अनार की फसल में संक्रमण का लग सकेगा पूर्वानुमान
भारत में 2.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में अनार की खेती होती है और यहां हर साल 24.42 लाख टन अनार उत्पादन होता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश प्रमुख अनार उत्पादक राज्य हैं। अनार की मांग को देखते हुए इसका उत्पादन क्षेत्र बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है और लगभग एक करोड़ अनार के पौधों की रोपाई हर साल की जाती है।
नई दिल्ली। (इंडिया साइंस वायर): एक तरफ अनार की मांग बढ़ रही है तो दूसरी ओर इसकी फसल में जीवाणु जनित झुलसा (बैक्टीरियल ब्लाइट) रोग एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इस रोग से अनार की गुणवत्ता प्रभावित होने के साथ पैदावार में भी 80 प्रतिशत तक गिरावट देखी गई है। भारतीय शोधकर्ताओं ने अब एक ऐसी तकनीक की पहचान की है, जो बैक्टीरियल ब्लाइट के पूर्वानमान में मददगार हो सकती है।
फसलों में किसी रोगजनक बैक्टीरिया के संक्रमण और उसके प्रभाव का आकलन करने के लिए रोगजनकों के डीएनए का विश्लेषण किया जाता है। शोधकर्ताओं ने आणविक विश्लेषण में उपयोग होने वाली विभिन्न पीसीआर तकनीकों का मूल्यांकन किया है और एक ऐसी तकनीक की पहचान की है, जो बैक्टीरियल ब्लाइट के संक्रमण का जल्दी पता लगाने में अधिक प्रभावी पायी गई है।
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बैक्टीरियल ब्लाइट रोग सैंथोमोनस एक्सोनोपोडिस पीवी. प्यूनिके बैक्टीरिया के संक्रमण से होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया की पहचान के लिए क्यूपीसीआर आधारित तकनीक को अत्यधिक संवेदनशील पाया गया है। परंपरागत तकनीकों की मदद से कम से कम चार दिन बाद बैक्टीरियल ब्लाइट का पता चल पाता है। लेकिन, इस तकनीक के उपयोग से दो दिनों के भीतर ही संक्रमण की पहचान की जा सकती है।
कर्नाटक के बागलकोट में स्थित बागवानी विज्ञान विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ जी. मंजुनाथ ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “रोपाई से पहले नर्सरी में स्वस्थ पौधों की पहचान करने में यह तकनीक उपयोगी हो सकती है। ऐसा करके बाग लगाने के लिए रोगमुक्त पौधे किसानों में वितरित किए जा सकते हैं। इसके अलावा, यह तकनीक रोग के पूर्वानुमान और उसके प्रकोप के बारे में चेतावनी जारी करने में भी मददगार हो सकती है। चेतावनी मिल जाए तो रोग के नियंत्रण एवं प्रबंधन में मदद मिल सकती है और उसके प्रसार को रोका जा सकता है।”
इस तकनीक के परीक्षण के लिए बागलकोट के आसपास के क्षेत्रों के सात अनार के बागों से नमूने एकत्रित किए गए हैं। इनमें से पांच बागों के अनार के पौधों में बैक्टीरियल ब्लाइट का संक्रमण पाया गया है, जबकि पहले उन पौधों में बीमारी के कोई स्पष्ट लक्षण नहीं देखे गए थे। इस तकनीक के उपयोग से रोगजनक बैक्टीरिया की मात्रा भी निर्धारित की जा सकती है, जिससे रोग सहिष्णु प्रजातियों के चयन में पौध प्रजनक वैज्ञानिकों को मदद मिल सकती है।
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शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक का उपयोग व्यावसायिक निदान केंद्रों और शोध संस्थानों में बैक्टीरियल ब्लाइट के संक्रमण की पहचान के लिए किया जा सकता है। बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रबंधन में महंगे कीटनाशकों और सिंथेटिक अणुओं का उपयोग शामिल है, जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है। रोग का शुरुआती निदान हो जाए तो रोगजनक बैक्टीरिया को कम रासायनिक छिड़काव या जैविक कीटनाशकों के उपयोग से नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसा करके रासायनिक अवशेष मुक्त फलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है।
भारत में 2.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में अनार की खेती होती है और यहां हर साल 24.42 लाख टन अनार उत्पादन होता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश प्रमुख अनार उत्पादक राज्य हैं। अनार की मांग को देखते हुए इसका उत्पादन क्षेत्र बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है और लगभग एक करोड़ अनार के पौधों की रोपाई हर साल की जाती है।
बैक्टीरियल ब्लाइट अनार उत्पादन से जुड़ी एक प्रमुख समस्या है। इस रोग के लक्षणों में पत्तियों पर धब्बे तथा उनका गलना, फल पर काले धब्बे व दरारे पड़ना और फलों का गलना शामिल है। यह एक ऐसा रोग है, जो लक्षण उभरने के एक सप्ताह के भीतर फलों को नुकसान पहुंचा सकता है। आमतौर पर रोग के लक्षणों को देखकर ही किसान बीमारियों की रोकथाम के प्रयास शुरू करते हैं। कई बार लक्षण देर से उभरते हैं, जिससे किसान रोगों का सही समय पर आकलन नहीं कर पाते और उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
इस रोग की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2007-08 में बैक्टीरियल ब्लाइट के संक्रमण से कर्नाटक में अनार का कुल वार्षिक उत्पादन 1.8 लाख टन से घटकर सिर्फ चार वर्षों की अवधि में 10 हजार टन रह गया था। हालांकि, बढ़ती मांग, विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में अनुकूलन, उच्च मूल्य और निर्यात क्षमता के कारण अनार उत्पादन की ओर किसानों का आकर्षण कम नहीं हुआ है।
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डॉ मंजुनाथ ने बताया कि “एक बार बैक्टीरियल ब्लाइट का संक्रमण हो जाए दो उसे रोकना कठिन हो जाता है। संक्रमित बागों से रोपाई के पौधों को स्वस्थ बागों में ले जाने से यह रोग सबसे अधिक फैलता है। इसीलिए, स्वस्थ पौधों की रोपाई बेहद महत्वपूर्ण है। कई बार पौधे स्वस्थ दिखाई देते हैं, पर रोगजनक बैक्टीरिया सुप्त अवस्था में उनमें मौजूद रहता है, जो अनुकूल जलवायु परिस्थितयां मिलने पर बढ़ने लगता है।”
शोधकर्ताओं में डॉ मंजुनाथ के अलावा पुष्पा दोड्डाराजू, पवन कुमार, राघवेंद्र गुनिया, अभिषेक गौड़ा, वीरेश लोकेश और पार्वती पुजेर शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।
(इंडिया साइंस वायर)
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