Lok Sabha Elections 2024: उत्तर प्रदेश की राजनीति में 'फरसा' फिर से तैयार है
देखा जाए तो मंडल कमीशन के बाद से यूपी में दलित-ओबीसी राजनीति ने जोर पकड़ा और उसके बाद से अब तक कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बन पाया लेकिन मतदाता के तौर पर इस जाति ने 90 के दशक के दौरान शुरुआती झटकों से उबरते हुए पुराना रसूख फिर से हासिल कर लिया है।
उत्तर प्रदेश को देश की राजनीति का केंद्र बिंदु माना जाता है। यहाँ की सियासत का सीधा असर केंद्र में देखने को मिलता है। गौरतलाब बात ये है कि देश को प्रभावित करने वाली उत्तर प्रदेश कि राजनीति में में ब्राह्मण वोटर्स की संख्या भले ही तकरीबन 12 फीसदी है लेकिन यह वर्ग प्रदेश की राजनीति को जबरदस्त प्रभावित करने की क्षमता रखता है। विधानसभा में करीब 115 सीटें ऐसी हैं, जिनमें ब्राह्मण मतदाताओं का अच्छा प्रभाव है। आश्चर्यजनक बात ये रही कि ऐसे समय जब लोकसभा चुनाव 2024 की तारीखों का ऐलान हो चुका है उस समय भी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के मिज़ाज और समीकरण पर कोई बात नहीं हो रही थी। एक तरफ जहाँ भाजपा और इंडी गठबंधन दोनों में ओबीसी वोट की लड़ाई दिख रही थी तो दूसरी तरफ मायावती डीएम यानी दलित मुस्लिम समीकरण के भरोसे ही हैं। ऐसा उस राज्य में हो रहा है जहां 6 बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे हैं और 2022 के विधान सभा चुनाव में 52 ब्राह्मण विधायक बने थे।
देखा जाए तो मंडल कमीशन के बाद से यूपी में दलित-ओबीसी राजनीति ने जोर पकड़ा और उसके बाद से अब तक कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बन पाया लेकिन मतदाता के तौर पर इस जाति ने 90 के दशक के दौरान शुरुआती झटकों से उबरते हुए पुराना रसूख फिर से हासिल कर लिया है। यही कारण है कि मनुवाद का सीधा विरोध करने और मंडल कमीशन के बाद बदले सियासी माहौल में सत्ता पर काबिज होने वाली सपा और बसपा भी बाद में ब्राह्मण वोट बैंक को आकर्षित करने की रणनीति बनाने लगे।
इसे भी पढ़ें: सीएए पर भ्रम फैलाने की राजनीति करने में क्यों जुटा हुआ है विपक्ष?
ब्राह्मण राजनीति का शोर नेपथ्य में जा ही रहा था कि इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार में लोक निर्माण विभाग मंत्री जितिन प्रसाद ने एक बार फिर ब्राह्मण स्वाभिमान और सम्मान को चर्चाओं में ला दिया है। शाहजहांपुर के जलालाबाद में भगवान परशुराम की प्रतिमा पर माला पहनाते हुए उन्होंने एक तस्वीर एक्स पर पोस्ट करते हुए लिखा कि जनता की आस्था का सम्मान करते हुए भगवान परशुराम की जन्मस्थली जलालाबाद के सौंदर्यीकरण और विकास के लिए सरकार ने वित्तीय और प्रशासकीय स्वीकृति दे दी है।
सियासत में कम शब्दों में संदेश कह देने की कला महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए जो इसमें माहिर है वह राजनीति के दांव पेंच में भी माहिर माना जाता है। ब्राह्मण स्वाभिमान के मुद्दे पर जितिन प्रसाद पिछले कुछ सालों में बेहद मुखर रहे, इन्होंने ब्राह्मणों के लिए संगठन बनाया और पूरे प्रदेश में घूम घूम कर ब्राह्मणों को एकजुट करने का अभियान चलाया। जितिन प्रसाद जब भाजपा में आए तब भी ये बात उठी थी कि जिस प्रकार ब्राह्मणों की नाराजगी को जितिन प्रसाद ने राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था वो उनके भाजपा में शामिल होने के बाद राजनीतिक रुप से भाजपा के पक्ष में हो गई है। जितिन आज जिस कुर्सी पर हैं उस पर कभी नसीमुद्दीन सिद्दीकी और शिवपाल सिंह यादव जैसे दिग्गज रहे हैं। दोनों अपने अपने दलों में तो मजबूत रहे ही साथ ही अपनी जाति के लोगों के बीच नायक वाली छवि के साथ रहे और अब शायद जितिन भी धीरे धीरे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समाज के बीच लगातार जाकर खुद को उसी नायक के रुप में स्थापित कर रहे हैं।
ऐसे समय जब प्रबुद्ध सभा के सम्मेलनों तक की चर्चा नहीं हो रही थी उस वक्त भगवान परशुराम की प्रतिमा के साथ जतिन प्रसाद की तस्वीर ने उत्तर प्रदेश में तमाम नेताओं को असमंजस में डाल दिया है। यह देखना अब दिलचस्प रहेगा कि ब्राह्मण वोट किस प्रकार चुनावी समीकरण को प्रभावित करते हैं या सिर्फ कुछ जिलों तक ही यह प्रभाव सिमट कर रह जाएगा। परिणाम जो भी हो परंतु यदि जितिन अपनी पूरी ताकत से ब्राह्मण वर्ग को साथ लाने में प्रयासरत हो जाएंगे तो उत्तरप्रदेश में इस बार का चुनाव वाकई इतिहास रचने वाला होगा।
- डॉ. ऋतु दुबे तिवारी
मीडिया शिक्षाविद्
गाजियाबाद
अन्य न्यूज़