बढ़ती हुई जनसंख्या और सीमित संसाधनों का जोखिम
यदि संसाधनों का वितरण आबादी के अनुपात में हुआ होता अथवा कहा जाए कि जनसंख्या में वृद्धि संसाधनों के अनुकूल ही हुआ होता तो युद्धग्रस्त गाजा पट्टी और सूडान में बिगड़े खाद्य सुरक्षा के हालातों के कारण करोड़ों लोगों को खाद्य सामग्री का अभाव नहीं झेलना पड़ता।
बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या आज दुनिया की सबसे बड़ी परेशानियों में से एक बन चुकी है। जनसंख्या वृद्धि के कारण दुनिया के कई देशों में संसाधनों का बंटवारा ठीक तरह से नहीं हो पाता है। वहीं, कई देशों में वहां की बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में उपलब्ध संसाधन अब कम पड़ने लगे हैं। जाहिर है कि यदि किसी भी देश की जनसंख्या लगातार तीव्र गति से बढ़ेगी तो उसी अनुपात में वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी बढ़ेगा। इसे भारत के संदर्भ में देखा जाए तो 13 सितंबर 2024 को भारत की जनसंख्या लगभग 1,453,567,738 थी, जो विश्व की कुल जनसंख्या (लगभग 8,176,283,486) का करीब 18 प्रतिशत है। गौरतलब है कि विश्व के महज ढ़ाई प्रतिशत भू−भाग पर दुनिया की कुल जनसंख्या का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा जीवन यापन करने के लिए विवश है। जरा सोचिए कि ऐसे में क्या देश में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक दबाव नहीं पड़ेगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो इसी वर्ष अप्रैल के अंत में जारी संयुक्त राष्ट्र की 'ग्लोबल रिपोर्ट ऑन फूड क्राइसिस' के अनुसार आज दुनिया भर के कुल 59 देशों के लगभग 28.2 करोड़ लोग भूख से तड़पने के लिए मजबूर हैं। रपट के अनुसार युद्धग्रस्त गाजा पट्टी और सूडान में बिगड़े खाद्य सुरक्षा के हालातों के कारण 2022 में 2.4 करोड़ से भी अधिक लोगों को खाद्य सामग्री के अभाव में भूखे रहना पड़ा था।
यदि संसाधनों का वितरण आबादी के अनुपात में हुआ होता अथवा कहा जाए कि जनसंख्या में वृद्धि संसाधनों के अनुकूल ही हुआ होता तो युद्धग्रस्त गाजा पट्टी और सूडान में बिगड़े खाद्य सुरक्षा के हालातों के कारण करोड़ों लोगों को खाद्य सामग्री का अभाव नहीं झेलना पड़ता। गौरतलब है कि यूक्रेन और सूडान से कई देशों को गेहूं समेत अन्य खाद्य सामग्रियों की आपूर्ति की जाती है, तब उन आयातक देशों के निवासियों का पेट भरता है। देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र की रपट इस बात की ओर भी साफ संकेत करती है कि जैसे−जैसे विश्व भर में जनसंख्या बढ़ती गई वैसे−वैसे ही भूखे लोगों की संख्या में भी लगातार वृद्धि होती गई। बता दें कि भोजन के अभाव को लेकर रपट जारी करने की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र्र ने 2016 में की थी और 2016 की पहली रपट की तुलना में हालिया रपट में विश्व भर में भूखे लोगों की संख्या में चार गुणा की वृद्धि हो चुकी है। जाहिर है कि यदि जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया गया और विश्व भर में मनुष्य की आबादी इसी प्रकार लगातार और बेतहाशा बढ़ती रही तो दुनिया में भुखमरी की समस्या एक विकराल रूप ले सकती है, जिससे निपटना अत्यंत ही कठिन हो जाएगा, इसमें दो मत नहीं हो सकता, बल्कि सच कहा जाए तो उप−सहारा अफ्रीका के देशों समेत कम संसाधनों वाले गरीब देशों में शायद परिस्थितियां इतनी बिगड़ जाएं कि वहां भुखमरी की समस्या से निपटना असंभव ही हो जाए।
