UP में सधे कदमों से मिशन 2022 की ओर बढ़ती जा रही हैं प्रियंका गांधी
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेत्री की नजर योगी सरकार के साथ-साथ बसपा के दलित वोट बैंक पर भी लगी हुई है, जो कभी कांग्रेस का मजबूत आधार हुआ करता था। प्रियंका बार-बार मायावती को ‘भाजपा का अघोषित प्रवक्ता' बताती रहती हैं।
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी सधे हुए कदमों से 2022 के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रही हैं। 2022 का लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रियंका ने पुराने चेहरों को साइड लाइन करके अपनी पसंद की टीम तैयार कर ली है। प्रदेश से लेकर जिला और नगर इकाइयों तक पर उनकी नजर है। कोरोना काल में प्रियंका जिस तरह की सियासत कर रही हैं उसकी ‘टाइमिंग’ पर सवाल उठाये जा सकते हैं, लेकिन प्रियंका के जज्बे को तो ‘सलाम’ करना ही पड़ेगा, जो कोराना से निपटने के लिए जद्दो-जहद कर रही योगी सरकार को लगातार आईना दिखाने का काम कर रही हैं। बिना इन आरोपों की चिंता किए कि कोरोना काल में भी गांधी परिवार घटिया सियासत कर रहा है। जब कोरोना के चलते देश लॉकडाउन था, जनता सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रही थी। चेहरे पर मास्क और हाथ में सैनिटाइजर्स के जरिए लोग कोरोना संक्रमण से जान बचने की कोशिश कर रहे थे, देश में लगातार कोरोना पॉजिटिव की संख्या बढ़ती जा रही थी। तब प्रियंका हर उस मुद्दे को हवा दे रही हैं, जो योगी सरकार की पेशानी पर बल डाल सकता था। प्रियंका आगे-आगे तो उनकी पार्टी के ‘दूसरी-तीसरी लाइन' के युवा नेता कंधे से कंधा मिलाकर पीछे-पीछे चलते नजर आते हैं। प्रियंका के साथ संघर्षरत् नेताओं में कोई पुराना चेहरा नजर नहीं आता है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय ‘लल्लू’ और उनके ही जैसे अन्य गुमनाम या कम जान-पहचान वाले संघर्षशील युवा नेताओं के सहारे प्रियंका, योगी सरकार के खिलाफ कई ऐसे मुद्दे उछाल चुकी हैं जिसको लेकर योगी सरकार को बार-बार ‘सफाई‘ तक देनी पड़ी।
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वैसे घटिया राजनीति करने का आरोप गांधी परिवार पर कोई नया और पहली बार नहीं लगा है। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के समय भी जब प्रियंका ने सीएए का विरोध कर रहे लोगों के पक्ष में योगी सरकार की हठधर्मी-उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था, तब भी उन पर देश विरोधी ताकतों के साथ खड़े होने का अरोप लगा था, लेकिन इसकी चिंता किए बिना प्रियंका उन लोगों के घर गईं जो सीएए का विरोध करते समय पुलिस की लाठियों का शिकार हुए थे। इस पर योगी सरकार की त्योरियां ठीक वैसे ही चढ़ गईं थीं, जैसी आज कोरोना काल में प्रियंका पर चढ़ी हुई हैं।
प्रियंका की यूपी में ‘संघर्षगाथा’ की बात की जाए तो चाहे कोरोनाकाल में कांग्रेस नेत्री द्वारा राजस्थान से उत्तर प्रदेश लाने के लिए प्रवासी मजदूरों के लिए बस की पेशकश की बात हो या फिर गत वर्ष जुलाई के ही महीने में सोनभद्र में हुआ दस लोगों का नरसंहार अथवा बीते दिसंबर माह में नागरिकता संशोधन एक्ट के विरोध में धरना-प्रदर्शन करने वालों के पक्ष में खड़े होकर योगी सरकार को मुस्लिम विरोधी करार देना। हर बार प्रियंका के तेवर तीखे दिखे। यहां तक कि सोनभद्र नरसंहार के समय पुलिस उन्हें हिरासत में लेने को मजबूर हो गई थी तो बस की सियासत में योगी सरकार उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को जेल की सलाखों के पीछे भेजने को मजबूर हो गई, जिसको प्रियंका ने सियासी मुद्दा बना दिया। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लोकसभा चुनाव के बाद प्रियंका ने जमीनी सियासत में सपा-बसपा को काफी पीछे छोड़ दिया है।
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेत्री की नजर योगी सरकार के साथ-साथ बसपा के दलित वोट बैंक पर भी लगी हुई है, जो कभी कांग्रेस का मजबूत आधार हुआ करता था। प्रियंका बार-बार मायावती को ‘भाजपा का अघोषित प्रवक्ता' बताती रहती हैं, यह और बात है कि ऐसा कहते समय उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता है कि केन्द्र की मनमोहन सरकार ने अगर अपना दस साल का कार्यकाल पूरा किया तो उसका काफी श्रेय मायावती को जाता है। बसपा के समर्थन के बिना मनमोहन सरकार घुटनों के बल नजर आने लगती थी।
लब्बोलुआब यह है कि प्रियंका वाड्रा की पूरी सियासी कसरत 2022 के उ0प्र0 विधानसभा चुनावों को लेकर हो रही है। बीते वर्ष जब लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी प्रियंका को सौंपी गई थी, तब ही राहुल गांधी ने कह दिया था कि प्रियंका 2022 के लिए यूपी में कांग्रेस की जमीन तैयारी करेंगी और तब से प्रियंका ऐसा कर भी रही हैं। प्रियंका ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश में हलचल बढ़ा रखी है, उससे सपा-बसपा का अशांत होना स्वाभाविक है, लेकिन राजनीति के जानकारों को लगता है कि प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उस स्थिति में पहुंचा देना चाहती हैं, जहां बैठकर वह अन्य दलों के साथ टिकटों की सौदेबाजी कर सकें।
