चुनौतियों पर सदा विजय पाने वाले नड्डा क्या दिल्ली में भी जीत दिला पाएंगे ?
जगत प्रकाश नड्डा की अब तक की राजनैतिक यात्रा बताती है चुनौतियाँ उनके लिए आगे बढ़ने की सीढ़ी होती हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना को क्रियान्वित करने का जिम्मा नड्डा का ही था।
जगत प्रकाश नड्डा, बीजेपी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने लाइम लाइट से दूर, लो प्रोफाइल रहते हुए विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के सर्वोच्च पद तक पहुंचने में सफलता हासिल करने की मिसाल कायम की। वैसे बिहार की छात्र राजनीति से हिमाचल प्रदेश सरकार में एक मंत्री और विपक्ष में रहते हुए नेता प्रतिपक्ष का पद संभालने से लेकर केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बनने और अब पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने तक नड्डा का राजनैतिक सफर विविधताओं से भरा रहा है।
जब बिहार में पटना विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति के दौरान वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े और उसी दौरान जेपी आंदोलन में अपनी सक्रियता के परिणाम स्वरूप 1977 के छात्र संघ चुनावों में एबीवीपी के सेक्रेटरी चुने गए तो शायद उन्हें भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनका यह सफर उन्हें विश्व के सबसे बड़े राजनैतिक दल के अध्यक्ष पद तक ले जाएगा। लेकिन जब अपनी जन्मभूमि को छोड़ वो आगे की पढ़ाई करने हिमाचल प्रदेश चले गए और वहाँ उनके नेतृत्व में 1984 में पहली बार हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनवों में एबीवीपी ने कम्युनिस्ट पार्टी की शाखा स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया को बुरी तरह पराजित कर दिया तो इतना तो तय हो गया था कि राजनीति का क्षेत्र ही उनकी कर्मभूमि रहने वाला है। और इस जीत के साथ नड्डा ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। मीडिया की चकाचौंध से दूर रहते हुए मूक रणनीतिज्ञ की भांति छोटे छोटे ठोस कदमों से आगे बढ़ते रहे। 1993 में मात्र 33 वर्ष की आयु में अपने जीवन का पहला विधानसभा चुनाव बिलासपुर से ऐसे समय में लड़ा जब राज्य में बीजेपी के विरुद्ध माहौल था। जिन चुनावों में शांता कुमार और किशोरी लाल जैसे पार्टी के बड़े बड़े दिग्गज चुनाव हार गए, नड्डा ना सिर्फ विजयी हुए बल्कि पार्टी की ओर से विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी चुने गए। अपने पहले ही चुनाव में नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर उनके विरोधी चाहे उन्हें किस्मत का धनी कहें या संघ से उनकी नज़दीकियों को उनकी सफलता का कारण मानें लेकिन सच तो यही है कि अपने मुस्कुराते चेहरे के साथ जिस दृढ़ता, प्रतिबद्धता और परिश्रम के साथ वे कठिन लक्ष्यों को हासिल करते गए उनके यह गुण उन्हें पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अपने पूर्व अध्यक्षों का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बना देते हैं।
क्योंकि जिस पार्टी की बागडोर अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी से लेकर अमित शाह जैसी हस्तियों ने संभाली हो उस पार्टी की कमान संभालने का जिम्मा मिलना जितना गर्व का विषय होता है उतना ही जिम्मेदारी का अहसास भी लाता है।
दरअसल जुलाई 2014 से जनवरी 2020 तक के साढ़े पांच साल तक के अपने कार्यकाल में अमित शाह ने पार्टी अध्यक्ष के नाते वो लकीर खींच दी है जिसे बरकरार रखना ही शायद पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है। लेकिन नए बीजेपी अध्यक्ष के लिए चुनौतियाँ और भी हैं। खास तौर पर तब जब उन्होंने पार्टी की कमान ऐसे समय में संभाली हो जब दिल्ली के चुनाव सामने खड़े हों, जहाँ के लोगों ने 1998 से भाजपा से दूरी बनाकर रखी हो और जहाँ भाजपा के राष्ट्रवाद का मुकाबला "दिल्ली का बेटा" और उसकी मुफ्त योजनाओं की घोषणाओं से हो।
इसे भी पढ़ें: वित्त मंत्री को बजट में बैंकों की मजबूती पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए
लेकिन जैसा कि नड्डा की अब तक की राजनैतिक यात्रा बताती है चुनौतियाँ उनके लिए आगे बढ़ने की सीढ़ी होती हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना को क्रियान्वित करने का जिम्मा नड्डा का ही था। इससे पहले 2014 के चुनावों में पर्दे के पीछे काम करने वाले मुख्य चेहरों में एक चेहरा नड्डा का भी था। ये वो चुनाव थे जिन्होंने देश की राजनीति की दिशा ही बदल दी। और जब 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश का जिम्मा नड्डा को दिया गया तो भाजपा ने राज्य में 49.6% वोट शेयर के साथ 80 में से 62 सीटें जीतकर महागठबंधन के गणित को ध्वस्त कर राजनैतिक पंडितों को चौंका दिया था। दरअसल संगठन में सबको साथ में लेकर चलने का हुनर ही नड्डा को संगठन के शीर्ष पर लेकर गया। शायद यही वो बुनियादी हुनर है जो नड्डा को भाजपा के अध्यक्ष पद तक लेकर गया। क्योंकि इस पद पर बैठे व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वो संघ और भाजपा के बीच एक सेतु का काम करे, जो दोनों संगठनों में समन्वय बैठा कर चले। लेकिन इसके साथ ही मोदी और शाह की जोड़ी को किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो उनका विश्वासपात्र हो और आगे जाकर पार्टी में उनका प्रतिद्वंद्वी ना बने। क्योंकि अगर खबरों की मानें तो 2019 चुनावों में भाजपा को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में संघ एनडीए के घटक दलों में मोदी विरोध को देखते हुए एक नए चेहरे की अगुवाई में सरकार बनाने की रूपरेखा पर कार्य करना आरंभ कर चुका था। दरअसल राजनीति में आकर्षण कितना ही हो, उसका असली चेहरा तो कुरूप ही होता है। शायद इसलिए अपने मुस्कुराते चेहरे के साथ नड्डा संघ और भाजपा दोनों के लिए स्वीकार्य बने। कारण जो भी हो लेकिन संगठन के साधारण कार्यकर्ता के स्तर से उसके अध्यक्ष तक की नड्डा की यह यात्रा निःसंदेह हर किसी के लिए प्रेरणादायी है।
-डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
अन्य न्यूज़