साख बचाने के लिए एकनाथ शिंदे ने लिया वक्त, अब शिवसेना को बचाने की है बड़ी चुनौती
एकनाथ शिंदे को इस बात का भी अहसास बखूबी हो गया था कि अगर यह बात महाराष्ट्र की जनता और शिवसैनिकों के मन में घर कर गई तो उनकी पार्टी टूट भी सकती है। विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद उद्धव ठाकरे इसी तरह के मौके की तलाश में है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाडले और नागपुर से ही आने वाले देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश और असम के मुख्यमंत्री सहित एनडीए शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में एक भव्य समारोह में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर फडणवीस ने इस तथ्य को अब पूरी तरह से स्थापित कर दिया है कि भाजपा राज्य में बड़े भाई की भूमिका में ही रहेगी।
मशहूर उद्योगपत्तियों और शाहरुख खान, सलमान खान और संजय दत्त सहित अनगिनत फिल्मों सितारों की मौजूदगी में शानदार और भव्य अंदाज में शपथ लेकर देवेंद्र फडणवीस ने यह संदेश भी दे दिया कि देश का ताकतवर तबका उनके साथ है और वह भविष्य में बड़ी भूमिका निभाने को तैयार है।
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लेकिन इस सबके बीच शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के रूठने-मनाने के खेल को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे है। अब यह पूछा जा रहा है कि क्या वाकई एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से इतने नाराज हो गए थे कि बैठक छोड़कर अपने गांव चले गए ? महाराष्ट्र विधानसभा के नंबर और भाजपा के सीटों की संख्या पता होने के बावजूद क्या वाकई शिंदे यह मान कर चल रहे थे कि भाजपा पिछली बार की तरह इस बार भी उन्हें मुख्यमंत्री बना देगी ? या इसके पीछे कहानी कुछ और ही है ?
दरअसल, नाराजगी का यह प्रदर्शन करना एकनाथ शिंदे की चाहत और इच्छा से कहीं ज्यादा उनकी मजबूरी बन गई थी। दरअसल, शिवसेना को तोड़ कर भाजपा के साथ आते समय एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे पर इसी तरह के आरोप लगाए थे कि वह दिल्ली दरबार के आगे झुक गए हैं और बालासाहेब ठाकरे की विरासत का अपमान कर रहे हैं। लेकिन इस बार वही स्थिति शिंदे साहब की खुद की बन गई थी। महाराष्ट्र की जनता में और खासकर शिवसैनिकों में यह संदेश जा रहा था कि एकनाथ शिंदे भी दिल्ली दरबार के आगे झुक गए हैं, बालासाहेब ठाकरे की विरासत का अपमान कर रहे हैं और उद्धव ठाकरे की तरह ही अपने बेटे को आगे कर परिवारवाद की राजनीति कर रहे हैं।
एकनाथ शिंदे को इस बात का भी अहसास बखूबी हो गया था कि अगर यह बात महाराष्ट्र की जनता और शिवसैनिकों के मन में घर कर गई तो उनकी पार्टी टूट भी सकती है। विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद उद्धव ठाकरे इसी तरह के मौके की तलाश में है।
शिवसेना को बचाने और अपने साख की रक्षा करने के लिए एकनाथ शिंदे ने नाराजगी वाले भारतीय राजनीति के उसी पुराने दांव को एक बार फिर से खेल दिया। इससे जनता में यह संदेश भी चला गया कि एकनाथ शिंदे ने बहादुरी के साथ दिल्ली दरबार से लड़ाई की, दिलेरी के साथ अमित शाह के सामने अपनी शर्तें रखी लेकिन शिवसैनिकों के मनाने के बाद महाराष्ट्र की जनता के हित मे बड़ा त्याग करते हुए मुख्यमंत्री की बजाय उपमुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया।
हालांकि फडणवीस सरकार में उपमुख्यमंत्री बनने के बाद भी एकनाथ शिंदे के सामने शिवसेना को बचाने की चुनौती बनी ही रहेगी। उद्धव ठाकरे या उनके बेटे आदित्य ठाकरे अगर मैदान में उतर कर आक्रामक राजनीति करने लगते हैं तो फिर उस स्थिति में एकनाथ शिंदे, उनके बेटे श्रीकांत शिंदे और शिवसेना के बड़े नेताओं को भी सामने आकर खुल कर बयानबाजी करनी ही होगी। हालांकि संख्या बल के कारण महायुति गठबंधन सरकार की स्थिरता पर इन बयानबाजियों की वजह से कोई फर्क तो नहीं पड़ेगा लेकिन हर बार एकनाथ शिंदे की इज्जत बचाने के लिए देवेंद्र फडणवीस को उनके घर जाना पड़ सकता है।
- संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)
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