राहुल ही नहीं, कोई भी अपनी जाति बताने में शर्मसार क्यों हो
जातिवादी राजनीति का ही नतीजा है कि समाज बंटता जा रहा है। जब नेताओं को देश को जाति की राजनीति से बाहर लाने की कोशिश की जानी चाहिए, तब कुछ दलों और विशेष रूप से कांग्रेस के नेता जाति की राजनीति को तूल देकर समाज में विभाजन और वैमनस्य पैदा करने में लगे हुए हैं।
हिन्दुस्तान की राजनीति में क्या राहुल गांधी होना ही काफी है। वह जो सवाल सबसे पूछते हैं,वही सवाल जब उनसे कोई पूछ लेता है तो इसमें उनकी इनसर्ट कैसे हो जाती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं वह अभी भी मध्यकालीन सामंतवादी सोच से बाहर नहीं निकल पाये हैं। यह सच है कि राहुल ऐसे परिवार से आते हैं जिसने आजादी के बाद दशकों तक सामंतवादी सोच के साथ देश पर राज किया है, जिनकी ताकत इतनी हुआ करती थी कि देश में इनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। इनके एक इशारे पर प्रदेश की सरकारों की तकदीर बनती बिगड़ती थी। मुख्यमंत्री और सरकारें रातोंरात बदल और गिरा दी जाती थीं। इनके द्वारा राजशाही तरीके से देश को आपातकाल में झोंक दिया जाता था,जिनके द्वारा अपने हिसाब से देश की आजादी का इतिहास लिखवाया गया,जिसको चाहा अपमानित किया गया और जिसे चाह सिर आंखों पर बैठा दिया गया। इसी लिये वीर सावरकर जैसे स्वतंत्र सेनानी को यह लोग अपमानित करते हैं।सुभाष चन्द्र बोस को परेशान किया गया।
कांग्रेस आज भी इसी सोच के साथ जी रही है कि जो वह कहें वही पत्थर की लकीर है,उसे कोई काट नहीं सकता है। इससे ज्यादा दुख की बात यह है कि इंडिया गठबंधन के कुछ सहयोगी भी इससे इतिफाक रखते हैं, जिसमें आजकल समाजवादी पार्टी के दूसरी पीढ़ी के नेता पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव का नाम भी भी शीर्ष पर मौजूद है। मुलायम सिंह यादव जो ताउम्र कांगे्रस के खिलाफ लड़ते रहे,आपातकाल में जेल गये,उन्हीं के बेटे अखिलेश यादव तब उतेजित हो जाते हैं जब बीजेपी के नेता राहुल गांधी से उनकी जाति पूछ लेते हैं। वह सदन में चिल्लाने लगते हैं कि राहुल गांधी की जाति कैसे पूछी,जबकि राहुल-अखिलेश की जोड़ी अपनी राजनीति चमकाने के लिये समय-बेसमय किसी की भी जाति पूछकर उसका उपहास उड़ाने या उसके सहारे अपनी राजनीति चमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
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बहुत दिन नहीं हुए, जब यह दोनों नेता लोगों और विशेषकर अधिकारियों एवं मीडिया वालों की जाति पूछते थे, लेकिन जब लोकसभा में बीजेपी के एक नेता ने गोलमोल शब्दों में उनकी जाति पूछ ली तो वह उछल पड़े, जबकि राहुल का नाम लिये बिना बीजेपी के मंत्री अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में तंज कसा था कि जिन्हें अपनी जाति का पता नहीं, वे उसके गणना की मांग कर रहे है। यह बात राहुल और उनकी टीम के सदस्यों को इनती बुरी लगी कि इन्होंने हंगाम खड़ा कर दिया। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के नेता संसद के भीतर और बाहर आपे से बाहर हो गए। इनमें कांग्रेस के वे नेता भी है, जो लोगों की जाति जानने की राहुल गांधी की अपरिपक्त राजनीति को उनका मास्टर स्ट्रोक बताया करते थे। सवाल यही है कि कोई अपरिक्त नेता जब हर तफर घूम-घूमकर सबकी जाति जानने की कोशिश करेगा तो फिर उसे अपनी भी जाति बताने के लिए तैयार रहना चाहिए,जैसा भाजपा नेता अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी की जाति के बारे में पूछा था। राहुल गांधी इस कटाक्ष को अपना अपमान बता रहे है। यह वही राहुल हैं, जो चंद दिन पहले लोकसभा में भाजपा नेताओं को दुर्योधन, शकुनी आदि बताते में लगे हुए थे। इसके पहले वह एक जनसभा में यह कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी तो ओबीसी हैं ही नहीं,जबकि इसके उलट तमाम लोग राहुल गांधी को तो हिन्दू ही नहीं मानते हैं।
