आजादी दिलाने का श्रेय अकेले लेने वाली कांग्रेस बताये कि भारत के विभाजन के लिए किसे दोषी ठहराया जाये?
आजादी के समय के घटनाक्रमों पर गौर करेंगे तो साफ प्रतीत होगा कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व की पद लालसा ही भारत के विभाजन का असल कारण थी। अंग्रेज शासन की ओर से दिये गये भारत के विभाजन के प्रस्ताव का विरोध नहीं करके कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने बहुत बड़ा अपराध किया था।
भारत को आजादी दिलाने का पूरा श्रेय कांग्रेस लेती है। कांग्रेस कहती है कि जो कुछ किया उसके नेताओं ने किया। जबकि सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में देश की हर गली, हर मोहल्ले और हर घर का व्यक्ति तन मन धन से शामिल था। मगर कांग्रेस की शह पर तत्कालीन इतिहासकारों ने स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को इस तरह लिखा कि सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के कुछ दिग्गज नेताओं के अलावा आजादी के आंदोलन में और किसी का नाम और योगदान नजर नहीं आता। इसलिए आजादी के आंदोलन की सफलता का श्रेय सिर्फ खुद को देने वाली कांग्रेस को यह भी तो बताना चाहिए कि देश के विभाजन का जिम्मेदार कौन था? कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए कि मांग तो अखंड भारत की पूर्ण आजादी की हुई थी लेकिन देश को विखण्डित कर आजादी का प्रस्ताव क्यों मान लिया गया था? विभाजन के समय जो कत्ले आम हुआ और मानवता को शर्मसार करने वाली जो घटनाएं हुईं उसका जिम्मेदार कौन था? कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए कि देश के विभाजन के चलते भारत के समक्ष जो समस्याएं हमेशा हमेशा के लिए खड़ी हो गयीं उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
देखा जाये तो आजादी के समय हुए नरसंहार के लिए तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व को ही जिम्मेदार कहा जायेगा क्योंकि उसकी अदूरदर्शिता की वजह से कई गलत निर्णय हुए थे। महात्मा गांधी धर्म के आधार पर देश के विभाजन के विरोधी थे इसलिए वह आजादी के जश्न में शामिल नहीं हुए थे। देखा जाये तो यह वह आजादी नहीं थी जिसके लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में समूचे देश ने लड़ाई लड़ी थी। महात्मा गांधी ने शांति और अमन चैन वाली पूर्ण आजादी की मांग की थी लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं की सत्ता लोलुपता की वजह से उन्हें अपने उद्देश्य में आधी-अधूरी ही कामयाबी मिली थी।
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अगर आजादी के समय के घटनाक्रमों पर गौर करेंगे तो साफ प्रतीत होगा कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व की पद लालसा ही भारत के विभाजन का असल कारण थी। अंग्रेज शासन की ओर से दिये गये भारत के विभाजन के प्रस्ताव का विरोध नहीं करके कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने बहुत बड़ा अपराध किया था। देखा जाये तो कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व इस बात के लिए आतुर था कि कैसे जल्दी से जल्दी सत्ता पर कब्जा किया जाये। इसलिए भारत का विभाजन होते समय उन्हें कोई दर्द ही नहीं हुआ। दर्द तो उन लोगों ने सहा जिन्हें अपना घरबार छोड़ना पड़ा, परिजनों को खोना पड़ा और संपत्ति से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व तो बस सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरा करने के लिए अंग्रेजों के इर्दगिर्द चक्कर काट रहा था। विभाजन का दर्द झेल रहे लोगों की उसे शायद ही कोई परवाह थी।
