टोक्यो ओलम्पिकः पदक विजेताओं ने खोली भविष्य की राह

Tokyo Olympics

ओलम्पिक के सौ साल से अधिक का इतिहास भारत के लिए कभी सुनहरा नहीं रहा। केवल हॉकी में हमारी बादशाहत रही लेकिन 1980 के बाद उसमें भी हम पिछड़ते चले गए। 1920 से 1950 तक भारत की हॉकी टीम अपराजेय थी।

टोक्यो ओलम्पिक में भारत ने नया इतिहास बनाया है। इससे पहले किसी भी ओलम्पिक में हमारा इतना शानदार प्रदर्शन कभी नहीं रहा।  इस बार भारत को कुल 7 पदक प्राप्त हुए जो किसी भी ओलम्पिक में सर्वाधिक है। देश में उमंग और उल्लास का जो माहौल है वह इस बात का संकेत है कि भविष्य में हमारे खिलाड़ी और बेहतर प्रदर्शन करेंगे। देश भर में पदक विजेताओं का स्वागत और सम्मान हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित कर रहे हैं। किसी खिलाड़ी को सीधे प्रधानमंत्री से मिलने का सौभाग्य भला कहां मिलता है। टोक्यो में भारत के पदक विजेता खिलाडि़यों ने भविष्य की राह खोल दी है। इससे हमारे खिलाडि़यों का आत्मविश्वास भी बढ़ा है। खेलों के प्रति हमारे समाज और सरकार का नजरिया भी बदल जाएगा। देश अब यह उम्मीद कर सकता है कि अगले ओलम्पिक में हम और पदक जीतेंगे। अफसोस की बात है कि खेल जगत में आज तक भारत कोई महाशक्ति नहीं बन पाया। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन, जापान ही नहीं कई छोटे देश हमसे आगे रहते हैं। ओलम्पिक की पदक तालिका में हम काफी नीचे रहते हैं। टोक्यो में 7 पदकों की बदौलत भारत थोड़ा आगे बढ़ा तो भी पदक सूची में 48वें स्थान पर रहा।

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ओलम्पिक के सौ साल से अधिक का इतिहास भारत के लिए कभी सुनहरा नहीं रहा। केवल हॉकी में हमारी बादशाहत रही लेकिन 1980 के बाद उसमें भी हम पिछड़ते चले गए। 1920 से 1950 तक भारत की हॉकी टीम अपराजेय थी। हॉकी के अलावा भारत को कहीं से कोई उम्मीद भी नहीं रहती थी। वह ध्यानचंद का दौर था जब भारत का हॉकी पर एकछत्र राज था। 1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक में पहली बार भारतीय हॉकी टीम ने भाग लिया और स्वर्ण पदक जीता। यह सिलसिला 1964 के टोक्यो ओलम्पिक तक चला। बीच में एक बार केवल 1960 के रोम ओलम्पिक में हमारे हाथ सोना नहीं आया। यहां सिल्वर से संतोष करना पड़ा। 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में हॉकी टीम को कांस्य पदक मिला। 1976 के मांटियल ओलंपिक से हम खाली हाथ लौटने लगे। 1980 के मास्को ओलम्पिक में हॉकी में स्वर्ण पदक मिला। इसके बाद 1984 के लांस एंजिलिस, 1988 के सियोल और 1992 के बार्सिलोना ओलम्पिक में भारत को कोई पदक नसीब नहीं हुआ। यह कहानी हमेशा दोहराई जाती रही और हम बिना कोई पदक लिये वापस आते रहे। यह सिलसिला 1996 में टूटा जब अटलांटा ओलम्पिक में भारत के लिएंडर पेस ने टेनिस में कांस्य पदक जीता। केवल यही एक मात्र पदक भारत के नाम रहा। सिडनी ओलम्पिक− 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीत कर देश की लाज रख ली। इसके बाद एथेंस ओलम्पिक− 2004 में राज्यवर्धन राठौर ने निशानेबाजी में रजत पदक जीत कर भारत की इज्जत बचाई। टोक्यो से पहले भारत ने अपने 121 साल के ओलम्पिक इतिहास में केवल 30 पदक जीते थे। इनमें से दो रजत पदक अंग्रेज एथलीट नार्मन प्रिचर्ड के नाम हैं। इसलिए इसे 28 ही मानना चाहिए जिनमें 9 स्वर्ण पदक हैं। आठ अकेले हॉकी में और एक अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण पदक है। टोक्यो में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक को मिला कर ओलम्पिक में भारत के कुल दस स्वर्ण पदक हो गए हैं। हालांकि, टोक्यो में जिस तैयारी से हमारी टीम गई थी उससे कम से कम 10 या 12 पदकों की उम्मीद थी। इसके बावजूद इस बार जैसा प्रदर्शन भारतीयों ने किया है उससे भविष्य के लिए उज्ज्वल संभावनाएं दिख रही हैं। यह भी साबित हो गया कि पूरे समर्पण और लगन से यदि काम किया जाए तो परिणाम अवश्य मिलेगा। आइए जरा, पिछले कुछ ओलम्पिक पर नजर डालते हैं− 

