लोकसभा चुनाव परिणामों से जुड़ी फिजूल की अटकलें
अनेक चुनाव विश्लेषण बताते हैं कि 1999 और 2004 में कम मतदान प्रतिशत से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन 2014 में अधिक मतदान से लाभ हुआ। लेकिन विश्लेषक मतदान प्रतिशत और अंतिम परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध बताने में विफल हैं।
पांचवें चरण के तहत 20 मई को आठ राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों की 49 लोकसभा सीटों पर वोट डाले गये, इसके बाद दो ही चरण की वोटिंग शेष रह जाएगी। शेष रहे दो चरणों के चुनाव पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं और जैसे-जैसे चुनाव सम्पन्नता की ओर बढ़ रहे हैं, राजनीतिक दलों की आक्रामकता अब चुनाव परिणामों को लेकर फिजूल की अटकलों के रूप में देखने को मिल रही है। वैसे तो तीन चरणों के बाद ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलें पर सारे चुनावी परिदृश्य बन रहे हैं। आम मतदाता की जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर सार्थक बहस करने की बजाय चुनाव नतीजों की भविष्यवाणियों में चुनाव परिदृश्यों को भटकाने की कुचेष्ठाएं हो रही है, यह लोकतंत्र के इस महानुष्ठान को धुंधलाने का दूषित प्रयास है। चुनाव परिणामों को लेकर हो रही इन चर्चाओं से जहां आम मतदाता भ्रमित हो रहा है, वही देश के शेयर बाजारों में गिरावट की स्थितियां आर्थिक असंतुलन का कारण बन रही है। राजनीतिक दलों की सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव परिणामों की संभावनाएं व्यक्त करना, अटकले एवं कयास लगाना चुनावी परिदृश्यों को भटकाने की कोशिशें हैं, इसमें राजनीतिक विश्लेषण और उनके निष्कर्ष भी कहीं-न-कहीं ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जिससे मतदाता को लुभाया जा सके, भटकाया जा सके या गुमराह किया जा सके।
कांग्रेस हो या भाजपा और अन्य दल सभी चुनाव परिणाम की अटकलों पर ध्यान लगाये हुए हैं, वे ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं करते हुए जीत के दावे कर रहे हैं, जिससे मतदाता द्वंद्व की स्थिति में हैं। राजनीतिक दलों ने राष्ट्र के जरूरी एवं बुनियादी मुद्दें को तवज्जों न देकर राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है। दिक्कत यह है कि सभी पार्टियां अपने दल या गठबंधन की जीत को सुनिश्चित बताते हुए इस तरह के विश्लेषण और निष्कर्ष निकाल रहे हैं जो सत्यता से दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष अतीत में कई बार गलत साबित हो चुके हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा को ऐसी जीत मिली, जिससे देश में तीन दशक बाद किसी पार्टी ने अपने बहुमत वाली सरकार बनाई। 2019 में पार्टी ने उससे भी बड़ी जीत हासिल की। लेकिन 2019 में भी चुनाव नतीजों से पहले शेयर बाजार लड़खड़ाते नजर आ रहे थे एवं विपक्षी दल भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर रहे थे। 2014 में भी कई विश्लेषक उत्तरप्रदेश की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के कथित ध्रूवीकरण का हवाला देते हुए खास तरह के चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी कर रहे थे, जो गलत साबित हुए। ऐसी ही भविष्यवाणियां इस बार भी बढ़-चढ़ कर हो रही है, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित होने वाले हैं, चौंकाने एवं चमत्कृत करने वाले होंगे।
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निश्चित ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलों का शेष रहे दो चुनाव चरणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता हैं। पहले तीन चरणों के कम मतदान को सत्तापक्ष के समर्थक मतदाताओं के उत्साह में कमी का संकेत बताया जा रहा है तो महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में एनडीए के सहयोगी दलों की वोट ट्रांसफर करने की क्षमता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जहां तक वोटरों के उत्साह में कमी की बात है तो अव्वल तो चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के मुताबिक वोट प्रतिशत का अंतर काफी कम रह गया है, दूसरी बात यह कि वोट न देने वालों में किस पक्ष के समर्थक ज्यादा हैं, इसे लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं जिनकी सचाई 4 जून को ही सामने आएगी। लेकिन चुनाव परिणामों को लेकर विरोधाभासी अटकलों का असर मतदाता पर पड़ता ही है। समूचे देश की बात करें तो इस