

उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥

जो तेज में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है। 

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा। 

जैसे ओले खेती का नाश करके खुद भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥

पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। 


बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।

सहस नयन पर दोष निहारा॥

जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥

दोहा :

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥

दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक उनकी विन्ती  करता हूँ।  

चौपाई :

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥

मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं? अर्थात कभी नहीं, अभिप्राय यह है कि दुष्ट अपनी आदत से बाज नहीं आएँगे, वे मेरी निंदा अवश्य करेंगे। 

शेष अगले प्रसंग में ------

राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥

- आरएन तिवारी

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