Gyan Ganga: गुरु का स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है

गोस्वामी जी बोले, ‘मेरे गुरु के चरण-नखों की ज्योति कोई ऐसे ही सामान्य नहीं है। उसमें तो सदैव मणियों के समान प्रकाश प्रस्फुटित होता रहता है। जिसका स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है।
संसार में अगर हमारे हाथों अथवा पावों के नख बढ़ गए हों, तो निश्चित है, कि समाज में उसे अच्छा नहीं माना जाता। जिस कारण हम अपने बढे़ हुए नाखुनों को काट देते हैं। किन्तु गोस्वामी जी अपने गुरु के नखों के संबंध में ऐसे विचार नहीं रखते। वे कहते हैं-
‘श्री गुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू।।’
गोस्वामी जी घौषणा करते हैं, ‘हे जग वालो! नख अगर व्यर्थ व अशोभनीय ही हों, तो यह आपके लिए होंगे। मेरे गुरु के नखों में तो अकथनीय शोभा व चमत्कार है।’
संसार ने कहा, ‘भई आपके गुरु के नखों में आखिर कौन-सा अकथनीय चमत्कार है? नख तो नख ही होते हैं। भला उनके रखों में ऐसा क्या विलक्षण है?’
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गोस्वामी जी बोले, ‘मेरे गुरु के चरण-नखों की ज्योति कोई ऐसे ही सामान्य नहीं है। उसमें तो सदैव मणियों के समान प्रकाश प्रस्फुटित होता रहता है। जिसका स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। बाहर का प्रकाश तो केवल रात्रि का ही प्रकाश मिटाता है, लेकिन मेरे गुरु के चरण-नखों से फूटते प्रकाश की विवेषता यह है, कि वह प्रकाश मानव के हृदय में अज्ञान रुपी अन्धकार का नाश करने वाला है। वह प्रकाश जिसके हृदय में आ जाता है, निश्चित ही उसके बहुत बड़े भाग हैं।’
किसीने इसी बात को लेकर गोस्वामी जी को प्रश्न किया, कि भाई साहब! अगर हृदय में प्रकाश भी आ जायेगा, तो उससे क्या विशेष हो जायेगा।’
उत्तर में गोस्वामी जी बोले-
‘उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं राम चरित मति मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।’
अरे श्रीमान! आप पूछ रहे हैं, कि उस प्रकाश से क्या हो जायेगा? मैं क्या कहता हूँ, जो कुछ भी होना है, उसी प्रकाश से ही तो होना है। अब आप ही बताईये, कोई व्यक्तिे अगर सूर्य के प्रकाश के दर्शन कर रहा हो तो अपनी खुली आँखों से ही तो करेगा? आप उसे यह तो नहीं कहेंगे न, कि वह बंद नंत्रें से सूर्य प्रकाश के दर्शन कर रहा है? बिल्कुल आप ऐसा नहीं कहेंगे! क्योंकि उसे सूर्य का प्रकाश दिखना, अपने आप में ही संकेत है, कि उसकी आँखें खुली हैं, तभी तो वह सूर्य के प्रकाश का दर्शन कर रहा है।
ठीक ऐसे ही भीतर का प्रकाश का दिखना स्पष्ट संकेत है, कि अमुक व्यक्ति के हृदय में निर्मल दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। और वह प्रभु को प्रकाश रुप में देख रहा है। जिससे कि संसार रूपी रात्रि के दोष-दुख मिट जाते हैं। इसका सबसे बड़ा फल यह प्राप्त होता है, कि जिस रामचरित्र रुपी मणि और माणिक्य की खोज हम कर रहे होते हैं, वे भले ही प्रक्ट रूप में हों, अथवा गुप्त रुप हों, वे सब दिखाई पड़ने लगते हैं।
निश्चित ही गोस्वामी जी कहना चाह रहे हैं, कि ऐसा नहीं, कि केवल मैं ही पहली बार श्रीराम जी के चरित को लिखने जा रहा हूँ। मुझसे पूर्व भी अनेकों महापुरुषों ने भगवान श्रीराम की कथा को गाया है। लेकिन प्रश्न यह नहीं, कि श्रीराम कथा अनेकों महापुरुषों ने लिखी है, प्रश्न तो यह है, कि उन ग्रथों में श्रीराम जी को समझ कौन-कौन पाया है? निश्चित ही श्रीराम जी को समझना है, तो केवल इन दो नेत्रें से, उनकी गाथा को पढ़कर, नहीं समझा जा सकता। हमारे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने ये पूर्व, अगर हमें गुरु द्वारा प्रसाद रूप में दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं हुई, तो निश्चित ही हम भी अज्ञानियों की ही श्रेणी में होंगे। अंतर केवल यह होगा, कि हम पढ़कर अज्ञानी बने रहे, और जिन्होंने नहीं पढ़ा, वे अनपढ़ होकर अज्ञानी बने रहे।
श्रीराम जी को देखना, पढ़ना अथवा समझना है, तो हम इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं। मान लीजिए कोई नेत्रहीन व्यक्ति सूर्य के प्रकाश या उसके अन्य प्रभावों को समझना चाह रहा है, तो उसे आप केवल शब्दों में बोलकर नहीं समझा सकते। ऐसा करेंगे तो वह ताउम्र सूर्य की कल्पना तो करता रहेगा, लेकिन कभी भी सूर्य के वास्तविक रूप से अवगत नहीं हो पायेगा। ठीक ऐसे ही, एक व्यक्ति श्रीराम जी की कथायों को भले ही पूरे जन्म श्रवण करता रहे, उसे श्रीराम अपनी कल्पनायों में तो जीवित दिखेंगे, उसकी भगवान के प्रति श्रद्धा भी अपार हो सकती है। लेकिन श्रीराम जी के वास्तविक रुप से वह सदा अनभिज्ञ ही रहेगा। फिर वही शब्द कहने पड़ेंगे, कि वह पढ़ा लिखा अज्ञानी होगा, इससे अधिक कुछ नहीं।
अंत में गोस्वामी जी गुरु की चरण-रज महिमा गान करके श्रीराम के सुंदर चरित्र का वर्णन करना आरम्भ करते हैं-
‘गुरु पद रज मृदु मुजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।।
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन।।’
अर्थात श्रीगुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों के निर्मल करके मैं संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ।
- सुखी भारती
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