संसद में जाति पर जारी सियासी जंग के राजनीतिक मायने को ऐसे समझिए
जातीय या धार्मिक आरक्षण को भी सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे जाने की दरकार है, न कि नकारात्मक तौर पर। क्योंकि गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत में जाति और धर्म को लेकर जितने भी कानून बनाए गए, वो सब अंतर्विरोधाभाषों से भरे पड़े हैं।
वैदिक या सनातन सभ्यता-संस्कृति में जो 'जाति' कार्यकुशल जनसमूह की कार्यदक्षता की निशानी समझी जाती थी और राष्ट्रीय उत्पादकता में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती आई थी, वही जब लोकतांत्रिक या संवैधानिक सभ्यता-संस्कृति में व्यापक विवाद का वाहक बनकर दिन-प्रतिदिन अनुत्पादक प्रतीत होने लगे, तो देश व समाज के प्रबुद्ध लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। इसलिए आज संसद में जाति के सवाल पर भाजपा नीत एनडीए और कांग्रेस नीत इंडिया ब्लॉक के बीच जो सियासी जंग छिड़ी हुई है, उसके पीछे के राजनीतिक मायने को समझने और आमलोगों को समझाने की जरूरत है।
पहला, चूंकि राजनीतिक दलों के लिए जाति अब सामाजिक ध्रुवीकरण का औजार और सियासी गोलबंदी का हथियार बन चुकी है, इसलिए उसे सकारात्मक नजरिए से देखे जाने की जरूरत है, न कि नकारात्मक तरीके से। हां, अब जाति के परिप्रेक्ष्य में वह मुद्दा उठाने की जरूरत है, जिससे राजनीतिक दल और उसके 'चतुरसुजान' नेता अब तक बचते आए हैं। जैसे- साधुओं की जाति, वर्णसंकर लोगों की जाति और अंतरधार्मिक विवाह रचाने वाले लोगों और उनकी संततियों के धर्म का मुद्दा आदि सबसे अहम है।
दूसरा, जातीय या धार्मिक आरक्षण को भी सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे जाने की दरकार है, न कि नकारात्मक तौर पर। क्योंकि गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत में जाति और धर्म को लेकर जितने भी कानून बनाए गए, वो सब अंतर्विरोधाभाषों से भरे पड़े हैं। जिसकी वजह से उनमें स्पष्टता का अभाव तो है ही, लोकतंत्र की मूल भावना स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व भी नदारत है। इस स्थिति के लिए हमारे राजनेता और नौकरशाह दोनों ही जिम्मेदार हैं। लेकिन इस स्थिति को बदलने का साहस किसी भी राजनीतिक दल में नहीं दिखा, जिससे राष्ट्रीय हित और पेशेवर गुणवत्ता गहरे तक प्रभावित होती आई है जिससे वैश्विक मुकाबले में भारत पिछड़ता चला आया।
तीसरा, जाति और धर्म के आधार पर बने कानूनों में व्याप्त विसंगतियों और इससे प्रभावित हो रहे सामान्य जनजीवन के खिलाफ स्वतः संज्ञान न लेकर न्यायविदों ने भी 'कालीदासी विद्वत्ता' का ही परिचय दिया है। जिस देश में वह लोकतांत्रिक न्याय दे रहे हैं, वहीं पर जब कानूनी व न्यायिक प्रावधान व्यक्ति विशेष की स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व की पारस्परिक भावना को मुंह चिढ़ाने लगें, तो समझा जा सकता है कि मत समानता रहने के बावजूद पीड़ित व प्रभावित व्यक्ति कितना असहाय महसूस कर रहा होगा। खास बात यह कि इस देश में जाति और जातीय आरक्षण की जो अवधारणा तय की गई है, सवर्ण-पिछड़ा-दलित-आदिवासी और उनकी गरीबी के अलावा अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के जो मानदंड तय किये गए हैं, वो तार्किक कम, प्रतिशोधी ज्यादा प्रतीत होते हैं। लेकिन क्या मजाल कि कोई इन्हें गलत ठहरा दे या उनमें संशोधन की बात करे। इससे तो यही लगता है कि संविधान निर्माताओं से लेकर संविधान के कथित संरक्षकों और संसद में पिछले लगभग 8 दशक से बैठ रहे अधिकांश माननीयों ने जनतांत्रिक कुएं में पड़ी भांग पी ली है, जिन्हें तर्क और तथ्य से कोई वास्ता नहीं, बस पददलित जनमानस पर निरंतर बिहंसते जा रहे हैं!
