Gyan Ganga: प्रभु श्रीराम के सुग्रीव वध के संकल्प को देखते हुए सभी थर-थर काँपने लगे थे
प्रभु श्रीराम जी ने जब यह संकल्प लिया कि हम उसी बाण से सुग्रीव का भी वध कर देंगे, जिस बाण से हमने बालि को मारा था। तो ज्ञान से हीन सभी हृदय थर-थर काँपने लगे थे। और परम विचित्रता तो तब हुई जब श्रीलक्ष्मण जी भी इसे सही मान कर सुग्रीव वध हेतु तत्पर हो उठे।
प्रभु श्रीराम जी सिला पर सुशोभित अवश्य थे, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं था कि प्रभु कठोर सिला का स्पर्श पाकर हृदय से भी सिला जैसे कठोर हो गए थे। हाँ! सुग्रीव को अवश्य ही यह भ्रम हो सकता था, कि प्रभु भला ऐसे निष्ठुर कैसे हो सकते हैं। लेकिन प्रभु का ऐसे क्रोधित होकर ऐसी प्रतिज्ञा करना अति आवश्यक व स्वाभाविक भी था। क्योंकि क्रोध नहीं आना भी प्रभु की प्रभुता अथवा संतत्व का अंतिम प्रमाण नहीं है। भगवान परशुराम जी स्वयं ईश्वरीय अवतार हैं। लेकिन उनके क्रोध से कौन परिचित नहीं है। भगवान श्री परशुराम जी ने चौबीस बार पथ भ्रष्ट व अधर्मी क्षत्रियों का संपूर्ण संहार किया था। उनके क्रोध से तीनों लोकों के अधिपति भय से थर्राते थे। क्या अतिअंत क्रोधित होने के पश्चात भी, भगवान परशुराम जी के प्रभुत्व में कहीं कोई संदेह किया जा सकता है? नहीं। क्योंकि महापुरूषों का क्रोध तो बस कहने भर को ही क्रोध होता है। वास्तव में तो उन्हें जीव का कल्याण ही करना होता है। केवल भगवान परशुराम जी ही क्यों? आप अनेकों महापुरूषों का जीवन चरित्र उठा कर देखिए। आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे, कि सभी महापुरूषों ने अपने दिव्य चरित्र में क्रोध को सदैव ही उचित व सम्मानीय स्थान अवश्य दिया है।
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भगवान श्रीकृष्ण जी के आध्यात्मिक गुरू ऋर्षि दुर्वासा जी के क्रोध की तो अनंत कहानियाँ जगत विख्यात हैं। जिन्होंने कैसे समस्त द्वारिका वासियों के समक्ष श्रीकृष्ण जी के पूरे तन पर उबलती खीर उड़ेल दी थी। दिखने में तो यही लग रहा था, कि ऋर्षि दुर्वासा जी ने यह क्या अनर्थ व अक्षम्य अपराध कर डाला। लेकिन कौन जानता था कि इसी खीर के लेपन से ही श्रीकृष्ण जी का शरीर वज्र के समान अभेद्य बन जायेगा। जिसके प्रभाव से कि श्रीकृष्ण जी के तन पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का प्रभाव होना बंद हो गया था। जिस कारण महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण जी का शरीर इन तीक्ष्ण व हानिकारक अस्त्र-शस्त्र से सर्वदा अछूता रहा। लेकिन प्रभु का यह स्वभाव उनकी कथा सुनने वालों को तो कथा व्यास समझा ही देते हैं। लेकिन प्रश्न तो उनके लिए है, जो प्रभु को क्रोध की भयंकर मुद्रा में प्रत्यक्ष देख पा रहे होते हैं। उस समय तो बड़े-बड़े महारथियों व ज्ञानियों का सारा का सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। मान लीजिए कि प्रभु का बाण किसी का अनवरत पीछा कर रहा हो, और उस समय भी उसे शाँति व धैर्य के उपदेश याद हों, यथार्थ में भला यह कैसे हो सकता है। ऐसी विकट परिस्थिति में तो बस यही सूझता है, कि किसी भी प्रकार से प्राणों की रक्षा संभव हो। और प्रभु श्रीराम जी ने जब यह संकल्प लिया कि हम उसी बाण से सुग्रीव का भी वध कर देंगे, जिस बाण से हमने बालि को मारा था। तो ज्ञान से हीन सभी हृदय थर-थर काँपने लगे थे। और परम विचित्रता तो तब हुई जब प्रभु श्रीराम जी की परछाई बन कर रहने वाले, श्रीलक्ष्मण जी भी यह मान कर उसी क्षण सुग्रीव वध हेतु तत्पर हो उठे।
