Gyan Ganga: गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने तामस कर्म को बखूभी परिभाषित किया है
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम (सात्विक) मत है। इस मत में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।
प्रभासाक्षी के सहृदय गीता प्रेमियों !
“पछतावा” अतीत नहीं बदल सकता और “चिंता” भविष्य नहीं संवार सकती, इसलिए भगवान का स्मरण करते हुए वर्तमान का आनंद लेना ही सच्चा सुख है।
आइए ! अब गीता के अठारहवें अध्याय में प्रवेश करते हैं---
पिछले अंक में भगवान ने अर्जुन को शास्त्र विधि के अनुसार दान कर्म करने का उपदेश दिया। अब आगे के श्लोक में अर्जुन, भगवान से संन्यास और त्याग के बारे में जानने के लिए प्रश्न करते हैं--
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अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥
अर्जुन बोले- हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को अलग-अलग जानना चाहता हूँ॥
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
श्री भगवान कहते हैं— हे अर्जुन ! इस संबंध में पंडित विद्वानों का अलग-अलग मत है। कुछ विद्वानों के अनुसार काम्य कर्मों का त्याग ही संन्यास है। स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है। तथा कुछ दूसरे विद्वानों का मत है कि सम्पूर्ण कर्मों के फल की इच्छा का त्याग करने का नाम त्याग है। अर्थात फल की इच्छा किए बिना सुचारु रूप से अपने कर्मों को करते रहने का नाम ही त्याग है।
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त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥
कई विद्वान ऐसा कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों को दोषयुक्त समझकर छोड़ देना चाहिए, जबकि कुछ दूसरे ज्ञानी जनों की राय है कि सब कर्मों का त्याग भले ही कर दें पर यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग कभी न करें।
अब भगवान आगे के श्लोकों में अपना मत बताते हुए कहते हैं---
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा मत सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है॥
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥
भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं- यज्ञ, दान और तप इन तीनों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यज्ञ, दान और तप ये तीनों कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले होते हैं॥
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥
हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम (सात्विक) मत है। इस मत में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥
निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो त्याग करना उचित है ही, परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। (हमारे गृहस्थ धर्म में कुछ ऐसे कर्म हैं जिनको छोड़ा नहीं जा सकता, जैसे:- दैनिक पूजा-पाठ, अतिथि सेवा, श्राद्ध तर्पण आदि) मोह वश उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
जो भी शास्त्र मर्यादित कर्म हैं वे सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह राजस मनुष्य त्याग करके भी त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता है। राजसी व्यक्ति को शास्त्र मर्यादित कर्मों पर और परलोक पर श्रद्धा विश्वास नहीं होता।
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अब आगे भगवान बताते हैं-- अगर मनुष्य कर्म के फल का त्याग न करे तो क्या होता है?
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
कर्म के फल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिश्रित अर्थात मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य प्राप्त होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी प्राप्त नहीं होता।
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।
अर्जुन ने पहले कहा था कि इन आतताइयों और गुरुजनों को मारने से मुझे पाप लगेगा, इसीलिए यहाँ भगवान अर्जुन को समझा रहे हैं। गंगाजी में डूबकर कोई मर जाता है तो गंगाजी को कोई पाप नहीं लगता है और कोई गंगाजल पीता है, स्नान करता है, खेती करता है तो उससे गंगाजी को पुण्य नहीं मिल जाता है, क्योंकि गंगाजी में अहं का भाव और बुद्धि का लेप नहीं है। गंगाजी पाप और पुण्य से परे हैं। अब भगवान सात्विक कर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं---
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥
हे अर्जुन ! जो कर्म शास्त्रविधि के अनुसार सम्पन्न किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले व्यक्ति द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से किया गया होता है तथा भोगों को चाहने वाले व्यक्ति द्वारा या अहंकारयुक्त व्यक्ति द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। कहने का भाव यह है कि राजस मनुष्य अपनी जरूरतों को बहुत बढ़ा लेता है जिससे हर काम में उसको अधिक वस्तुओं की जरूरत पड़ती है। अधिक वस्तुओं को जुटाने में परिश्रम भी अधिक करना पड़ता है। शरीर में राग रहने के कारण राजस मनुष्य आराम तलब भी होता है, जिससे थोड़े काम में भी वह अधिक मेहनत महसूस करता है।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥
अब तामस कर्म को परिभाषित करते हुए भगवान कहते हैं---
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार न कर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। तामसी व्यक्ति यह नहीं सोचता है कि इस कार्य को करने से अपने और दूसरों को कितनी हानि होगी, धन और समय कितना लगेगा, इससे मेरा कितना मान-अपमान बढ़ेगा, मेरा लोक-परलोक बिगड़ जाएगा आदि की चिंता किए बिना ही वह काम शुरू कर देता है। ऐसे लोगों को सावधान करते हुए गिरिधर कवि भी कहते हैं---
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह 'गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु --------
जय श्री कृष्ण----------
-आरएन तिवारी
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