चतुर्थ, कुछ यही हाल राष्ट्र में जनमत निर्धारण करने में अमूल्य सहयोग देने वाली समग्र मीडिया इकाइयों और उसके अदूरदर्शी सम्पादकों का भी है, जिन्होंने वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की बजाय पक्षधरता भरी रिपोर्टिंग की और नीर-क्षीर विवेक वाक विद्या को सियासतदानों के मन के मुताबिक जैसे तैसे परिभाषित किया। इससे जहां जनता गफलत में रही, वहीं संवैधानिक सिपहसालार मजे में! परन्तु कोढ़ में खाज यह कि जाति/सम्प्रदाय जैसे जनहित के मुद्दे जहां के तहां मील के पत्थर की तरह यथावत बने रहे। इसलिए हमारे राजनेता अपने मन के मुताबिक इनकी तरह तरह की व्याख्या करने में सफल हो जाते हैं, जिससे राष्ट्रहित प्रभावित होता है।
पांचवां, फिलवक्त भारतीय संसद के निम्न सदन लोकसभा में कांग्रेस सांसद और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए भाजपा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने जातीय जनगणना के मुद्दे पर जो कुछ भी कहा, वह यदि सही नहीं है तो ज्यादा गलत भी नहीं है! लिहाजा, इस मुद्दे पर आधुनिक सोच विकसित करनी चाहिए। साथ ही कतिपय संवैधानिक/कानूनी कमियों को दूर किया जाना चाहिए, ताकि कभी भारतीय समाज को माला की तरह जोड़ने वाली जाति प्रथा आरक्षण उत्प्रेरित सामाजिक टूट की वजह न बन जाये। जैसा कि महसूस किया जा रहा है।इसलिए आरक्षण के आधार को जाति-धर्म-भाषा नहीं बल्कि आर्थिक आधार का किया जाना चाहिए, इसे रोटेशनल बनाकर सबको लाभान्वित किया जाना चाहिए, जो न्यायिक तर्क/वितर्क के मद्देनजर आसान नहीं लगता है।
छठा, उल्लेखनीय कि 30 जुलाई 2024 मंगलवार को अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी पर तंज कसते हुए कहा कि, जिन्हें अपनी जाति के बारे में भी नहीं पता है वो जाति जनगणना की बात करते हैं। यह बात एक हद तक सही भी प्रतीत हो रही है! इसलिए ऐसे लोगों की जाति व धर्म के लिए भारत में स्पष्ट कानूनी प्रावधान तय किए जाने की जरूरत है, जो तर्क और तथ्य की कसौटी पर खरा हो। क्योंकि वैदिक जाति या धर्म की अवधारणा पूरी तरह से वैज्ञानिक है, जिसकी उपेक्षा संवैधानिक भारत में होना आम बात बन चुकी है।
सातवां, राहुल गांधी पर सदन में हमला बोलते हुए अनुराग ठाकुर ने इसके पहले ये भी कहा था कि असत्य के पैर नहीं होते हैं, जिसके चलते ये कांग्रेस के कंधे पर सवारी करता है। जैसे मदारी के कंधे पर बंदर सवारी करता है, वैसे ही राहुल गांधी के कंधे पर असत्य का बंडल होता है। तभी तो अनुराग ठाकुर की इन टिप्पणियों पर सदन में हंगामा बढ़ गया। इसलिए सीधा सवाल है कि अनुराग ठाकुर के इस बयान के बाद सदन में जो जमकर हंगामा शुरू हो गया और कांग्रेस के सांसद वेल में आकर प्रदर्शन करने लगे, वह कितना जायज है? क्या इसे टाला नहीं जा सकता है। यदि जनप्रतिनिधिगण हंगामा करने के बजाय तत्सम्बन्धी कानून बनाने की मांग करें तो ऐसे विरोधाभासों को टाला जा सकता है।
आठवां, संयुक्त विपक्ष हंगामा करने के बजाय उन लोगों की एक अलग जातीय कोटि व धार्मिक कोटि बनाने की मांग करे, जिनके माता-पिता भिन्न-भिन्न जातियों या सम्प्रदायों से है, क्योंकि उनकी संतान वर्णसंकर हुई। चूंकि भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है, इसलिए यहां पिता की जाति या धर्म को स्वीकार करने की परम्परा प्रचलित है, जो तर्क और तथ्य की कसौटी पर पूरी तरह से गलत है। क्योंकि इससे सम्बन्धित जाति/धर्म का मूलगुण दूषित/भ्रमित होता है। इसी तरह से साधुओं की भी एक अलग जाति बनाने की जरूरत है।
