By सुखी भारती | Jul 26, 2022
कामधेनु गाय के दूध को निश्चित ही हम, दूध की संज्ञा में नहीं रख सकते। क्योंकि कामधेनु गाय का दूध, महज एक दूध नहीं है, अपितु साक्षात अमृत तूल्य है। जिसकी कीमत ही नहीं आंकी जा सकती। लेकिन सोचिए, अगर ऐसे अमृत तूल्य दूध में कहीं से खटाई की चार बूँदें गिर जायें। तो परिणाम से आप अवगत ही होंगे। वह समस्त दूध व्यर्थ हो जाता है। देवऋर्षि नारद जी की श्रद्धा व विश्वास के साथ भी ऐसा ही घटित हो रहा था। वे देवऋर्षि नारद जी, जिनके त्याग, तप व साधना का डंका तीनों लोकों में बजता था। जिनके सम्मान में त्रीदेव भी, अपने आसन से उठ कर उन्हें प्रणाम हेतु उठ खड़े होते हैं। वही देवऋर्षि नारद जी अपने जीवन में ऐसे कठिन मोड़ पर आकर खड़े थे, कि जिस कारण उनका समस्त तप-साधना शून्य हो सकती थी। ऐसा हम क्यों कह रहे हैं? इसका सीधा-सा कारण है, कि रुई का कितना भी बड़ा पर्वत हो, लेकिन अगर उसे नन्हीं-सी चिंगारी का स्पर्श करा दिया जाये। तो यह किसे नहीं पता, कि उस रुई के पर्वत को राख होने में चंद पल भी नहीं लगेंगे।
देवऋर्षि नारद जी को लग रहा है, कि भगवान शंकर मेरी उपलब्धि से ईर्ष्या कर रहे हैं। लेकिन उन्हें यह सिद्धांतिक बात ही भूल गई थी, कि भगवान शंकर तो अखण्ड निर्विकारी हैं। उनमें विकार का आना तो बहुत दूर की बात, विकार उन्हें छू भी नहीं सकता है। क्या आपको पता भी है, कि भगवान शंकर जी को ‘भण्डारी’ नाम से क्यों संबोधित किया जाता है? इसीलिए ही न, कि वे समस्त ब्रह्माण्ड का भँडार भरते हैं। क्या देव क्या असुर, क्या भूत अथवा किन्नर। वे सभी के भँडार भरने वाले हैं। जो स्वयं दाता हैं, भला उन्हें किसी भी चीज़ की क्या कामना हो सकती है? लेकिन देवऋर्षि नारद जी का विवेक तो कामदेव के प्रशंसा बाणों से मृतप्रायः हो चुका था। जिन भगवान शंकर जी के प्रति देवऋर्षि नारद जी की अगाध श्रद्धा व सम्मान था, वह इस घटना से रसातल में समा चुका था। बात यहीं तक सीमित होती, तो भी कोई बात नहीं थी। लेकिन देवऋर्षि नारद जी का मन तो मानो अब खट्टा ही हो गया था। उन्हें भगवान शंकर का अक्स फीका-सा प्रतीत होने लगा था। देवऋर्षि नारद जी को वहाँ रुकना अब अतिअंत कठिन व कष्टप्रद प्रतीत हो रहा था। जिसका परिणाम यह निकला, कि वे उसी क्षण वहाँ से उठ कर चले गए। हालाँकि भगवान शंकर जी ने उन्हें अच्छे से बरज रखा था, कि आप भगवान विष्णु जी से, भूल कर भी ऐसी कथा का वाचन मत करना। लेकिन तब भी उनके मन में बार-बार, बस यही अभिलाषा फन उठा रही थी, कि मुझे निश्चित ही क्षीरसागर श्रीहरि जी के दर्शनों हेतु जाना चाहिए। निश्चित ही उनकी इस भावना के पीछे, प्रभु-दर्शनों की चाह कम और स्वयं के प्रताप की ख्याति के प्रदर्शन की कामना अधिक थी। अब उनके कदम भला फिर कहाँ रुकने वाले थे। देवऋर्षि नारद जी उठे, और पहुँच गए सीधा क्षीरसागर। जहाँ पहुँचने पर भगवान विष्णु बड़े आनंद से उनसे मिले और देवऋर्षि नारद जी के साथ ही आसन पर बैठ गए। चराचर स्वामी भगवान थोड़ा हँसकर बोले, कि हे मुनि आज आपने बहुत दिनों के पश्चात हमें दर्शन देने की कृपा की। कहाँ गुम हो गए थे आप। अवश्य ही आप कोई बहुत विशेष कार्य में लीन हो गए थे-
‘हरषि मिले उठि रमानिकेता।
बैठे आसन रिषिहि समेता।।
बोले बिहसि चराचर राया।
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।।’
भगवान विष्णु जी के श्रीमुख से इतना सुनना था, कि देवऋर्षि नारद जी के नेत्रों में तो मानो चमक-सी आ गई। उन्हें लगा कि अरे वाह! भगवान विष्णु तो बड़े अच्छे हैं। मानो मेरी मानसिक स्थिति के अनुकूल ही मुझसे प्रश्न पूछ लिया। जिस कारण मुझे बहाना भी मिल गया, कि मैं अपनी महान काम चरित गाथा को सुना पाऊँ। देवऋर्षि नारद जी को इस मनोरथ हेतु अवसर क्या मिला। उन्होंने तो संपूर्ण काम चरित ही सुना डाला। जो देवऋर्षि नारद जी, श्रीहरि को सदैव राम चरित सुनाया करते थे, वे आज सीधे काम चरित सुनाने पर उतारू हो गए। कहना गलत न होगा, कि प्रभु की माया बड़ी बलवान है। जगत में ऐसा कौन बचा है, जिसे वह मोहित न कर दें-
‘काम चरित नारद सब भाषे।
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।।
अति प्रचंड रघुपति कै माया।
जेहि न मोह अस को जग जाया।।’
यह स्थिति कुछ ऐसी थी, कि भगवान को नित छप्पन भोग खिलाते-खिलाते, अचानक अभक्ष भोजन कराने बैठ जायें। श्रीहरि भी सोच में पड़ गए, कि भक्त में अहंकार रूपी व्याधि ने डेरा जमा लिया है। व्याधि को बढ़ने दें, तो यह हमारे धर्म के विपरीत होगा। और अगर उपचार आरम्भ कर दिया तो निश्चित ही यह भक्त के परम हित में तो होगा, लेकिन साथ में भक्त को अथाह कष्ट से भी गुजरना पड़ेगा। निश्चित ही हमें तो वही कार्य करना होगा, जिससे हमारे भक्त का कल्याण हो। और हम निश्चित ही हम अपने भक्त के हित का कार्य ही करेंगे।
भगवान विष्णु अपने प्रिय भक्त देवऋर्षि नारद जी के कल्याण हेतु क्या उपचार आरम्भ करते हैं? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती