‘आया राम, गया राम’ की कहावत और ऐसे फिर हुई दल बदल कानून की भारतीय राजनीति में एंट्री

By अभिनय आकाश | Oct 04, 2021

आज के विशलेषण की शुरुआत एक कहानी से करेंगे। कहानी जो शुरू होती है साल 1967 में जब भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नई इबारत लिखी जा रही थी। इस इबारत को लिखने वाले का नाम था- गया लाल। गया लाल हरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने जाते हैं। लेकिन एक ही दिन में उन्होंने तीन बार अपनी पार्टी बदल ली। इतना तो लोग एक दिन में कपड़े भी नहीं बदलते। पहले तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया। फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गए। करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ और एक बार फिर जनता पार्टी में चले गए। खैर गया लाल के हृदय परिवर्तन का सिलसिला जा रहा और वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में वापस आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव बीरेंद्र सिंह उनको लेकर चंडीगढ़ पहुंचे और वहां एक संवाददाता सम्मेलन किया। राव बीरेंद्र ने उस मौके पर कहा था, 'गया राम अब आया राम हैं।' इस घटना के बाद से भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी पाला बदलने वाले दलबदलुओं के लिए 'आया राम, गया राम' वाक्य का इस्तेमाल होने लगा। लेकिन भारत में दल-बदल की घटनाएं कोई ऐसी नई बात नहीं है जो चौथे आम चुनाव के बाद ही सामने आई हो। 1947 के निर्वाचनों के बाद संयुक्त प्रांत के बाद से मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया गया था और दल-बदलुओं में से हाफिज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया था। ऐसी कई सारी कहानियां और किस्से भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हैं। आप बात चाहें 1967 में मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह सरकार को गिराने की करें या फिर 1980 में हरियाणा में पूरी भजनलाल कैबिनेट का कांग्रेस में शामिल होने की करें।  

जिग्नेश मेवानी का टेक्निकल कारण 

गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी बीते दिनों कांग्रेस के मंच पर दिखाई दिए। कांग्रेस पार्टी से 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। लेकिन जिग्ननेश आधिकारिक रूप से शामिल नहीं हुए लेकिन उनके साथ मौजूद कन्हैया कुमार ने कांग्रेस की सदस्यता ली। जिग्नेश मेवानी के कांग्रेस में शामिल नहीं होने के पीछे एक टेक्निकल कारण बताया गया। इसका टेक्निकल कारण का दल बदल निरोधक कानून यानी संविधान की दसवीं अनुसूचि में जवाब मिलता है।

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दल बदल कानून 1985 क्या है 

राजीव गांधी की सरकार ने महसूस किया कि दल बदल जैसी गंभीर समस्या को लेकर कोई नियम होना चाहिए। जैसे मानिए कोई बीजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़े और फिर जीतकर कांग्रेस में शामिल हो जाए। तो ये उस जनता के साथ भी धोखा था जहां से वो जीतकर आया है। इसके साथ ही उस पार्टी के साथ भी धोखा था जिसके सिंबल पर उसने चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। 1985 की जनवरी में शीतकालीन सत्र के दौरान राजीव गांधी सरकार द्वारा भारत के संविधान में 52वां संशोधन किया गया। दल बदल निरोधक कानून 1985 लाया गया। इसमें बताया गया कि आखिर वो कौन सी स्थितियां होंगी, जिनमें ये कानून लागू होगा और उसे दल बदल निरोधक कानून के अंतर्गत माना जाएगा।  

चार मूल प्रावधान

1.) स्वेच्छा से त्यागपत्र (पार्टी)- जैसे कोई नेता किसी भी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं और फिर स्वेच्छा से त्यागपत्र दे देते हैं। ऐसे में इसे दल बदल कानून के अंतर्गत माना जाएगा। फिर उसकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि जैसे कोई भी नेता कांग्रेस के टिकट पर कानपुर से चुनाव लड़ता है और जीत दर्ज करने के बाद अपनी पार्टी से इस्तीफा दे दिया। तो यहां स्वेच्छा से त्यागपत्र की बात आई और फिर इस स्थिति में उसकी सदस्यता खत्म मानी जाएगी। या फिर कोई कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो भी उसकी सदस्यता जा सकती है। 

2.) व्हिप/ सचेतक की बात का उल्लंघन- सभी राजनीतिक पार्टियां व्हिप जारी करती हैं। व्हिप को सरल और संक्षिप्त में बताए तो पार्टी द्वारा अपने सदस्यों के लिए जारी किया गया एक तरह का दिशा-निर्देश होता है। व्हिप का उल्लंघन करने पर भी सदस्यता खत्म की जा सकती है। एक ही स्थिति में वो बची रह सकती है जैसे मान ले कि कांग्रेस ने कोई व्हिप जारी किया और उसके कुछ विधायकों ने उसे नहीं माना। पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट यानी क्रॉस वोटिंग की जाती है, स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है। ऐसे में अगर पार्टी ने उसको 15 दिनों के अंदर माफ नहीं करती है तो उनकी सदस्यता चली जाएगी।

3.) एक तिहाई सदस्य- अगर किसी पार्टी के एक तिहाई सदस्य एक साथ उस पार्टी से इस्तीफा दे देते हैं। ऐसे केस में इसे दल बदल नहीं माना जाएगा। 

4.) दो तिहाई सदस्य- चौथा प्रावधान ये है कि अगर दो तिहाई सदस्य पार्टी से इस्तीफा देकर किसी दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं तो इसे दो पार्टी का विलय माना जाएगा। फिर उन पर दल बदल कानून के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। 

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क्या समस्या आई और फिर हुआ संशोधन

इस कानून को लेकर कई सारी समस्या सामने आई। जिसमें से एक जैसे कि आप अकेले हैं और अकेले ही पार्टी छोड़ रहे हैं तो आपको निकाला जा रहा है, लेकिन अगर आप कई लोगों के समूह के साथ छोड़ते हैं तो आप सदन के सदस्य बने रहेंगे। इसमें काफी विसंगतियां थी। बाद में इसमें कई बदलाव हुए। साल 2003 में भारतीय संविधान में 91वां संशोधन हुआ। इसमें मूल प्रावधानों में से एक को खत्म कर दिया गया। जिसके अंगर्गत एक तिहाई सदस्य पार्टी छोड़ते हैं तो उसे पार्टी के अंदर बंटवारा नहीं माना जाएगा।  दरअसल,  साल 1985 में बने इस कानून में मूल प्रावधान कि अगर किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक या सांसद बगावत कर अलग होते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी। इसके बाद भी बड़े पैमाने पर दल-बदल की घटनाएं जारी रहीं तो इस संशोधन के तहत इस आंकड़े को दो तिहाई कर दिया गया। 91वां संशोधन में कहा गया जो स्पीकर या पीठासीन अधिकारी चाहे वो लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा या विधान परिषद का होगा उसका फैसला ही अंतिम होगा। अगर उसने किसी को निष्कासित कर दिया है तो उसी का फैसला अंतिम होगा। इसमें न्यायपालिका दखल नहीं दे सकती है। लेकिन इसमें भी एक समस्या आई। किसी भी सदन का स्पीकर पहले किसी न किसी पार्टी का सदस्य ही होता है। ऐसे में कई मामलों में ये देखा गया कि स्पीकर ने अपने पसंदीदा पार्टी की सरकार बनवाने के लिए गलत फैसले दिए। जहां दल बदल निरोधक कानून लागू नहीं हुआ वहां भी इसे इस्तेमाल किया गया। बाद में ये मामला अदालत जाने लगा। 

जंबो कैबिनेट पर रोक

दल बदल पर पूरी तरह से रोक लगाने के साथ ही मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित करने के उद्देश्य से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 2003 में किए गए 91वें संविधान संशोधक को ऐतिहासिक बदलाव माना जाता है। उस दौर में राज्य की सरकारों में मंत्रियों की संख्या बल थौक मात्रा में हुआ करती थी। जैसे कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार में एक साथ 70 मंत्रियों को शामिल किया गया था। जिससे एक महीने पुराने मंत्रालय की कुल संख्या 93 हो गई थी। इसी तरह का चलन दूसरे राज्यों में भी देखा जाता था। वहीं पूर्वोत्तर के राज्य में तो दो विधायकों को छोड़ सभी को मंत्री बना दिया गया था। जिसके बाद संविधान के 91वें संशोधन के तहत ये तय किया गया कि मंत्रिपरिषद का आकार केंद्र एंव बड़े राज्यों में लोकप्रिय सदन की सदस्य संख्या का 15 फीसदी ही हो सकेगा। इसके साथ ही छोटे राज्यों में मंत्रियों की न्यूनतम संख्या 12 निर्धारित की गई। इसमें ये भी कहा गया कि जहां अभी मंत्रिपरिषद का आकार 15 प्रतिशत से ज्यादा है, इस अधिनियम के लागू होने के छह महिने के अंदर आकार को 15 प्रतिशत तक करना होगा।

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भारतीय संविधान संशोधन

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन होता है। जब भी अमूमन संशोधन होता है उसमें दो प्रमुख बातें होती है-

1.) उस संशोधन को संसद के प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी होता है। 

2.) इसके अलावा संसद के कुल सदस्यों का पूर्ण बहुमत भी होना जरूरी है। 

इसके साथ ही अगर ये संशोधन न्यायपालिका से जुड़ा है और सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के अधिकारों से संबंधित है तो उस मामले में भारत के आधे से ज्यादा राज्यों की सहमति भी जरूरी है। 