चीन की राजधानी बीजिंग में 2008 में आयोजित ओलम्पिक खेलों में लंबे अरसे बाद भारत की किस्मत चमकी और अभिनव बिंद्रा ने निशानेबाजी में स्वर्ण पदक जीत लिया। हॉकी के अलावा पहली बार भारत को किसी अन्य खेल में गोल्ड मेडल मिला था। अभिनव बिंद्रा रातो रात देश के हीरो बन गए। उनकी इस उपलब्धि पर पूरा देश वाह−वाह कर उठा। अब तक जो कभी नहीं हुआ वह इस निशानेबाज ने कर दिखाया। बीजिंग में इसके अलावा दो कांस्य पदक मिले। कुश्ती में सुशील कुमार और मुक्केबाजी में विजेन्दर ने यह पदक जीते। इस तरह भारत की झोली में एक स्वर्ण तथा दो कांस्य कुल तीन पदक आए। इस ओलम्पिक में सबसे शर्मनाक यह रहा कि भारत की हॉकी टीम हिस्सा नहीं ले सकी। हमारी टीम इसके लिए क्वालिफाई ही नहीं कर सकी। ओलम्पिक में पहली बार ऐसा हुआ कि भारत हॉकी में अपनी टीम नहीं भेज पाया। इसके बाद 2012 में लंदन ओलम्पिक में तो जैसे कमाल ही हो गया। भारतीय दल ने अपनी झोली में छह पदक डाल कर देश को चौंका दिया। ऐसा कभी नहीं हुआ था। हालांकि, स्वर्ण पदक किसी ने नहीं जीता लेकिन दो रजत और चार कांस्य पदक भारत को मिले। निशानेबाजी में विजय कुमार को रजत और गगन नारंग को कांस्य मिला। जबकि कुश्ती में सुशील कुमार ने रजत पदक जीता। उन्होंने लगातार दो ओलम्पिक में पदक जीतने का रिकॉर्ड भी बना दिया। सुशील से स्वर्ण की उम्मीद की जा रही थी लेकिन फाइनल मुकाबले में वह हार गए। इनके अलावा बैडमिंटन में सायना नेहवाल, मुक्केबाजी में मैरीकॉम और कुश्ती में योगेश्वर दत्त को कांस्य पदक प्राप्त हुआ। पदकों की संख्या के लिहाज से लंदन ओलम्पिक यादगार बन गया। इतने पदक कभी नहीं मिले थे।  

ब्राजील के शहर रियो डी जनेरियो में 2016 के ओलम्पिक खेल हुए। भारत को यहां केवल दो पदक से संतोष करना पड़ा। स्वर्ण पदक का सूखा यहां भी बना रहा। बैडमिंटन में महिला खिलाड़ी पीवी सिंधू ही कुछ कर सकी। उन्होंने एकल मुकाबले के फाइनल में स्पेन की केरोलीना मारिन से पराजित होकर रजत पदक हासिल किया। बहुत अच्छा खेल कर भी सिंधू स्वर्ण पदक से दूर रह गईं। लेकिन देश को उन पर गर्व है कि उन्होंने कम से कम सिल्वर मेडल जीत लिया। विश्व स्तर पर सिंधू एक बड़ी शटलर के रूप में सामने आईं। रियो में दूसरा पदक भी भारत की बेटी ने ही दिलाया। साक्षी मलिक को कुश्ती में कांस्य पदक मिला। इन दो के अलावा किसी और ने कुछ नहीं जीता। पुरुष कुश्ती में काफी विवाद के बाद नरसिंह यादव को भेजा गया था पर, डोप टेस्ट में फेल होने से वह खेल ही नहीं सके। सुशील कुमार और नरसिंह में काफी विवाद चला कि कौन रियो जाएगा। मामला कोर्ट तक गया। आखिरकार फैसला नरसिंह के पक्ष में हुआ। मगर, वह बिना लड़े ही प्रतियोगिता से बाहर हो गए। देश को बड़ी निराशा हाथ लगी।

