By अंकित सिंह | Jul 04, 2023
महाराष्ट्र की राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है। रविवार को, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अजित पवार और आठ अन्य विधायक अलग हो गए और एकनाथ शिंदे-देवेंद्र फडणवीस सरकार में शामिल हो गए। इसके साथ ही शरद पवार के नेतृत्व वाली पार्टी में विभाजन हो गया। इसके बाद से राजनीतिक हलचल खूब हो रही है। विपक्ष भाजपा पर जोड़-तोड़ की राजनीति करने का आरोप लगा रहा है। लेकिन सबसे ज्यादा निगाहें अब बिहार पर आ चुकी हैं। नीतीश कुमार को लेकर भी कयासों का दौर शुरू हो गया है। इस बात की चर्चा खूब हो रही है कि महाराष्ट्र के बाद अब बिहार में भी राजनीतिक उठापटक हो सकती हैं। इसका संकेत इस बात से भी मिल रहे हैं कि हाल में ही नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी जदयू के विधायकों के साथ 1-2-1 बैठक की थी। हालांकि, सवाल यह है कि आखिर बिहार को लेकर इतनी कयास क्यों लग रहे हैं? बिहार में तो महागठबंधन की सरकार मजबूती से चल रही है, हाल में ही नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की बैठक की मेजबानी की थी। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सियासी चर्चा जबरदस्त तरीके से हो रही है।
बिहार में तख्तापलट करने के लिए भाजपा के लिए संख्या एक महत्वपूर्ण कारक है। सरकार पर दावा करने के लिए, वर्तमान में 74 सीटों वाली भाजपा को 243 सदस्यीय विधानसभा में 122 सीटों तक पहुंचने की जरूरत है। इसका मतलब है कि बीजेपी को 48 और विधायकों की जरूरत है। फिलहाल, सत्तारूढ़ गठबंधन के पास करीब 160 विधायक हैं। इसमें जदयू, राजद और कांग्रेस के अलावा तीन वामपंथी दल शामिल हैं जो सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। पिछले महीने, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के नेतृत्व वाले हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) ने नीतीश कुमार सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। चार विधायकों के साथ HAM पिछले साल सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल हुई थी। हालांकि, अब वह एनडीए के साथ है।
भाजपा सांसद सुशील मोदी ने नीतीश कुमार पर तंज कसा है। सुशील मोदी ने कहा कि बिहार में भी बगावत की स्थिति बन रही है क्योंकि नीतीश कुमार ने पिछले 17 सालों में कभी भी विधायकों और सांसदों को मिलने का समय नहीं दिया। लोगों को साल भर इंतजार करना पड़ता था। अब वो प्रत्येक विधायक और सांसद को 30 मिनट दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब से नीतीश कुमार ने राहुल गांधी को अगली लड़ाई के लिए नेता स्वीकार कर लिया और तेजस्वी यादव को अपना उत्तराधिकारी बना दिया तभी से जनता दल में विद्रोह की स्थिति है।
पिछले तीन-चार दिनों की घटनाओं का विश्लेषण करें तो कई राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं, जो संकेत दे रही हैं कि बिहार में भी महाराष्ट्र जैसा राजनीतिक संकट हो सकता है। अटकलें लगाई जा रही हैं कि नीतीश कुमार एक बार फिर एनडीए में वापसी कर सकते हैं। गौरतलब है कि नीतीश कुमार ने पिछले साल अगस्त में बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ लिया था और महागठबंधन से हाथ मिला लिया था। नीतीश कुमार की अपनी पार्टी के विधायकों के साथ आमने-सामने की बैठक ने भी सबका ध्यान खींचा है और उनके अगले कदम पर सस्पेंस बरकरार रखा है। नीतीश कुमार ऐसा जल्दी करते नहीं हैं। दावा किया जा रहा है कि जदयू के सांसद और विधायक नीतीश के महागठबंधन में जाने से नाराज हैं।
23 जून को विपक्षी दलों की बैठक के बाद तेजस्वी यादव विदेश दौरे पर हैं। सियासी उठापटक के बीच इस बात के भी संकेत मिले हैं कि राजद विपक्षी एकता की बैठक के बाद बहुत ज्यादा खुश नहीं है। साथ ही साथ खबर यह भी है कि राजद नीतीश कुमार की सरकार में थोड़ी ताकत चाहती है। राजद की ओर से कुछ महीने पहले इस तरह का दबाव बनाया गया था कि नीतीश कुमार विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन जाए और तेजस्वी यादव को बिहार की कमान सौंप दें। इस बात को लेकर विपक्षी दलों की बैठक में सहमति नहीं बन पाई जिसकी वजह से राजद खेमे में नाराजगी देखने को मिली है। राजद को लग रहा है कि 2025 तक तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री पद से ही संतोष करना पड़ेगा।
लोकसभा चुनाव में अभी भी 9 से 10 महीने का वक्त है। लेकिन नेता अपनी तैयारी शुरू कर चुके हैं। पिछली बार जदयू और भाजपा ने मिलकर एक साथ चुनाव लड़ा था और जबरदस्त जीत हासिल हुई थी। जदयू को 16 सीटें मिली थी। जदयू उम्मीदवार वहां जीतने में कामयाब रहे थे, जहां राजद मजबूत मानी जाती है। अब जदयू और राजद का गठबंधन है। ऐसे में जदयू के सांसदों को इस बात की चिंता सताने लगी है कि उनके टिकट का क्या होगा? महागठबंधन में कई दल शामिल है, ऐसे में जदयू कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसको लेकर भी असमंजस की स्थिति है। जदयू विधायकों को यह लगता है कि राजद का वोट हमें ट्रांसफर नहीं होगा। पिछले चुनाव में नीतीश से नाराजगी के बावजूद भी एनडीए की जीत हुई थी और इसका श्रेय पूरा का पूरा नरेंद्र मोदी को गया था।
बिहार को लेकर राजनीतिक चर्चाएं लगातार होती रहती है। नीतीश कुमार के मन में क्या चल रहा है, इसको समझ पाना इतना आसान नहीं है। कुछ लोगों का दावा है कि नीतीश कुमार अपनी पार्टी के नेताओं को एकजुट रखने की कोशिश कर रहे हैं। तो कुछ दवा कर रहे हैं वह पार्टी के नेताओं और विधायकों से उनके मन की बात को समझना चाह रहे हैं। नीतीश के लिए चुनौतियां इसलिए ज्यादा है क्योंकि उन्हें विपक्षी भाजपा के साथ-साथ अपने साथी राजद से भी कई मामलों पर चुनौती मिलती रही है। यही कारण है कि एक खेमा बिहार को लेकर दावा कर रहा है कि कहीं ऐसा ना हो कि 2024 से पहले ही विधानसभा का चुनाव करा दिया जाए।
इन दावों में कितनी सच्चाई है, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन इतना तय है कि बिहार की राजनीति चर्चा के केंद्र में ना हो तो फिर सियासत की चासनी थोड़ी कम मीठी लगती है। नीतीश कुमार की काबिलियत है या लोकतंत्र का कमाल कि वह पाला बदलने के बावजूद भी खुद की कुर्सी को बरकरार रखते हैं और जनता भी उनकी दावों और वादों पर बार-बार विश्वास कर लेती है। यही तो प्रजातंत्र है।