1991 में दल बदल विरोधी कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया महत्वपूर्ण फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दल-बदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। यह फैसला मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। 1985 के प्रावधान की 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आख़िरी होगा।  पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता। लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवेधानिक क़रार दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें कहा गया कि दल बदल निरोधक कानून बनाने के वक्त उसमें अदालती दखल की गुंजाइश खत्म करने वाले प्रावधान में राज्यों से सहमति नहीं ली गई थी। इसलिए ये राज्य पुनरीक्षण के अंतर्गत आता है और इसमें हम दखल दे सकते हैं। इसके साथ ही कहा गया कि दल बदल कानून में अगर कोई मामला फंसता है तो वो कोर्ट जा सकता है। कोर्ट उस पर सुनवाई कर सकता है। 

दूसरे देशों में भी देखी गई दल बदल की राजनीति

विश्व के अन्य देशों में भी दल-बदल की राजनीति देखने को मिलती है। ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिय जैसे लोकतांत्रिक देशों में दल-बदल की राजनीतिक घटनाएं लगातार होती रहती हैं। फरवरी 1846 में अनुदारवादी (ब्रिटेन) में फूट पड़ गई और इसके बाद 231 सदस्यों ने प्रधानमंत्री पील के विरोध में मतदान कर दिया था। उन पर दल से विद्रोह करने का आरोप लगाया गया था, हालांकि पील उदार दल की सहायता से अपने पद पर बने रहे। 1900 में विंस्टन चर्चिल अनुदारवादी दल के टिकट पर संसद के सदस्य चुने गए थे, किंतु 1904 में अनुदार दल से अलग होकर उदारवादी दल में शामिल हो गए थे। 

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दल बदल कानून के फायदे

दल-बदल विरोधी कानून के लागू होने के बाद जनप्रतिनिधियों के राजनीतिक पार्टियां बदलने पर रोक लगी। यह कानून चुनी हुई सरकारों को स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। अवसरवादी राजनीति पर रोक लगने के साथ असमय चुनाव और उस पर होने वाले खर्च को नियंत्रित करने में भी मदद मिली है।

दल बदल कानून के विरोध में दिए जाते हैं तर्क

जिस तरह से हरेक चीजों के दो पहलु होते हैं उसी तरह दल बदल विरोधी कानून को लेकर भी जानकारों के द्वारा इसकी खामियों को उजागर किया जाता रहा है। जिसके पीछे ये दलील दी जाती है कि कानून की वजह से राजनीतिक पार्टियों के अंदर लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित हुई है। जैसे मान लें कि किसी जनप्रतिनिधि के विचार पार्टी लाइन से अलग हैं, फिर भी इस कानून की वजह से वह अपनी आवाज बुलंद नहीं कर सकता। आसान शब्दों में कहें तो दल-बदल विरोधी कानून के कारण किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगता है। इसके साथ ही कहा जाता है कि दल-बदल कानून जनता की बजाय राजनीतिक दलों के शासन को मजबूती देता है।  

 बंगाल में दल बदल कानून 10 साल से लागू नहीं हुआ

पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान कई विधायकों को अक्सर एक पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी का दामन थामते देखा गया, इनमें से किसी को भी दल-बदल रोधी कानून का सामना नहीं करना पड़ा है। चुनाव से पहले शुभेंदु अधिकारी, राजीव बनर्जी, रबींद्रनाथ भट्टाचार्य, रथिन चक्रवर्ती, वैशाली डालमिया और मिहिर गोस्वामी जैसे नेता टीएमसी को छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे। वहीं चुनाव बाद भी ये सिलसिला चलता रहा और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में हार का सामना करने के बाद भाजपा छोड़ टीएमसी में वापसी की दौड़ शुरू हो गई। सुमन रॉय विश्वजीत दास और तन्मय घोष ने टीएमसी ज्वाइन किया। इसके पहले बीजेपी ने टीएमसी नेता मुकुल रॉय के खिलाफ भी विधानसभा में दल बदल कानून के तहत शिकायत दर्ज कराई थी। लेकिन इसको लेकर विधानसभा के विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने बड़ा दावा करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट में अर्जी भी लगाई। उन्होंने कहा, ‘पिछले 10 साल में टीएमसी के शासन में दलबदल विरोधी कानून लागू नहीं हुआ है. 50 से अधिक विधायकों ने दल बदले हैं।

राजस्थान दल बदल मामला

साल 2018 में बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 6 विधायक सितंबर 2019 में पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। इनके इस कदम को बसपा नेता सतीश चंद ने दलबदल विरोधी कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में बसपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए छह विधायकों को दलबदल विरोधी मामले में अंतिम जवाब दाखिल करने के लिए चार हफ्ते की मोहलत दी है। ऐसा नहीं करने की सूरत में उनकी सदस्यता जा सकती है। 

बहरहाल, भारत के राजनैतिक परिदृश्य में दल बदलने की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। अपने राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखते हुए नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है। हां यह सही है कि कानून की नज़र में यह अपराध नहीं है और ना ही ये नेता अपराधी, लेकिन नैतिकता की कसौटी पर यह जनता के ही अपराधी नहीं होते बल्कि लोकतंत्र की भी सबसे कमजोर कड़ी होते हैं।

-अभिनय आकाश

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