श्रीलक्ष्मण जी तत्क्षण अपने धनुष को हाथ में ले, उस पर बाण की सेज तैयार कर लेते हैं। उस क्षण तो यही लगा, कि बस वे तो अभी ही सुग्रीव को जाकर दण्डि़त कर ही देंगे। प्रभु श्रीराम जी ने जब यह देखा कि अरे! श्रीलक्ष्मण जी तो सुग्रीव वध हेतु एकदम तैयार खड़े हैं, तो प्रभु को मानो संकोच-सा हो गया। प्रभु सोचने लगे कि भई माना कि हमने सुग्रीव को मारने की घोषणा दबी सी जुबाँ में की भी है, लेकिन हमने यह भी तो नहीं कहा है, कि बस! अब हम सुग्रीव को तत्काल मारने ही जा रहे हैं, और नाश्ता पानी तो हम वापिस आकर ही करेंगे। हे लक्ष्मण! हमने सुग्रीव वध हेतु मात्र यही कहा है, कि सुग्रीव को हम कल को ही मारेंगे। लेकिन, हमारे प्रिय अनुज लक्ष्मण ने तो अभी से ही अपना बाण धनुष पे चढ़ा लिया है। भला सुग्रीव को मारने की इतनी भी क्या शीघ्रता? श्रीराम जी के ऐसे मनोभाव देख श्रीलक्ष्मण जी ने भला क्या बोलना था। बस आँखों ही आँखों में मानों कह डाला कि प्रभु ईमानदारी से कहुं तो सुग्रीव वध का कार्य आप से नहीं होगा। क्योंकि जब किसी ने, किसी को मारना होता है, तो वह यह थोड़ी न कहता है, कि जो मेरा शत्रु है, उसे मैं आज नहीं, अपितु कल मारूँगा। उसका तो प्रथम प्रयास यही होता है कि मेरे गले से निवाला तभी नीचे उतरेगा, जब शत्रु का कटा सिर मेरे कदमों में होगा। ऐसी प्रतिज्ञा तो आपने कोई की ही नहीं। उल्टे पूरी गाथा ही कल पर टाल दी। क्षमा करना प्रभु, आपका निःसंदेह करूणा से ओत-प्रोत निर्णय है। मेरी दृष्टि में आपके इस भाव का अति सम्मान है। लेकिन यह भी सत्य है कि इसी स्वभाव के चलते ही सुग्रीव आपकी प्रभुता को भूल भी तो गया है।
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ऐसे ही आप कल, कल करते टालते गए, तो सुग्रीव कल-कल करते, काल का ग्रास तो बन जायेगा, लेकिन कभी भी आपको मिलने तक नहीं आएगा। फिर बैठे रहना आप हाथ पे हाथ रख कर इस जड़ सिला पर। हम भी कहे देते हैं, प्रभु! तब हमसे आप मत कहिएगा कुछ भी। क्योंकि आप के निर्णयों का क्या ठिकाना है। किसी देव योग से अगर सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य नहीं भी मिल पाता, तो आप तो अयोध्या के राज सिंघासन पर सुग्रीव को ही बिठा देते, और भरत भईया को यहाँ वनों में बुला लेते, और कहते कि हे भरत! देखो, अयोध्या का राज्य तुम अब छोड़ ही दो। क्यों न मैं तुम्हें अब वनों के राज्य का कार्य भार सौंप दूं। इसलिए प्रभु, आपका भला क्या भरोसा है, आप को तो यहाँ भी वाह! वाह! और वहाँ भी वाह! वाह। आप को तो बस प्रेम चाहिए। भले ही वह प्रेम गिद्द (जटायु जी) जैसे अधर्म जीव से ही क्यों न प्राप्त हो, आप तो उसे भी अपने पिता होने तक का दर्जा दे देते हैं। पिता बनाने वाली बात मैं इसलिए कह रहा हूं, कि अपने स्वयं के पिता राजा दशरथ जी के अंतिम संस्कार में तो आप सम्मिलित नहीं हुए और जटायु जी का संस्कार आप पुत्र की भाँति अपने हाथों से संपन्न करते हैं। किसी की कोई इच्छा आप मानने पे आ जायें तो, उसके लिए तो आप सृष्टि के समस्त नियम व मर्यादायें भी ताक पे रख देते हैं। और न मानने पर आयें तो, अपने पिता तक की भी नहीं मानते हैं। क्योंकि मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि पिता दशरथ जी ने हम तीनों को वनों से वापिस लाने हेतु, मंत्री सुमन्त्र जी के माध्यम से अथक प्रयास भी किए थे। लेकिन आप कहां माने। यद्यपि यहाँ सबको सदा यही कहते हैं कि-‘हम पितु बचन मानि बन आए’। अर्थात् पिता जी की आज्ञा से ही हम वनों में आए हैं। माना कि आपके वन गमन की पिताश्री की आज्ञा थी। लेकिन सुमन्त्र जी के माध्यम से जब पिताश्री हम सबको वापिस अयोध्या बुला रहे थे, क्या तब पिताश्री की आज्ञा नहीं थी? बिल्कुल थी! लेकिन तब आपने वह आज्ञा नहीं मानी। क्योंकि तब आपको अपने बनवासी भक्तों का प्रेम, श्रद्धा व भावना अधिक श्रेष्ठ व प्रिय लगी। कल नहीं प्रभु, अब तो आज ही होगा जो होगा। बस आप आज्ञा करें, ताकि मैं सुग्रीव वध का कार्य शीघ्रता से संपूर्ण करूँ।
क्या श्रीराम जी श्रीलक्ष्मण जी को सुग्रीव वध की आज्ञा देते हैं? जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...
-सुखी भारती
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