चुनावी मुद्दों समेत भारतीयता की विकृत व्याख्या के सियासी मायने को ऐसे समझिए

Sam Pitroda Mani Shankar
Prabhasakshi
कमलेश पांडे । May 11 2024 1:20PM

यदि पिछले तीनों लोकसभा चुनावों यानी 2014, 2019 और 2024 में कतिपय कांग्रेसी नेताओं के बयानों पर गौर किया जाए तो मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर से लेकर सैम पित्रोदा तक पार्टी नेताओं की ऐसी फेहरिस्त है, जिनके बयानों से पीएम मोदी की सरकार को अकस्मात चुनावी संजीवनी मिली।

दुनिया का सबसे बड़ा और सर्वाधिक सफल लोकतंत्र समझा जाने वाला भारतीय लोकतंत्र में कतिपय नेताओं द्वारा वक्त-वक्त पर किस प्रकार से जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, पहाड़, मैदान, तुष्टीकरण और नस्लीय वैचारिक विकृति पिरोयी गई, यह राजनैतिक और सामाजिक शोध का विषय है। क्योंकि सिर्फ बहुमत प्राप्ति की गरज से नेताओं ने जिन नीतिगत उलटबांसियों को तवज्जो दी, उससे शांतिपूर्ण और सहिष्णु भारतीय समाज का बहुत बड़ा अहित हुआ है। वहीं, इन बातों का दुष्प्रभाव चुनावी राजनीति पर भी पड़ा है।

सच कहूं तो ऐसे नेताओं की शतरंजी सियासी चालों से न केवल क्षेत्रीयता बल्कि राष्ट्रीयता का भाव भी प्रभावित हुआ है। वहीं, परिवारवाद और सम्पर्कवाद के खेल ने सियासी स्थिति-परिस्थिति को और अधिक जटिल बना दिया है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि एनआरआई बुद्धिजीवी सैम पित्रोदा ने भारतीयता की जो शर्मनाक व्याख्या की है, वह आम चुनाव 2024 को आने वाले दिनों में एक नई दिशा देगी। उनके हालिया बयानों से जो बहस छिड़ेगी, उसका उत्तर देना बिल्कुल आसान नहीं होगा। क्योंकि इससे पहले शायद ही किसी ने विभिन्न रूप रंग वाले भारतीयों को ऐसी उपमा दी हो। जो बेतुकी ही नहीं, बल्कि आपत्तिजनक भी है। इसलिए आशंका है कि गत तीन चरणों के चुनावों में कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन को जो तवज्जो मिली, वह चौथे चरण से प्रभावित भी हो सकता है।

इसे भी पढ़ें: Sam Pitroda के बयान पर भड़के PM Modi, बोले- नस्लवादी मानसिकता को स्वीकार नहीं, शहजादे को देना पड़ेगा जवाब

सैम पित्रोदा के शब्दों में, "हम भारत जैसे विविधता से। भरे देश को एकजूट रख सकते हैं। जहाँ पूर्व के लोग चीनी जैसे लगते हैं, पश्चिम के लोग अरब और उत्तर के लोग गोरों जैसे दिखते हैं, जबकि दक्षिण भारतीय अफ्रीकी जैसे लगते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, हम सब भाई-बहन हैं। भारत में अलग-अलग क्षेत्र के लोगों के रीति-रिवाज, खान-पान, धर्म, भाषा भिन्न हैं, लेकिन भारत के लोग एक दूसरे का सम्मान करते हैं।" इससे पहले उन्होंने कहा है कि, "हम 75 साल से बहुत सुखद माहौल में रह रहे हैं, जहां कुछ लड़ाइयों को छोड़ दें तो लोग साथ रह रहे हैं।" 

देखा जाए तो भारतीयों की पहचान को विदेशी मूल से जोड़कर देखने का सैम पित्रोदा ने जो दुस्साहस किया है, उससे आगबबूला हुई भाजपा ने उनके बेतुके बयान को ही चुनावी मुद्दा बना दिया। पार्टी का आरोप है कि धर्म के आधार पर हुए राष्ट्र विभाजन के पश्चात अब चमड़ी व रंग के आधार पर कांग्रेस देश को बांटने की साजिश रच रही है। समझा जाता है कि उनके बयान के बाद बैक फुट पर दिखाई पड़ी कांग्रेस को राजनैतिक धर्मसंकट से बचाने के लिए उन्होंने इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा स्वीकार कर लिया गया है, जो कि बड़ी बात है। 

वहीं, कांग्रेस ने उनकी टिप्पणियों से खुद को पूरी तरह से अलग कर लिया है, क्योंकि उसका मानना है कि भारत की विविधता को चित्रित करने के लिए एक पॉडकास्ट में पित्रोदा द्वारा दी गई उपमाएं बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और अस्वीकार्य हैं। बता दें कि पिछले दिनों भी सैम पित्रोदा ने भारत में अमेरिका की तर्ज पर विरासत टैक्स की पैरवी कर कांग्रेस की खूब किरकिरी कराई थी। उससे पहले वह यह भी कह गए थे कि अयोध्या में निर्मित राम मंदिर भारत के विचार के विपरीत है। 

यदि पिछले तीनों लोकसभा चुनावों यानी 2014, 2019 और 2024 में कतिपय कांग्रेसी नेताओं के बयानों पर गौर किया जाए तो मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर से लेकर सैम पित्रोदा तक पार्टी नेताओं की ऐसी फेहरिस्त है, जिनके बयानों से पीएम मोदी की सरकार को अकस्मात चुनावी संजीवनी मिली। यही वजह है कि इस बार कांग्रेस नेतृत्व ने समय रहते ही निर्णय ले लिया और पित्रोदा का इस्तीफा स्वीकार कर लिया, ताकि चुनावी डैमेज कंट्रोल किया जा सके। 

मेरा स्पष्ट मानना है कि गोरे अंग्रेजों से लेकर काले अंग्रेजों तक ने कभी बहुमत प्राप्ति की गरज से तो कभी किसी लॉबी को संतुष्ट करने के लिए जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग, पहाड़, मैदान, उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, तुष्टीकरण और नस्लीय आधार पर व्यक्तियों के विभाजन का जो सिलसिला प्रारंभ किया, वह आज तक जारी है। इसके आधार पर हुई गोलबंदी से भारतीय संविधान भी अछूता नहीं बचा और उनके निर्माण से लेकर विभिन्न संशोधनों तक में जो वैचारिक विकृति की बू आती है, वह चुनाव दर चुनाव किसी न किसी त्रासदी को जन्म देती आई है, जिससे बचे जाने की जरूरत है। 

कहना न होगा कि एक भारत और श्रेष्ठ भारत का विचार उत्तम है, लेकिन मौजूदा कानूनी विसंगतियों के उन्मूलन के बिना उसे कतई नहीं पाया जा सकता, यही शाश्वत सत्य है। यह कड़वा सच है कि जब तक भारतीय मतदाताओं को बरगलाने का सिलसिला जारी रहेगा, तबतक सियासी स्थायित्व की कल्पना बेमानी है।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़