यह एक सामान्य बात है कि किसी को भी दूसरों के साथ वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जैसा उसे अपने लिए पसंद न हो,लेकिन राहुल गांधी हों या फिर अन्य कुछ नेता इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। अनुराग ठाकुर के बयान पर संसद में जो हंगामा हुआ, वह केवल राहुल गांधी का अपनी खीझ मिटाने और जनता का इस मुद्दें से ध्यान हटाने के अलावा कुछ नहीं था। यह हास्यास्पद ही है कि अनुराग ठाकुर के बयान का समर्थन करने के कारण कांग्रेस प्रधानमंत्री के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस देने पर विचार ले आई।क्योंकि मोदी ने अनुराग के भाषण वाला वीडियो फारवर्ड कर दिया था। बहरहाल, संसद में आज जाति के नाम पर जो घमासान हो रहा है,उसकी नींव कांग्रेस ने बहुत पहले ही रख दी थी। आजादी के बाद कांग्रेस ही तो थी,जिसने अंग्रेजों के डिवाइड एंड रूल वाले फार्मूले को जिंदा रखा था।
जातिवादी राजनीति का ही नतीजा है कि समाज बंटता जा रहा है। जब नेताओं को देश को जाति की राजनीति से बाहर लाने की कोशिश की जानी चाहिए, तब कुछ दलों और विशेष रूप से कांग्रेस के नेता जाति की राजनीति को तूल देकर समाज में विभाजन और वैमनस्य पैदा करने में लगे हुए हैं। वे यह कहकर जाति की गणना की मांग करने में लगे हुए हैं कि इससे ही समस्त समस्याओं का समाधान होगा और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल होगा। यदि जाति गणना इतनी ही आवश्यक थी तो दशकों का लक्ष्य हासिल होगा। यदि जाति गणना आवश्यक थी तो दशकों तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस ने ऐसा क्यों नहीं किया? प्रश्न यह भी है कि क्या लोगों की जाति जाने बिना उन्हें गरीबी से बाहर निकालने और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के प्रश्न हल करना संभव नहीं? हर कोई इससे अच्छी तरह परिचित है कि जाति की राजनीति ने समाज को विभाजित करने के साथ सामाजिक न्याय की राह में मुश्किल पैदा की है, फिर भी कुछ नेता अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए समाज को जातियों में बांटने में लगे हुए हैं।
जातीय वैमनस्य के रूप में इसके दुष्परिणाम सामने है, लेकिन जातिवादी नेता यह देखने-समझने को तैयार नहीं। हमारे समाज में तो केवल दो ही जातियां होनी चाहिए-अमीर एवं गरीब और उनका ही पता लगाया जाना चाहिए। कांग्रेस हो या फिर समाजवादी पार्टी अथवा राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों के नेता एक तरफ तो वह जातीय जनगणना की बात करते हैं, लेकिन जब मुसलमानों में जातीय मतभेद को लेकर सवाल पूछे जाते हैं तो इनके मुंह पर ताले पड़ जाते हैं। क्योंकि मुसलमानों में जातीय भेदभाव से इनका वोट बैंक बंट जायेगा। राहुल गांधी जैसे अपरिपक्त नेताओं को समझना चाहिए की जातीय भेदभाव करके वह कुछ समय के लिये अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन हमेशा ऐसा होने वाला नहीं है। आम चुनाव में भी यही बात नज़र आई है।
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