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गौर करें तो बढ़ती आबादी के कारण दुनिया भर में संसाधनों का बेतहाशा दोहन लगातार जारी है। इसके परिणामस्वरूप ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों यथा कोयला, तेल और प्राकृतिक गैसों आदि पर दबाव अत्यधिक बढ़ गया है, जो भविष्य के लिए बड़े खतरे का संकेत है। इनके अतिरिक्त बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में सभी नागरिकों के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, पेयजल, दवाइयां इत्यादि सुविधाओं की व्यवस्था करना भी किसी सरकार के लिए सरल कार्य नहीं है। अंग्रेजी अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने सन् 1798 में गणितीय रूप से भोजन और मानव जनसंख्या के बीच के संबंध को प्रदर्शित करते हुए जनसंख्या वृद्धि पर एक निबंध लिखा था। अपने उस लेख में माल्थस ने तर्क दिया था कि जब भी खाद्य आपूर्ति बढ़ती है, तो जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है और उपलब्ध संसाधनों की प्रचुरता को समाप्त कर देती है, जिसके परिणामस्वरूप मानव पीड़ा बनी की बनी रह जाती है, जब तक कि मानव जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया जाता। तात्पर्य यह कि यदि तीव्र गति से और लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया गया तो वह उपलब्ध खाद्य उत्पादन की क्षमता से बहुत आगे निकल जाएगा और संसाधनों के अभाव में भुखमरी, कुपोषण, बीमारी, गरीबी एवं लाचारी जैसी समस्याएं लगातार बनी रहेंगी। देखा जाए तो माल्थस की बातों से हमने कोई सबक नहीं ली, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज दुनिया की कुल आबादी 08 अरब से भी अधिक हो चुकी है।
इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि जनसंख्या बढ़ने और संसाधनों के घटने से देशों पर कर्ज का बोझ बढ़ने लगता है। बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रपट के अनुसार सितंबर 2023 तक भारत पर कुल कर्ज का बोझ 205 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। वहीं, विश्व आर्थिक मंच की 2021 में जारी एक रपट के अनुसार शिक्षा गुणवत्ता में भारत का स्थान 90वां है। जनसंख्या संबंधी संयुक्त राष्ट्र की 15 नवंबर 2022 को जारी एक रपट के अनुसार वर्ष 2050 तक एशिया महाद्वीप की आबादी लगभग पांच अरब हो जाएगी और सदी के अंत तक दुनिया की आबादी 12 अरब तक पहुंच जाएगी। रपट में यह भी बताया गया था कि 2024 तक भारत और चीन की जनसंख्या बराबर हो जाएगी और 2027 में भारत चीन को पछाड़कर विश्व का सर्वािधक आबादी वाला देश बन जाएगा, जबकि संयुक्त राष्ट्र की रपट के आकलन को झुठलाते हुए अप्रैल 2023 में ही चीन को पछाड़कर भारत दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है। फरवरी 2024 में संयुक्त राष्ट्र ने ही अपनी एक और रपट जारी कर इसकी सूचना भी सार्वजनिक की थी। हालांकि 2011 के बाद भारतवर्ष में जनगणना नहीं हुई है। वैसे 1888 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन ने भी जनसंख्या वृद्धि को एक समस्या के रूप में देखा था। उन्होंने तब यह आशंका प्रकट की थी कि भारत में कृषि उत्पादन कम है और अकाल इसलिए पैदा होता है, क्योंकि यहां जनसंख्या बहुत आकि है और लोग तेजी से बढ़ रहे हैं।
इसके बावजूद 1871 से 1941 तक भारत की जनसंख्या की औसत वृद्धि दर 0.60 प्रतिशत रही, जबकि इस दौरान दुनिया का औसत 0.69 प्रतिशत ही था। हालांकि 20वीं सदी के पहले दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि दर अपेक्षाकृत कम रही। 1931 की जनगणना में जब सामने आया कि भारत में 1921 से 1931 के बीच प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की दर से जनसंख्या बढ़ी है तो सभी चौंक गए, लेकिन 1951 के बाद यह दर लगातार बढ़ती हुई लगभग दो प्रतिशत के आसपास पहुंच गई। वैसे हम इस बात के लिए थोड़ा संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि 1970 के दशक से देश की जनसंख्या वृद्धि दर में निरन्तर गिरावट दर्ज की जाती रही है, लेकिन यह गिरावट दर अपेक्षाकृत इतनी धीमी रही है कि इसके लिए खुश नहीं हुआ जा सकता। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में वर्ष 1971−81 के बीच वार्षिक जनसंख्या वृद्धि की दर जो 2.5 प्रतिशत थी, उससे घटकर वर्ष 2011−16 के मध्य तक आते−आते 1.3 प्रतिशत रह गई। इस संदर्भ में अनेक प्रकार के तर्क और विचार दिए जाते रहे हैं, जिनमें से यह तर्क कि पिछले कुछ दशकों में देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में निरन्तर किए जा रहे सुधारों के कारण धीरे−धीरे जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है, सच प्रतीत होती है, क्योंकि वास्तव में अब तक जनसंख्या वृद्धि की दर सर्वािधक उन्हीं इलाकों में पाई गई है, जिन क्षेत्रों में लोग शिक्षित और स्वस्थ नहीं होते।