पर लगभग आम राय है कि इन चुनावों में कोई लहर नहीं है। कई चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार 2019 के चुनाव में पुलवामा में हुई घटनाओं और उसके बाद बालाकोट में जो हुआ उसके बाद देश भर में राष्ट्रीय सुरक्षा की लहर दौड़ गई थी। इस बार सोचा गया था कि श्रीराम मन्दिर के उद्घाटन का व्यापक असर होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विकास का मुद्दा अवश्य मतदाता के दिमाग में रहा है। फिर भी अगर किसी एक नेता के पक्ष में मतदाताओं की पसंद मुखरता से सामने आ रही है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं। सवाल है कि क्या यह मुखरता वोट में भी परिणत होगी? जवाब के लिए 4 जून का इंतजार करना बेहतर होगा।
अनेक चुनाव विश्लेषण बताते हैं कि 1999 और 2004 में कम मतदान प्रतिशत से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन 2014 में अधिक मतदान से लाभ हुआ। लेकिन विश्लेषक मतदान प्रतिशत और अंतिम परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध बताने में विफल हैं। बाज़ार के इस उतार चढ़ाव के बीच निवेशक लोकसभा चुनाव में कुछ चरणों के कम मतदान प्रतिशत को लेकर चिंतित हैं। वे चुनाव परिणाम के बारे में अनिश्चितता पाले हुए हैं। निवेशक ही नहीं, मतदाता एवं नेता भी भ्र्रम एवं भटकाव पाले हुए है। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस नई सरकार के गठन में ‘बाहर से समर्थन’ देगी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इस टिप्पणी के बाद से ही राजनीतिक हलकों में कयासों और अटकलों का दौर तेज़ हो गया था। सवाल उठ रहा था कि क्या उनकी इस टिप्पणी में कोई नया संकेत छिपा है? पांचवें चरण की सम्पन्नता के बाद यह साफ हो गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस बार सत्तारूढ़ भाजपा की कांग्रेस समाहित विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ कांटे की लड़ाई हैं और दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी विजय का दावा कर रहे हैं।
कम मतदान की पहेली का एक मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि मतदाता को कोई उत्साह नहीं है, क्योंकि उसको ये लगता है कि 400 सीटों की जीत का दावा किया जा रहा है तो उसके वोट से कोई फर्क नहीं पडने वाला है। एक वजह ये भी हो सकती है कि वह परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त है, लेकिन इन दोनों वजहों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रोल है, ये मतदाता की पहचान से जुड़े मामले नहीं हैं। विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में फेल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि मामला उतना सपाट नहीं है। एक तो मौसम की मार और दूसरा ये एक ऐसा राजनीतिक मैच है जिसका नतीजा पहले से पता है इसलिए ऐसे मैच में कोई उत्साह नहीं होना बहुत सामान्य है।
पांचवें चरण में हो रहा लोकसभा का यह चुनाव भाजपा के लिए ‘सेफ जोन’ की तरह माना जाता है। दरअसल भाजपा और एनडीए ने मिलकर पिछले लोकसभा चुनाव में पांचवें चरण की 49 सीटों पर जिस तरह से बैटिंग की थी, वह उसको सत्ता की सीढ़ी तक ले गई। जबकि 2014 में भी भाजपा ने अपने सियासी ग्राफ को इस चरण में मजबूती के साथ आगे बढ़ाया था। सियासी जानकारों का मानना है कि भाजपा ने अपने इसी मजबूत सियासी ग्राफ के मद्देनजर पूरी फील्डिंग पांचवें चरण की 49 सीटों पर लगा दी है। वहीं इंडिया गठबंधन और उसके सियासी दलों, जिसमें कांग्रेस और सपा समेत शिवसेना ने पांचवें चरण के लिए 2014 से पहले वाली रवायत को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तैयारी की है। अब परिणाम तो भविष्य के गर्भ में हैं। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले मतदान में प्रतिशत का अधिक रहना सुखद ही है। जो घाटी के लोगों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़ने को दर्शाता है। कालांतर ये इस केंद्रशासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और यथाशीघ्र विधानसभा चुनाव करवाने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। बहरहाल, पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गंभीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणापत्रों की हकीकत को महसूस करते हुए अतिश्योक्तिपूर्ण भविष्यवाणियों एवं अटकलों से बचना चाहिए।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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