Gyan Ganga: बड़े विरक्त मन से भगवान शंकर ने श्रीसती जी को यज्ञ में जाने की आज्ञा दी
भगवान शंकर के वचनों को भला कहाँ असत्य सिद्ध होना था। भगवान शंकर ने जब कहा था, कि पिता के यहाँ बिना बुलाये जाने से कल्याण नहीं होगा, और साथ ही शील-स्नेह व मान मर्यादा भी नहीं रहेगी, तो ऐसा तो होकर रहना ही था।
भगवान शंकर देख रहे हैं, कि श्रीसती जी के मन में, अपने पिता के गृह भवन में किये जा रहे, यज्ञ आयोजन में अति रुचि है। वहाँ जाना भोलेनाथ को अप्रिय भी नहीं था। कारण कि यज्ञ में जाने से तो भगवान शंकर को प्रसन्नता ही होनी थी। किंतु तब भी भगवान शंकर, श्रीसती को, पिता दक्ष के यज्ञ में जाने से मना ही कर रहे थे।
कारण इसके पीछे यह था, कि प्रजापति दक्ष उस यज्ञ आयोजन में अपने भक्ति भावों का नहीं, अपितु अपने अहंकारी तरंगों का प्रदर्शन करने में रुचिकर थे। ऐसे में वहाँ जाने से कष्ट ही होना था। हालाँकि भगवान शंकर एक वाक्य यह भी कहते हैं-
‘जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा।
जाइअ बिनु बोलहुँ न सँदेहा।।
तदपि बिरोध मान जहँ कोई।
तहाँ गएँ कल्यानु न होई।।’
अर्थात हे सती! यद्यपि इसमें कोई संदेह नहीं, कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी चले जाना चाहिए। किंतु तब भी जहाँ कहीं जाने से कोई विरोध मानता हो, वहाँ जाने से कल्याण नहीं होता है। भगवान शंकर ने सोचा, कि सती को मेरे किसी वचनों से चोट भी न पहुँचे, और वे आने वाले कष्टों से भी बच जाये। किंतु श्रीसती जी के हृदय में किंचित भी बोध नहीं हो रहा था। श्रीसती जी के मन में एक बार भी यह भय उत्पन्न नहीं हुआ, कि अपनी मनमानी के फेर में वह पहले ही महादेव की दृष्टि में अपात्रता झेल रही हैं। यह तो उनकी कृपा थी, कि भगवान शंकर अभी भी उसे कटाक्ष भरे वचन न बोल कर, कथा प्रसंगों के माध्यम से ही समझा रहे थे। किंतु श्रीसती जी थी, कि बस एक ही रट लगाये बैठी थी, वह यह, कि उन्हें अपने पिता के यज्ञ में जाना ही जाना है। बहुत प्रकार से समझाने पर भी दक्ष कन्या जब नहीं मानी, तो भगवान शंकर ने बड़े विरक्त मन से सती को यज्ञ में जाने की आज्ञा दी। किंतु साथ में अपने मुख्य गणों को भेज दिया।
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भगवान शंकर के वचनों को भला कहाँ असत्य सिद्ध होना था। भगवान शंकर ने जब कहा था, कि पिता के यहाँ बिना बुलाये जाने से कल्याण नहीं होगा, और साथ ही शील-स्नेह व मान मर्यादा भी नहीं रहेगी, तो ऐसा तो होकर रहना ही था। क्योंकि श्रीसती जी ने जैसे ही अपने पिता के महलों में कदम रखा, तो निश्चित ही उनका भव्य स्वागत होना चाहिए था। किंतु दक्ष के भय के मारे, किसी ने भी श्रीसती जी का स्वागत न किया। केवल माता ही थी, जो श्रीसती जी से गले लिपट कर मिली। बहनें भी आकर खूब हँसकर मिली। किंतु प्रजापति दक्ष के समक्ष जैसे ही श्रीसती जी पड़ी, तो दक्ष ने उनसे बात तक नहीं की। अपना मुख दूसरी ओर मोड़ लिया, और क्रोध के मारे प्रजापति दक्ष के अंग-अंग फड़कने लगे। श्रीसती जी को भले ही यह अच्छा नहीं लगा, किंतु पिता होने के नाते श्रीसती जी ने इसे अपने दिल पर नहीं लिया।
श्रीसती जी ने सोचा, कि जाकर यज्ञ स्थल देखा जाये। किसी भी यज्ञ में त्रिदेवों का भाग तो निश्चित ही होता है। किंतु पिता के यज्ञ में इस महान मर्यादा का बड़ी फूहड़ता से प्रदर्शन किया गया था। जी हाँ! श्रीसती जी का, यह देख कर कलेजा सड़ भुन गया, कि यज्ञ में तो भगवान शंकर का भाग ही नहीं रखा गया था-
‘सतीं जाइ देखेउ तब जागा।
कतहूँ न दीख संभु कर भागा।।’
भगवान शंकर का यज्ञ भाग न देख, श्रीसती जी को अपने स्वामी का अपमान समझ आया। उन्हें तब समझ आया, कि भगवान शंकर क्यों उसे यहाँ आने से रोक रहे थे। किंतु अब तो तीर कमान से छूट कर बहुत आगे जा चुका था। पिछली बार जब भोले नाथ ने श्रीसती जी को त्यागा था, तो वह दुख भी इतना कष्ट नहीं पहुँचा रहा था, जितना कि अब पति के अपमान का कष्ट हो रहा है।
बेटी को रुष्ट व दुखी देख कर, माता ने बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा की। किंतु श्रीसती जी के हृदय में अब कभी न पाटने वाली दरार आ गई थी। उनके मन की पीड़ा इस कदर बढ़ गई, कि वे दक्ष सभा में उपस्थित सभी सभासदों से क्रोधित स्वर में कहने लगी, ‘हे सभासदो और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा, और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछतायेंगे। क्योंकि जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाये, वहाँ ऐसी मर्यादा है, कि यदि अपना वश चले तो उस निंदक की जीभ काट लें, और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जायें-
‘संत संभु श्रीपति अपबादा।
सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा।।
काटिअ तासु जीभ जो बसाई।
श्रवन मूदिअ न त चलिअ पराई।।’
श्रीसती जी अति उग्र भाव में हैं। सभी उनके इस रुद्र रुप को देख थरथर काँपने लगे। इस रुष्ट भाव में श्रीसती जी क्या कदम उठाती हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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