टोक्यो में लहरा दिया तिरंगा

कोरोना महामारी की वजह से टोक्यो ओलम्पिक 2020 में नहीं हो सका। इसे एक साल आगे खिसकाना पड़ा। कई खिलाडि़यों को कोविड प्रोटोकाल के तहत जीवन बिताना पड़ा। इनके प्रशिक्षण पर असर पड़ा। कप्तान मनप्रीत सहित हॉकी टीम के कुछ खिलाड़ी संक्रमित भी हो गए थे। इसके बावजूद पूरे भारतीय दल ने देश का सिर उंचा कर दिया। लंदन से एक ज्यादा यानी कुल सात पदक हमारे खिलाडि़यों ने जीते। यह उपलब्धि उनकी मेहनत और लगन की वजह से मिली है। मीराबाई चानू हों या लवलीना बोरगोहेन ये सब छोटी जगह से आती हैं। इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत अच्छी नहीं है। नीरज चोपड़ा किसान के बेटे हैं। मगर, आज पूरा देश इन पर नाज कर रहा है। भारत ने एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक पहली बार जीता है। भाला फेंक में नीरज ने जो कर दिखाया उसे ताजिंदगी लोग याद रखेंगे। नीरज ने अपना पदक स्वर्गीय मिल्खा सिंह को समर्पित कर दिया। मिल्खा सिंह का सपना था कि कोई भारतीय एथलेटिक्स में पदक जीत कर लाए। मगर, जीते जी उनका सपना पूरा नहीं हो सका। वह जून में इस दुनिया को छोड़ गए। उल्लेखनीय है, मिल्खा सिंह रोम ओलम्पिक 1960 में चौथे नंबर पर रहने के कारण पदक से चूक गए थे। यह मलाल उन्हें जीवन भर रहा।

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कई दिग्गज हारे, गोल्फ में पदक से चूके 

टोक्यो में खुशी तो मिली लेकिन भारत को और पदकों की आस थी। इस बार केन्द्र सरकार ने भी पूरी ताकत झोंक दी थी। टेनिस, तीरंदाजी, निशानेबाजी और पुरुष मुक्केबाजी में भारत को निराशा हाथ लगी। इस इवेंट में हमें कोई पदक नहीं मिला। महिला कुश्ती में विनेश फोगट ने बहुत निराश किया। उनको पदक का बड़ा दावेदार माना जा रहा था। बजरंग पुनिया से स्वर्ण पदक की उम्मीद थी पर उन्हें कांस्य मिला। मैरीकॉम कोई पदक नहीं ला सकी। महिला चक्का फेंक में कमलप्रीत कौर भी पदक के करीब पहुंच गई थीं। गोल्फ में अदिति अशोक का भाग्य साथ देता तो वह पदक जरूर लातीं लेकिन वह चौथे स्थान पर रहीं। महिला हॉकी टीम ने हम सबका सीना चौड़ा कर दिया। दुर्भाग्य से यह टीम ग्रेट ब्रिटेन से हार गई लेकिन क्या खूब लड़ी मर्दानी के स्टाइल में इसने देश का दिल जीत लिया। शुरू में कई मैच हारने के बाद रानी रामपाल की कप्तानी में इस टीम ने पलटवार करके पहले दक्षिण अफ्रीका को हराया। इसके बाद आस्टेलिया को हरा कर सनसनी फैला दी। यह विश्वास जगा है कि भविष्य में यह टीम पदक अवश्य लाएगी।

