Gyan Ganga: कौन सा समाचार सुनकर भगवान शंकर भयंकर क्रोध से भर गये
वीरभद्र ने, प्रजापति दक्ष की गर्दन पर तलवार से प्राणघातक प्रहार किया। वीरभद्र के इस प्रहार से प्रजापति की मृत्यु निश्चित थी। किंतु दक्ष की मुत्यु नहीं हो पाती। तब वीरभद्र दक्ष की गर्दन को मरोड़ कर तोड़ देते हैं, और उसके सिर को धधकते यज्ञ कुण्ड़ में डाल देते हैं।
प्रजापति दक्ष ने यज्ञ में जो किया, वह निःसंदह सम्मान योग्य नहीं था। संसार में कोई भी प्रजापति दक्ष के इस कृत्य का समर्थन नहीं करेगा। लेकिन कुछ पाप कर्म ऐसे होते हैं, जिनको अविलम्भ दण्ड़ के माध्यम से निपटाना आवश्यक होता है। भगवान शंकर का भी यही मत था।
श्रीसती जी तो दक्ष के यज्ञ में अपनी देह व भविष्य के सुंदर स्वप्नों को स्वाह कर ही चुकी थी, साथ में भगवान शंकर के सम्मान की भी रक्षा नहीं कर पाई थी। जो भी हो, वे श्रेष्ठ भक्त तो थी ही। जिस कारण भगवान शंकर के हृदय में उनके प्रति अतिअंत प्रेम व भाव था। श्रीनारद जी ने जैसे ही भगवान शंकर से श्रीसती जी के देहासन का समाचार दिया, तो भगवान शंकर भयंकर क्रोध से भर गये। उन्होंने उसी क्षण अपनी जटायों से एक भाग निकाला, और उसे धरा पर पटक दिया। जिसमें से एक बहुत ही भयंकर शिव गण की उत्पत्ति होती है। उनके लाल नेत्र हैं। विशालकाय रुप है। और उनका कोई भी सामना नहीं कर पा रहा था। भगवान शंकर उन्हें वीरभद्र ने के नाम से पुकारते हैं। प्रगट होते ही वीरभद्र दोनों हाथ जोड़ कर कहते हैं, ‘मेरे लिए क्या आज्ञा है प्रभु?’
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भगवान शंकर कहते हैं, ‘हे वीरभद्र मेरी आज्ञा स्पष्ट है। जाकर प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर दो। सभी सभासदों को उचित दण्ड दो। रही बात प्रजापति दक्ष की, तो उसे प्राण दण्ड देकर ही मेरे समक्ष प्रस्तुत होना।’
भगवान शंकर की आज्ञा सुनकर उसी समय वीरभद्र, प्रजापति दक्ष के यज्ञ में जा पहुँचे। वहाँ जाते ही उन्होंने यज्ञकुण्ड को उजाड़ दिया। उजड़ी यज्ञशाला के बाँस के डण्डों से वहाँ उपस्थित पुजारियों को पीट डाला, और अंततः मुख्य चार लोगों को पकड़ लिया। पहले प्रजापति दक्ष, दूसरे यज्ञ करवाने वाले आचार्य भृगु जी, एवं बाकी दो पूषा और भग थे, जो कि भगवान शंकर के विरोधी थे।
वीरभद्र ने सबसे पहले आचार्य को दण्ड दिया। उन्होंने उसकी दाड़ी व मूछों के बालों को उखाड़ दिया। कारण कि आचार्य भृगु अपनी दाड़ी व मूछों हाथ मारते हुये भगवान शंकर को सजा देने के लिए इशारे कर रहे थे। इसके पश्चात वीरभद्र ने पूषा के दाँत निकाल दिये। क्योंकि वह भी भगवान शंकर के अपमान पर जोर-जोर से हँस रहा था।
भग भी कैसे बच पाता? वीरभद्र ने उसकी आँखें निकाल ली। क्योंकि वह भी आँखों के इशारों से कह रहा था, कि भगवान शंकर का अपमान करो।
इसके पश्चात वीरभद्र ने, प्रजापति दक्ष की गर्दन पर तलवार से प्राणघातक प्रहार किया। वीरभद्र के इस प्रहार से प्रजापति की मृत्यु निश्चित थी। किंतु दक्ष की मुत्यु नहीं हो पाती। तब वीरभद्र दक्ष की गर्दन को मरोड़ कर तोड़ देते हैं, और उसके सिर को धधकते यज्ञ कुण्ड़ में डाल देते हैं। जिससें दक्ष का सिर भस्म हो जाता है। यह समाचार संपूर्ण जगत में वन की आग की तरह फैल जाता है। ब्रह्मा जी को जब यह सूचना मिलती है, तो वे चिंतित हो जाते हैं। क्योंकि यज्ञ विध्वंस होना सृष्टि के उत्थान के लिए ठीक नहीं था। प्रजापति दक्ष कैसा भी था, किंतु यज्ञ की मर्यादा भंग नहीं होनी चाहिए थी। इसी निमित ब्रह्मा जी अन्य देवताओं को लेकर शिवजी के पास पहुँचे। और उन्हें प्रणाम किया। भगवान शंकर ने जब ब्रह्मा जी को सामने पाया, तो वे दोनों हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। बोले कि हे पितामाह! आप हमें हाथ मत जोड़िए! आप तो बस आदेश कीजिए।
तब ब्रह्मा जी ने कहा, कि हे महादेव! आपकी महिमा अपार है। आपका संपूर्ण संसार में कोई सानी नहीं है। आप दया के सागर हैं। किंतु यज्ञ की रक्षा के लिए आपका खड़े होना अति आवश्यक है। यज्ञ के यजमान प्रजापति दक्ष को आपके गण वीरभद्र ने मुत्यु के घाट उतार दिया है। यज्ञ संपूर्ण हो, इसके लिए उसका जीवित होना अनिवार्य है। तो कृप्या आप उसे जीवित कर दें।
भगवान शंकर ने सोचा, कि ब्रह्मा जी का आदेश टाला नहीं जा सकता। उधर नंदी जी ने भी प्रजापति दक्ष को शाप दे रखा है, वह अगले जन्म में बकरा बनेगा। तो अगले जन्म में क्यों, क्यों न उसे इसी जन्म में बकरा बना दिया जाये।
तब भगवान शंकर ने आदेश दिया, कि बकरे का सिर काट कर लाया जाये। शिवगणों ने ऐसा ही किया। वे बकरे का सिर काट कर लाये, और भगवान शंकर ने उसे प्रजापति दक्ष के धड़ पर लगा दिया। तब कहीं जाकर प्रजापति दक्ष की अकड़ टूटी, और उसने भगवान शंकर की स्तुति की। आचार्य भृगु की दाड़ी मूँछ ही लौटा दी गई, और पूषा के दाँत भी उगा दिये गये। भग ने भी प्रार्थना की, कि उसका भी दुख हरा जाये। तब उसकी भी आँखें वापस कर दी गई।
- सुखी भारती
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