गौरतलब है कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के कारण किसी भी देश की स्थित खिराब हो सकती है। इसके कारण उत्पन्न हुई बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी आदि ऐसी समस्याएं हैं, जो किसी भी समाज के नैतिक, सैद्धांतिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक और नैष्ठिक ताने−बाने को ध्वस्त कर सकती हैं। इसके कारण व्यक्तियों का सामाजिक विकास, सांस्कृतिक उत्थान और मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन बाधित हो सकता है। और यदि ऐसा हुआ तो समाज में चारों ओर हिंसा, बलात्कार, भ्रष्टाचार, लूटपाट, चोरी, छिनतई, हत्या, आत्महत्या, उग्रवाद और आतंकवाद जैसे अपराधों में बेतहाशा वृद्धि होने लगेगी। लोग कानून और लोकलाज की परवाह किए बिना ही केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहेंगे। देखा जाए तो कमोबेश आज ऐसी ही परिस्थितियों से हमारा देश गुजर रहा है। जाहिर है कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किए बिना इन समस्याओं का समाधान कर पाना संभव नहीं होगा। वैसे जनसंख्या को लेकर भारतवर्ष के अनुभवों की बात करें तो आश्चर्य होता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर देश के किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में सरकार की ओर से कोई भी कठोर कदम नहीं उठाए गए, ताकि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाई जा सके। शायद वोट बैंक की राजनीति के कारण देश की सरकारें जनता को नाराज करने से बचना चाहती होंगी, क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय समाज में यह धारणा व्याप्त थी कि अधिक जनसंख्या विकास का पैमाना होता है।
दरअसल, उन दिनों जनसंख्या का कम होना नकारात्मक परिस्थितियों की देन माना जाता था, जो एक बुरी स्थित थिी, किंतु समय के साथ हमारी सोच में बदलाव आता गया और हमने इस पर विचार करना शुरू किया कि क्या भारतवर्ष इतनी बड़ी जनसंख्या को संभालने में सक्षम है। समय−समय पर आने वाले भयानक सूखे और अकाल की त्रासदी ने भी इस चिंता की तरफ देशवासियों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बावजूद 1970 के दशक तक हमारी सरकारों ने देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाकर जनसंख्या वृद्धि का समाधान ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन आपातकाल के समय इंदिरा गांधी की सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को बहुत सख्ती से अपनाया। जबरन नसबंदी कराए जाने के कारण लोग बेहद नाराज थे। 1977 में आपातकाल के बाद जब इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तब विश्लेषकों ने माना कि परिवार नियोजन की सख्ती के कारण ही वह चुनाव हारी थीं। उसके बाद 1980 और 1990 के दशक में पब्लिक डोमेन में तो बढ़ती हुई जनसंख्या पर खूब बातें हुईं, किंतु राजनेताओं ने इस पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। यही नहीं, भूमंडलीकरण के बाद भी जनसंख्या का मुद्दा भारत में दबा ही रहा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से 'आबादी के तेजी से बढ़ने' की बात कहते हुए केंद्र और राज्यों से इसे रोकने के लिए योजनाएं बनाने का आह्वान भी किया था। वहीं, 2024 के अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तेजी से बढ़ती आबादी और डेमोग्राफी में आए बदलाव की चुनौतियों से निपटने के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति बनाने का ऐलान किया, जो 'विकसित भारत' बनाने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन समस्याओं से निपटने के लिए सुझाव देगी।
−चेतनादित्य आलोक
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड
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