भारत का विभाजन मानव इतिहास में सबसे बड़े विस्थापनों में से एक है, जिससे लगभग 20 से 25 लाख लोग प्रभावित हुए थे। लाखों परिवारों को अपने पैतृक गांवों, कस्बों और शहरों को छोड़ना पड़ा था और शरणार्थी के रूप में संघर्षमय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। बहुत से विद्वान मानते हैं कि उस समय कांग्रेस ने सत्ता लोलुपता नहीं दिखाई होती और अंग्रेजों के आगे घुटने नहीं टेके होते तो ना तो देश का विभाजन होता ना ही लोगों को विस्थापित होना पड़ता। ना ही आज भारत को अपने पड़ोस में ऐसे देशों की ओर से विरोध झेलना पड़ता जोकि पहले उसी का हिस्सा थे।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि अंग्रेजों ने कांग्रेस की किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की आतुरता को भांप लिया था इसलिए योजनाबद्ध तरीके से स्वतंत्रता की घोषणा पहले और विभाजन की घोषणा बाद में की थी। इससे भारत और पाकिस्तान की नयी सरकारों के सर पर एकदम से शांति कायम रखने की जिम्मेदारी आ गयी थी। जाहिर तौर पर दोनों ही सरकारें शांति व्यवस्था कायम करने के लिए तैयार नहीं थीं। इस वजह से हालात बिगड़ते चले गये। देखते-देखते दंगे भड़कते गये और जब पाकिस्तान से ट्रेनों में भरकर हिंदुओं और सिखों की लाशें आने लगीं तो यहां भी लोग उन्मादी हो गये।
यही कारण रहा कि जहां एक ओर पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके सहयोगी सत्ता संभालने में लगे हुए थे तो दूसरी ओर विभाजन के चलते भड़के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए उस वक्त महात्मा गांधी बंगाल के नोआखली में अनशन पर बैठ गए थे और स्वतंत्रता दिवस समारोह में भी शामिल नहीं हुए थे। उस समय के हालात के बारे में जो इतिहास मिलता है वह बहुत भयावह है। 15 अगस्त 1947 की सुबह जहां आजादी लेकर आई थी और सभी के चेहरों पर खुशी थी वहीं यह भी दृश्य देखने को मिल रहे थे कि लोग ट्रेनों, बैलगाड़ियों, घोड़ों या खच्चरों पर बैठकर या फिर पैदल ही सर पर सामान लादे हुए और अपने बच्चों का हाथ पकड़े हुए अपनी मातृभूमि को छोड़कर अलग-अलग बन चुके देश की ओर रवाना हो रहे थे।
भारत के विभाजन के समय भड़के सांप्रदायिक दंगों में लोगों की मौत का आंकड़ा 20 लाख तक बताया जाता है। देख जाये तो उन दंगों में ना जाने कितने परिवार बिछड़ गये, कितनी महिलाओं को अपनी इज्जत से हाथ धोना पड़ा, कितने लोगों के शरीर के टुकड़े कर दिये गये, कितने लोगों के घर लूट लिये गये या फूंक दिये गये...तत्कालीन सरकार और प्रशासन बस शांति की अपील करता रह गये थे। तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की यह सबसे बड़ी नाकामी थी कि ना तो वह देश का विभाजन रोक पाये और ना ही कत्लेआम। लेकिन सवाल उठता है कि क्या उस नाकामी का श्रेय आज की कांग्रेस लेगी?
देश के विभाजन के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। अपनी आजादी का जश्न मनाते हुए एक कृतज्ञ राष्ट्र के रूप में हमें अपनी मातृभूमि के उन बेटे-बेटियों को 14 अगस्त के दिन विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस पर अवश्य नमन करना चाहिए, जिन्हें हिंसा के उन्माद में अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी। देखा जाये तो विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस हमें भेदभाव, वैमनस्य और दुर्भावना के जहर को खत्म करने के लिए न केवल प्रेरित करता है बल्कि इससे देश की एकता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनाएं भी मजबूत होंगी।
बहरहाल, 15 अगस्त, 1947 को नए स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र का जन्म विभाजन के हिंसक दर्द के साथ हुआ था जिसने लाखों भारतीयों पर पीड़ा के स्थायी निशान छोड़े हैं। इसलिए यह सवाल बार-बार उठता है कि जो लोग भारत की आजादी का श्रेय अकेले लेना चाहते हैं वह यह बताएं कि भारत के विभाजन के लिए किसे दोषी ठहराया जाये?
-नीरज कुमार दुबे
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