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बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह से सपा-बसपा ने ‘दूध की मक्खी‘ कि तरह निकाल कर फेंक दिया था। प्रियंका नहीं चाहती हैं कि वह ‘इतिहास' 2022 के विधानसभा चुनाव में पुनः दोहराया जाए। गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय मायावती की जिद्द के चलते कांग्रेस का सपा-बसपा के साथ गठबंधन का सपना चकनाचूर हो गया था, जिसका आज तक प्रियंका को मलाल है। इसीलिए प्रियंका मायावती पर तो हमलावर रहती हैं, लेकिन अखिलेश यादव को लेकर वह ज्यादा मुखर नहीं होती हैं। मायावती की जिद्द के चलते अकेले मैदान में कूदी कांग्रेस ठीक से लोकसभा चुनाव की तैयारी भी नहीं कर पाई थी, इसी के चलते प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस को इतिहास की सबसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। यूपी में कांग्रेस एक सीट पर सिमट गई थी। अमेठी में राहुल गांधी तक अपनी सीट नहीं बचा पाए थे, यह सब तब हुआ था जबकि सपा-बसपा गठबंधन का सहयोगी नहीं बनने के बाद प्रियंका ने मेहनत में कोई ‘कोरकसर’ नहीं छोड़ी थी। चुनाव के दौरान भी प्रियंका समाजवादी पार्टी के प्रति साफ्ट कॉर्नर लेकर चली थीं।
इसके उलट प्रियंका ने बसपा प्रत्याशियों के साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखाई थी। यह सिलसिला आज भी जारी है। प्रियंका बसपा सुप्रीमों को चिढ़ाने के लिए कभी-भीम आर्मी के करीब जाकर तो कभी बसपा को भाजपा के साथ खड़ा करके हमलावर रहती हैं। इसी प्रकार दलितों को कांग्रेस के पक्ष में लुभाने के लिए भी प्रियंका समय-समय पर हथकंडे अपनाती रहती हैं। दलित उत्पीड़न से जुड़ी प्रत्येक घटना को प्रियंका खूब ‘हवा-पानी‘ देती हैं, लेकिन वह तब दलितों के पक्ष में कुछ नहीं बोलती हैं जब दलितों पर मुस्लिम अत्याचार करते हैं। जौनपुर में दलितों के साथ मारपीट के बाद घर जलाने का मामला और आजमगढ़ में दलित बालिकाओं के साथ मुस्लिम समाज के कुछ लड़कों द्वारा छेड़छाड़ और उनके साथ अभद्रता किए जाने की घटना के बारे में प्रियंका ने आज तक अपना अपना मुंह नहीं खोला है। उन्हें लगता है कि अगर उक्त घटनाओं में वह दलितों का पक्ष लेंगी तो मुसलमान वोटर उससे नाराज हो जाएंगे। हाँ, योगी सरकार ने जरूर दोनों घटनाओं में आरोपितों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत कार्रवाई करने में देरी नहीं की। बसपा सुप्रीमो मायावती ने जब योगी सरकार के कदम की सराहना की तो प्रियंका ने झट से उन्हें भाजपा का अघोषित प्रवक्ता बता दिया।
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बात कांग्रेस-समाजवादी पार्टी के रिश्तों की कि जाए तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा, जहां सपा प्रमुख अखिलेश यादव के खिलाफ मुखर नहीं हैं तो अखिलेश भी प्रियंका को लेकर मायावती की तरह कभी एग्रेसिव नहीं होते हैं। इसलिए अटकलें इस बात की भी लग रही हैं कि ‘बुआ' से दूरियां बढ़ने के बाद अखिलेश 2017 की तरह एक बार फिर कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए समझौता कर सकते हैं। भले ही 2017 में कांग्रेस से गठबंधन के नतीजे अच्छे नहीं आए थे। अखिलेश को लगता है कि चार-पांच वर्षों में समय काफी बदल गया है। परिपक्वता के मामले में प्रियंका अपने भाई राहुल गांधी से काफी आगे हैं और दोनों को ही भाजपा और मोदी-योगी से निपटने के लिए एक-दूसरे की जरूरत है।
वैसे राजनीति के जानकार यह भी संभावना व्यक्त कर रहे है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ‘यूपी को यह साथ पसंद है' का हश्र देखने को बाद अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, कांग्रेस से गठबंधन लिए फूंक-फूंक कर कदम रखेगी क्योंकि कांग्रेस के दामन पर बाबरी मस्जिद गिराने का दाग लगा हुआ है। इस वजह से मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा आज भी कांग्रेस को गुनाहगार मानता है। भले ही अब यह मामला पूरी तरह से सुलझ चुका है। 2017 के विधानसभा चुनाव के समय जब कांग्रेस-सपा के बीच गठबंधन हुआ था तब भी बसपा और भाजपा ने समाजवादी पार्टी को घेरा था कि क्यों उसने बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों से हाथ मिला लिया। मुलायम ने तो कांग्रेस पर लगे इसी एक आरोप को ‘हथियार’ बनाकर कांग्रेस को ताउम्र प्रदेश की सियासत में हाशिये पर डाले रखा और स्वयं मुसलमानों के मसीहा बने रहे।
-अजय कुमार
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