Gyan Ganga: नारद जी ने कैसे पर्वतराज और मैना को समझाने का प्रयास किया?

Narad ji
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सुखी भारती । Aug 22 2024 6:20PM

जब ऐसा पर्वतराज एवं माता मैना ने सुना, तो उनके लिए यह भयंकर दुख के समान था। उन्होंने तो बड़े लाड़ प्यार से अपनी पुत्री को पाला पोसा था। घर में संतों का सदा से ही सम्मान किया था। कभी अधर्म पर चलने की सोची भी नहीं थी।

श्रीनारद जी ने तो वचन कर दिये, कि जो-जो अवगुण से प्रतीत होने वाले अनिष्ट से लक्षण, श्रीपार्वती जी के पति में हैं, वे सब तो भगवान शंकर जी में दृष्टिपात हो रहे हैं। तो क्यों न श्रीपार्वती जी अपना संपूर्ण समर्पण, प्रेम व तप भगवान शंकर जी की आराधना में लगायें।

जब ऐसा पर्वतराज एवं माता मैना ने सुना, तो उनके लिए यह भयंकर दुख के समान था। उन्होंने तो बड़े लाड़ प्यार से अपनी पुत्री को पाला पोसा था। घर में संतों का सदा से ही सम्मान किया था। कभी अधर्म पर चलने की सोची भी नहीं थी। किंतु फिर भी अपनी बेटी के भविष्य में, इस भयंकर गिरावट के संकेत देख कर, उनका मन ही टूट गया था। किंतु तब भी पर्वतराज का मन पत्नी मैना की भाँति हारा नहीं था। उनका विश्वास मानों पर्वत की भाँति ही था। जब उन्होंने देखा, कि बेटी के संबंध में की गई भविष्यवाणी एक पूर्ण संत ने की है, तो वे समझ गये, कि मुनि के वचन तो अटल हैं। उन्हें नहीं टाला जा सकता। किंतु तब भी हमें यहाँ वहाँ समाधान न ढूंढ कर, मुनि से ही समाधान प्राप्त करना चाहिए। जिसका परिणाम यह निकला, कि श्रीपार्वती जी के भावी पति में जो गुण एक मूर्ख व्यक्ति के हो सकते थे, वे सभी गुण तो साक्षात भगवान के भीतर दृष्टिपात होने लगे थे। जो दृष्टियाँ अभी तक किसी बहते नाले को गंदा मान कर चल रहे थे, वही नाला उन्हें साक्षात गंगा जी प्रतीत होने लगा।

श्रीनारद जी ने कहा भी, कि हे पर्वतराज! आपको निश्चित ही चिंता करने की आवश्यक्ता नहीं है। क्योंकि भगवान विष्णु का आसन कौन सा उत्तम है? वे भी तो शेषनाग की शैय्या पर ही सोते हैं। किंतु पंडित लोग तब भी उनकी निंदा नहीं करते। सूर्य एवं अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, किंतु कभी सुना है कि कोई उन्हें बुरा कहे-

‘जौं अहि सेज सयन हरि करहीं।

बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं।।

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं।

तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं।।’

ऐसे ही गंगा जी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र अथवा मलिन नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कभी कुछ दोष नहीं होता। इस प्रकार श्रीनारद जी ने अनेकों उदाहरणों के माध्यम से पर्वतराज व मैना सहित सबको समझाने का प्रयास किया।

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ऐसा कहकर श्रीनारद जी तो ब्रह्मलोक चले गये, और पीछे से मैना अपनी पुत्री को लेकर अत्यंत चिंताग्रस्त हो गई। किंतु पर्वतराज अभी भी कितनी अच्छी बात कहते हैं-

‘बरु पावक प्रगटै ससि माहीं।

नारद बचनु अन्यथा नाहीं।।’

जब व्यक्ति के मन में संतों के प्रति ऐसा विश्वास व निष्ठा हो, तो वह जीव अशाँत हो ही नहीं सकता। हिमवान राजा होकर भी चिंता नहीं कर रहे। सब कुछ भगवान पर टाल रहे हैं। तो क्या हम साधारण मनुष्यों को इतना व्याकुल व तनावग्रस्त होना चाहिए? हिमवान की मनःस्थिति देखिए, वे बड़े सहज भाव से कहते हैं-

‘प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान।।’

अर्थात हे प्रिये! सब सोच छोड़कर श्रीभगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे।

वाह! प्रसन्न रहने का कितना बड़ा सूत्र है। वे कहना चाह रहे हैं, कि जैसे हम अपनी संतानों को उत्पन्न व जन्म देते हैं, तो उनके लालन पालन की जिम्मेदारी, हमारे ही कंधों पर तो होती है। हम स्वयं ही, जैसे कैसे भी अपनी संतानों की आवश्यक्तायों की पूर्ति करते हैं। क्या गोद में बैठा बच्चा चिल्ला-चिल्ला कर कहता है, कि मुझे यह वस्तु चाहिए, अथवा वह वस्तु चाहिए?

ठीक ऐसे ही श्रीहरि ने हमारी सृजना की है। वे ही हमारे माता पिता हैं। हम उनकी संतानें हैं। हमें कब क्या चाहिए, व किसमें हमारा हित-अहित छुपा है, श्रीहरि से बेहतर भला कौन जान सकता है? तो क्यों न हिमवान के चरित्र से हम जीव भी सीखें, कि हिमवान केवल ठोस पर्वतों का ही रहने वाला नहीं था, अपितु ईश्वर के प्रति उनका विश्वास भी उतना ही ठोस व दृढ़ था।

हिमवान तो स्थिर थे, किंतु मैना का मन ठहर नहीं रहा था। रह-रह कर व्याकुल हो रहा था। जिसका केवल एक ही कारण था, कि वह मोह के भँवर में फँस कर, अपना संपूर्ण व्यवहार कर रही थी। जिस कारण उसे सब ओर विपरीत ही दिखाई पड़ रहा था। जैसे उसने लाड़ में आकर श्रीपार्वती जी को अपनी गोद में बिठा लिया। मैना को लग रहा था, कि वह पार्वती जी की माँ है, तो अपनी बच्ची को गोद में बिठाकर ढांढस बँधाती हुँ। किंतु वह क्या जानें, कि जिसे उसने अपनी गोदी में बच्चों की भाँति बिठा लिया है, वह उसकी बच्ची नहीं, अपितु संपूर्ण जगत की माँ के साथ-साथ, उसकी भी माँ है।

लेकिन यह कैसे समझ आता है? ऐसे विवेक की प्राप्ति के लिए तो, हिमवान की भाँति संतों महापुरुषों की शरणागत होना पड़ता है।

श्रीपार्वती जी इसके पश्चात तप के लिए घनों वनों में निकल पड़ती हैं। वे कैसे-कैसे तप करती हैं, इसकी चर्चा हम अगले अंक में करते हैं---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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