हॉकी में 41 साल बाद मिला पदक

ओलम्पिक में भारत की उम्मीद हॉकी पर टिकी होती है। यही वह खेल है जिसमें हम कुछ कर पाए हैं। मगर, ध्यानचंद का दौर खत्म होने के बाद हमारी हॉकी रसातल में चली गई। यूरोपीय टीमें मजबूत होकर निकलीं और हम पिछड़ते चले गए। जब तक घास के मैदान पर हॉकी खेली जाती थी हम चैम्पियन थे, मगर कृत्रिम घास यानी एस्टो टर्फ का दौर जबसे आया, भारत पिछड़ता चला गया। हॉकी का खेल अब बहुत तकनीकी हो गया है। इन बदलावों को अपनाने में काफी समय लगा। यही कारण है कि भारत को विदेशी कोच की सेवाएं लेनी पड़ी। इस बीच, क्रिकेट इतनी तेजी से देश में छा गया कि हॉकी को लोग हिकारत की नजर से देखने लगे। खेल संगठनों में आपसी खींचतान और सियासत ने इसे बर्बाद कर दिया। आखिरी बार मास्को ओलम्पिक− 1980 में भारत ने हॉकी में स्वर्ण पदक जीता था लेकिन विश्व मंच पर उस कामयाबी को उतनी अहमियत नहीं मिली। वजह यह थी कि उस ओलम्पिक में हालैंड, जर्मनी, ब्रिटेन, आस्टेलिया और पाकिस्तान ने भाग ही नहीं लिया था। अमेरिका के बहिष्कार की अपील पर इन देशों ने उसका साथ दिया था। तो इस तरह 41 साल से हॉकी में सूखा बना हुआ था।  इस बार भारत की पुरुष और महिला टीमों ने शानदार खेल दिखा कर सबका दिल जीत लिया है। पुरुष टीम ने 41 साल बाद कोई पदक जीता। एकदम युवा टीम ने कांस्य पदक देश को दिलाया। जर्मनी ने हॉकी में हमेशा भारत को कड़ी चुनौती दी है लेकिन इस बार 5−4 से हम जीत गए। अपने गोलकीपर श्रीजेश की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। उन्होंने कई मौकों पर गोल बचा कर भारत को जिताने में मदद की। महिला टीम की गोलकीपर सविता ने जिस खूबसूरती से आस्टेलिया के खिलाफ गोल बचाए वह भी स्मरणीय रहेगा। महिला टीम पदक भले ही नहीं जीत पाई लेकिन उसने अपने खेल से सबको खुश कर दिया है। हमें तारीफ करनी होगी ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की जिन्होंने दोनों हॉकी टीमों की भरपूर मदद की। ओडिसा सरकार ने दोनों टीमों को स्पांसर किया। यह आर्थिक मदद खेल के विकास के लिए बहुत आवश्यक है। 

अब निगाहें पेरिस ओलम्पिक पर  

टोक्यो में मिली सफलता भविष्य के लिए विश्वास जगाती है। खिलाडि़यों में भी आत्मविश्वास पैदा हुआ है। वे यह समझ रहे हैं कि क्रिकेट के अलावा भी कोई खेल है जिसमें नाम कमाया जा सकता है। एथलीट नीरज चोपड़ा रातो रात युवाओं के लिए 'आइकॉन' बन गए हैं। मीराबाई चानू और लवलीना को कौन भूल सकता है। हॉकी के बाद हमें सबसे ज्यादा उम्मीद कुश्ती से रहती है। जो पहलवान चूक गए उनके लिए पेरिस में अवसर है। केन्द्र और राज्य सरकारों को खेल पर ज्यादा निवेश करना होगा। ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने एक नजीर पेश कर दी है। युवाओं को आधुनिक उपकरण और अन्य सुविधाएं मुहैया करानी होंगी तभी प्रतिभाएं निकल कर आएंगी। स्कूल स्तर से ही खिलाडि़यों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है। हॉकी को स्कूल स्तर पर अनिवार्य खेल बनाना होगा। टोक्यो में कांस्य पदक जीतने से भारतीय हॉकी को नया जीवन मिला है। उम्मीद है, इससे अब अधिक प्रायोजक जुड़ेंगे और खिलाडि़यों का उत्साह भी बढ़ेगा। खेल हमारी संस्कृति और सामाजिक ताने बाने का हिस्सा है। इससे समरस समाज का निर्माण होता है। खेलों को पक्षपात और घटिया राजनीति से दूर रखना होगा तभी अच्छे नतीजे मिलेंगे। भारतीय खिलाडि़यों ने इस बार जो जज्बा दिखाया है उससे पेरिस ओलम्पिक−2024 पर नजरें टिक गई हैं। वहां पदकों की संख्या अवश्य बढ़नी चाहिए।

− आदर्श प्रकाश सिंह

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