नौवां, आप मानें या न मानें, किंतु वैदिक साहित्य में ऐसे लोगों के लिए ही वर्णसंकरता की परिकल्पना मौजूद है, जिसकी चतुराई और उसके संभावित दुष्परिणामों के बारे में वैदिक साहित्य द्वारा पहले ही आगाह किया जा चुका है। हालांकि, तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी लोगों के पास स्वस्थ सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन का अभाव होने के चलते न तो वर्णसंकर लोगों की अलग जाति तय हुई और न ही अंतरधार्मिक शादी-विवाह करने वालों के लिए अलग धर्म तय किया गया। जबकि भारतीय समाज में इन्हें कहीं दोगलवा तो कहीं दुगामिया कहे जाने की परंपरा प्रचलित है, जिसे अबतक कानूनी वर्गीकरण हासिल नहीं है। इसलिए उम्मीद है कि इस बहस के बाद इनका भी कानूनी वर्गीकरण किया जाना चाहिए और ऐसे तमाम लोगों को जातीय आरक्षण से वंचित किया जाना चाहिए या फिर किस कोटि से दिया जाए, उसे स्पष्ट किया जाना चाहिए।
दसवां, सच तो यह है कि संसद के मॉनसून सत्र के दौरान जातीय जनगणना को लेकर अनुराग ठाकुर के बयान पर जो संग्राम मचा हुआ है, वह आगामी विधानसभा चुनावों व यूपी उपचुनाव के दृष्टिगत विपक्ष की एक सुनियोजित सियासी रणनीति है। इन सबके पीछे विपक्षियों की मौके पर चौका लगाने वाली रणनीति काम कर रही है, जिसके चलते 10 साल बाद ही सही पर वह संसद में मजबूत होकर लौटा है। तभी तो संयुक्त विपक्ष ने अनुराग ठाकुर के बयान को लेकर सदन में जमकर बवाल काटा। लोकसभा की कार्यवाही शुरू होते ही विपक्षी सदस्य वेल में आ गए और नारेबाजी शुरू कर दी। विपक्ष के हंगामे के बीच प्रश्नकाल की कार्यवाही जारी रही। विपक्ष के नारों का शोर बढ़ा और विपक्षी सदस्य 'वी वांट कास्ट सेंसस' के पोस्टर जब लहराने लगे, तब स्पीकर ओम बिरला ने उन्हें टोका। हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही भी कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी।
ग्यारहवां, बीजेपी सांसद कांग्रेस पार्टी के सांसदों की हरकत की निंदा करते हुए अनुराग ठाकुर के बयान को सही बता रहे हैं। बीजेपी भी जातीय जनगणना मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर हमलावर है। किरेन रिजिजू ने कांग्रेस पर देश में अराजकता भड़काने का आरोप लगाया। वहीं, भाजपा सांसद अरुण गोविल ने भी राहुल गांधी की समझ पर सवाल उठाया है। मेरठ से भाजपा सांसद अरुण गोविल ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल गांधी के बारे में कुछ भी कहना अजीब सा है। मुझे समझ नहीं आता कि वह बात को किस तरह से लेते हैं, किस तरह से समझते हैं क्योंकि वह बात को कहीं और ले जाते हैं। वह कहना कुछ चाहते हैं लेकिन कहते कुछ और हैं। वहीं, केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने भी अनुराग ठाकुर के बयान को उचित बताते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी ने जो हरकत की है मैं उसकी निंदा करता हूं। कांग्रेस दिन-रात जाति-जाति करती रहती है। कांग्रेस ने जाति पूछ-पूछकर देश को बांटने की साजिश की है और जब सदन में जाति की बात हुई तो राहुल गांधी हंगामा कर रहे हैं। इन लोगों ने देश को कमजोर करने के लिए एक साजिश रची हुई है। ये देश में हिंसा फैलाना चाहते हैं। राहुल गांधी को किसने हक दिया कि वह सबसे जाति के बारे में पूछे और उनसे कोई उनकी जाति के बारे में नहीं पूछ सकता। ये गंभीर मामला है। हम देश को टूटने नहीं देंगे, हम देश को मजबूत बनाने के लिए काम करेंगे।
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बारहवां, उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि जातीय राजनीति अब चुनाव मैदान होते हुए देश की संसद तक पहुंच चुकी है। यूपी में समाजवादी पार्टी के पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक की सफलता ने पूरे देश में ऐसी गोलबंदी को शह देने के रास्ते खोल दिए हैं। इसलिए ऐसी बहस सीधे विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच आमने-सामने हो रही है। जिसकी शुरुआत नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने की, और फिर अनुराग ठाकुर ने मोर्चा संभालकर उसमें तड़का लगा दिया।
ऐसे में पुनः सवाल वही कि जो लोग जाति, जातीय आरक्षण और जातीय जनगणना के पक्षधर हैं, उन्हें समाज के दो प्रमुख आरक्षण वंचित समूह संपन्न सवर्ण और मुसलमान के लिए भी उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि उनकी जातीय सोच कुंठित नहीं हो। इसके अलावा, जातीय आरक्षण को रोटेशनल बनाकर इसे एकल पदों पर भी लागू किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक ही जाति या परिवार के लोगों की बहुतायत सिस्टम में न हो। जैसा कि अभी देखा-सुना जा रहा है। वहीं, जिस व्यक्ति को इसका एक बार लाभ मिल गया, उसे दूसरी बार आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए।
तेरहवां, ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि क्या भाजपा में इस मुद्दे पर होने वाले नफा-नुकसान के बारे में भी किसी ने सोचा है या फिर बीच बहस में कूद पड़े हैं? सवाल यह भी है कि राहुल गांधी और अनुराग ठाकुर में हुई जातीय बहस का फायदा एनडीए को मिलेगा या इंडिया ब्लॉक को, या फिर दोनों को? क्योंकि जातीय सर्वे तो कतिपय राज्यों में पहले से भी होते आये हैं। हां, इनके आंकडे़ भी जारी किये जायें, ऐसा कभी जरूरी नहीं लगा। इसलिए यह मुद्दा भी ठंडे बस्ते में पड़ा रहा। यह बात दीगर है कि लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक मजबूत राजनीतिक आधार मिला, जब नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ सरकार चलाते हुए भी तेजस्वी यादव को साथ लेकर इस दिशा में एक निर्णायक पहल की। ततपश्चात बिहार में जातीय जनगणना कराई गई और विधानसभा में पेश किये जाने के बाद राज्य में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव भी पास किया गया। लेकिन पहले पटना हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी, और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी पटना हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर भी लगा दी। लिहाजा, अब नीतीश कुमार कह रहे हैं कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बिहार के प्रस्ताव को नौंवी अनुसूची में शामिल करने की गुजारिश कर चुके हैं। इससे नौंवीं अनुसूची भी विवादों के घेरे में है। अब यह माना जा रहा है कि कुछ दल और उनके नेता देश पर अपनी मनमानी थोपने के लिए नौंवीं अनुसूची का दुरूपयोग कर रहे हैं, जिससे क्षेत्रीय हित तो सध जाते हैं, किंतु राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ जाती है, जो अनुचित है। इसलिए किसी भी चीज को न्यायिक समीक्षा से परे रखना आत्मघाती है।
चौदहवां, संसद में राहुल गांधी के जातीय जनगणना के जिक्र के बाद से जो ताजा बहस शुरू हुई है, वो कोई नया मामला नहीं है। बल्कि 2023 में संसद के विशेष सत्र में महिला बिल पेश किये जाते वक्त राहुल गांधी ने ओबीसी आरक्षण की मांग उठाई थी और उसके बाद से ही सोशल मीडिया के जरिये जातीय जनगणना की मांग करने लगे। बाद में कांग्रेस की कार्यकारिणी में इसे लेकर एक प्रस्ताव भी पारित किया गया था, जिसके बाद विधानसभा चुनाव के दौरान वो सत्ता में आने पर जातीय जनगणना का वादा भी करते रहे। विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के चुनावी वादे का कोई असर नहीं दिखा, लेकिन लोकसभा चुनाव में विपक्ष को जबरदस्त फायदा हुआ। इसलिए अब उसे आगे भी भुनाने की तैयारी चल रही है। अभी हाल ही में महिला कांग्रेस ने महिला आरक्षण में ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर अपनी आवाज बुलंद की और जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन भी की। जिससे कांग्रेस की चाल समझी जा सकती है। वह पीएम मोदी को उनके ओबीसी मुद्दे पर ही बैकफुट पर ले जाना चाहती है।
पन्द्रहवां, भले ही बिहार में कराये गये कास्ट सर्वे के नतीजे आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को अपनी तरफ से सीधे खारिज करने की कोशिश की थी, और फिर ये भी समझाने की कोशिश की थी कि जातीय जनगणना के पीछे विपक्षी दलों की मंशा क्या है? इसलिए आम बजट 2024 पेश करते वक्त भी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी तब कहा कि अंतरिम बजट का फोकस गरीब, महिलाएं, युवा और किसान रहा है। असल में ये वही चार वर्ग हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने देश की चार प्रमुख जातियों के तौर पर पेश किया था। लेकिन अब जातीय जनगणना पर जो बहस आगे बढ़ रही है, वो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक लड़ाई है, जिसमें विपक्ष की तरफ से बीजेपी को मात देने की कोशिश हो रही है और संसद में अनुराग ठाकुर की प्रतिक्रिया से तो नहीं लगता कि बीजेपी इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है।
सोलहवां, सवाल है कि क्या किसी ने किसी की जाति पूछी थी? क्योंकि सोशल मीडिया पर जो बहस चल रही है, क्या संसद में भी वही बात हुई थी? सोशल मीडिया पर जाति के नाम पर सवाल हो रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का एक पुराना वीडियो भी फिर से चल पड़ा है, जिसमें वो एक पत्रकार से सरनेम बताकर जाति की तरफ इशारा कर रहे हैं। वहीं, संसद में भी राहुल गांधी की तरफ से खड़े होकर अखिलेश यादव ने ही सवाल किया था कि आप किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं? दरअसल, पुराने वीडियो के जरिये लोग अखिलेश यादव को ही आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन सवाल फिर वही कि क्या संसद में किसी ने किसी की जाति पूछी थी? अगर हां, तो किसने और किससे उसकी जाति पूछी थी? अलबत्ता, अनुराग ठाकुर के इस कटाक्ष पर राहुल गांधी ने बीजेपी सांसद पर खुद को अपमानित करने का आरोप लगाया, लेकिन लगे हाथ ये भी बोल दिया कि वो अनुराग ठाकुर से माफी मंगवाना नहीं चाहते। क्योंकि वो एक लड़ाई लड़ रहे हैं। अपनी तरफ से समझाया भी कि वो दबे-कुचले और वंचित तबके की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन अखिलेश यादव ने खड़े होकर राहुल गांधी का बचाव करते हुए बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर पर भड़क गये और हमला बोल दिया। अखिलेश यादव कहने लगे, आप किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं?
सत्रहवां, असल में राहुल गांधी कई बार केंद्र सरकार में तैनात अधिकारियों की जाति को मुद्दा बनाने की कोशिश करते रहे हैं। ऐसा इसलिए कि जब कांग्रेस सत्ता में रही तो तत्कालीन विपक्ष में रहे समाजवादियों और भाजपाइयों ने भी उसे जाति के मुद्दे पर ही घेरते आये थे। इसलिए संसद में महिला आरक्षण बिल लाये जाने के दौरान राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि केंद्र सरकार में 90 सचिवों में से सिर्फ 3 ही ओबीसी वर्ग के हैं। और अब ठीक वैसे ही बजट के हलवा की तस्वीर दिखाते हुए भी राहुल गांधी ने दावा किया था कि 20 अधिकारियों ने देश का बजट बनाया, लेकिन उनमें से सिर्फ एक अल्पसंख्यक एवं एक ओबीसी है, और उनमें एक भी दलित और आदिवासी नहीं है। ऐसा कहते हुए नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी यह जताना चाह रहे हैं कि सरकार में 2-3 फीसदी लोग ही हलवा तैयार कर रहे हैं, उतने ही लोग हलवा खा रहे हैं, और शेष भारत को ये नहीं मिल रहा है। जिसको दिलवाने का बीड़ा उन्होंने उठाया है।
अठारहवां, अब सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बीजेपी कांग्रेस के जाल में फंसने लगी है? जवाब होगा, हां! बेशक बीजेपी की तरफ से लगातार जवाब दिया जा रहा है, लेकिन मुश्किल ये है कि एजेंडा कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष सेट कर रहा है और बीजेपी को प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि ये पूरा कास्ट नैरेटिव बीजेपी की राजनीति के खिलाफ जा रहा है। तो पुनः सवाल वही कि आखिर बीजेपी क्यों कांग्रेस के जातीय विमर्श के जंजाल में फंसती चली जा रही है? क्योंकि बीजेपी की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो हमेशा ही ऐसी चीजों के खिलाफ रहा है। कहां संघ हिंदुओं के बीच एक कुआं, एक श्मशान और एक मंदिर की मुहिम चलाता है और कहां बीजेपी नेता बिना मतलब जातीय जनगणना की बहस में उलझे चले जा रहे हैं।
उन्नीसवां, सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस अपने मिशन में सफल हो रही है? क्योंकि जम्मू-कश्मीर के चुनावी मुद्दे अलग करके देखें तो इसी साल महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, जिन्हें हर हाल में जीतना बीजेपी के लिए बेहद जरूरी है, ताकि वो लोकसभा चुनाव के अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन की भरपाई कर सके और उसके साथ ही उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव भी होने जा रहे हैं। लिहाजा राहुल गांधी की तरफ से जातीय राजनीति को जिस तरीके से मुद्दा बनाया जा रहा है और अखिलेश यादव व तेजस्वी यादव का उन्हें साथ मिल रहा है, उससे साफ है कि ये सब यूपी के उपचुनावों के अलावा आगामी महीनों में 4 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रख कर किया जा रहा है।
बहरहाल, यह तो मालूम नहीं कि बीजेपी के रणनीतिकार इस बात को कितना समझ पा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी जातीय राजनीति में हद से ज्यादा फायदा देख रहे हैं। पहला फायदा यह है कि राहुल गांधी बड़े आराम से बीजेपी को भरी संसद में घेर रहे हैं। दूसरा फायदा यह कि जातीय राजनीति के बहाने समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे राजनीतिक दलों का कांग्रेस को मजबूत सपोर्ट मिल रहा है। तीसरा फायदा यह कि ऐसा नैरेटिव सेट करके राहुल गांधी पिछड़े वर्ग के लोगों के दिल में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि कांग्रेस से मुंह मोड़ चुके ओबीसी व दलित तबके को फिर से पार्टी से जोड़ा जा सके।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
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