सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम:॥
प्रभासाक्षी के कथा प्रेमियों ! पिछले अंक में श्री शुकदेव जी महाराज ने माया और ब्रह्म के स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया, उसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं---
यह माया भी बड़े काम की है जो भगवान के संसार को चला रही है। इस प्रकार भगवान ने बड़ा ही सुंदर उपदेश दिया। भागवत के दस लक्षण बताए--- सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, इशकथा, मन्वंतर, निरोध, मुक्ति और आश्रय। प्रथम स्कन्ध और द्वितीय स्कन्ध में श्रोता और वक्ता के अधिकार का निरूपण किया गया है। तृतीय स्कन्ध में विसर्ग का वर्णन और षष्ठ स्कन्ध में पोषण का निरूपण किया। पोषण: तदनुग्रह: भगवान की कृपा कैसे-कैसे प्राणियों पर हो जाए, कहना कठिन है। मनुष्य यदि अपने कर्मों का ही फल भोगता रहे तो फिर भगवान की क्या जरूरत? परमात्मा का शासन राष्ट्रपति शासन जैसा है, यदि आपने किसी की हत्या कर दी तो कानून आपको फांसी की सजा दे देगा। पर राष्ट्रपति का यह स्वतंत्र अधिकार है कि वह आपको फांसी से बचा सकता है। यह उसकी कृपा पर निर्भर है। उसी तरह परमात्मा की कृपा स्वतंत्र है उस पर कोई नियम लागू नहीं होता। घुनाक्षर नियम के तहत। उसकी कृपा कब और किस पर हो जाए नहीं कहा जा सकता। पूजा करने वाले से भगवान जल्दी मिलते हैं, कोई जरूरी नहीं है। सीताजी अपनी सखियों के संग पूजा करने गईं थीं किन्तु वह सखी जो अलग हो गई थी उसी को प्रभु पहले मिले, फिर उसकी कृपा से दूसरी सखियों को मिले। विश्वामित्र जी हजारों साल तक तप किए, वन मे भटके किन्तु परमात्मा नहीं मिले। दशरथ जी ने घर में बैठे-बैठे प्रभु को पा लिया। फिर विश्वामित्र ने जिस घर को त्यागा था वहीं आकर प्रभु के दर्शन किए। तो कोई नियम नहीं, कि घर में मिलेंगे कि वन में मिलेंगे। किसके ऊपर कब कृपा हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।
न जाने कौन से गुण पर कन्हैया रीझ जाते हैं।
नहीं स्वीकार करते हैं निमंत्रण नृप सुयोधन का,
विदुर के घर पहुँचकर भोग छिलके का लगाते हैं।
घुनाक्षर न्याय से लकड़ी पर ॐ बन गया। कब बना कैसे बना वही जाने। आप बस लाइन में लगे रहिए।
बोलिए वृन्दावन बिहारीलाल की जय–
प्रभु की आदत है जीवों पर कृपा करना।
आइए मिलकर प्रभु के दिव्य नाम का संकीर्तन करें।
कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।
जो दीनों के दिल मे जगह तुम न पाते
तो किस दिल मे होती हिफाजत तुम्हारी।
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी--------
न तुम होते हाकिम न हम होते मुजरिम
तो सजती नहीं फिर अदालत तुम्हारी।
गरीबों से है बादशाहत तुम्हारी------
निगम कल्प तरो: गलितम् फलम् शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्
पिवत भागवतम् रसमालयम् मुहूरहो रसिका; भुवि भावुका;॥
‘नितराम् गमयति बोधयति इति निगमो वेद:’
वेदों का नाम है निगम। वेदरूपी विशाल वृक्ष का श्रीमदभागवत परिपक्व फल है। गलितम् पकने के बाद ही फल टपकता है। तोड़ने वाला फल कच्चा हो सकता है पर जो फल सहज टपक कर गिर जाए तो निश्चित पका होगा। किसी ने पूछा श्रीमदभागवत ‘रूपी परिपक्व फल वेदों की ऊंचाई से पृथ्वी पर गिरा होगा तब तो टूट-फूट गया होगा। इस विषय पर श्री डोंगरे जी महाराज कहते हैं कि नहीं यह टूटा-फूटा नहीं है।
‘तरु शाखा परम्परया अखंडमेव अवतीर्ण्म’
धम से नीचे गिरा होता तो शायद टूट जाता। यह तो डाली प्रति डाली धीरे-धीरे जमीन पर आया है टूटने का प्रश्न ही नहीं उठता।
सबसे पहले यह नारायण की शाखा से टपका तो ब्रह्मा की शाखा पर अटका। ब्रह्मा की शाखा से टपका तो नारद की शाखा पर अटका। नारद की शाखा से टपका तो व्यास की शाखा पर अटका। व्यास की शाखा से टपका तो शुक शाखा पर अटका। फिर शुक शाखा से टपका तो परीक्षित आदि अनेक ऋषियों को प्राप्त हुआ। इस प्रकार शनै;शनै; अखंडमेव अवतीर्ण्म’। यथावत ज्यों का त्यों है। यह खट्टा भी नहीं है, पूर्ण रूप से मीठा है। प्रमाण;- तोता जिस फल में चोच मार दे वहाँ मीठा की गारंटी है। भागवत रूपी फल में भी तोते ने चोच मार दी है। ‘‘शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्’’ साधारण तोते ने चोच नहीं मारी है। विशेषज्ञ और पारखी तोते ने चोच मारी है। शुकदेव जी जैसे परमहंस तोते का मुंह लगा है। जो जन्म से ही परिव्राजक अर्थात सन्यासी हो गए और घर छोड़कर जंगल में चले गए। इस संसार की दुरवासनाओं ने छूआ तक नहीं। भागवत के श्लोकों को सुनते ही ब्रह्मानन्द मेँ अभिभूत हो गए। ऐसे तोते का मुंह लगा है तो खट्टा होने का प्रश्न ही नहीं है।
किसी ने शुकदेव जी महाराज से यह पूछा-- इस फल मेँ कौन-सा रस है। परमहंस श्री शुकदेव जी ने कहा—
“रसो वै स’; भगवान श्रीकृष्ण की सुंदर और सरस लीलाएं ही रस के रूप में विद्यमान हैं। भागवत कथा मेँ आदि से अंत तक स्वयं परमात्मा ही विराजमान हैं, इसीलिए श्रीमद्भागत महापुराण को सभी पुराणों का तिलक (शिरोमणि) कहा जाता है।
श्रीमद्भागवतं पुराण तिलकं यद्वैष्णवानां धनम्,
यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते।
तत्र ज्ञान-विराग-भक्ति सहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतम्,
तच्छृण्वन् प्रपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः।।
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी