यदि पंजाब सरकार 'वारिस पंजाब दे' संगठन से नहीं निबट पा रही है तो केंद्र को दखल देना चाहिए
फिलहाल ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन का पंजाब में बड़ा जनाधार नहीं है, पर इसके जरिए आग लगाने का जो खेल खेला जा रहा है, उसे तुरंत रोकने की जरूरत है। पंजाब सरकार यदि सख्त कदम उठाने से परहेज करती है तो केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।
एक बार फिर पंजाब अशांति, हिंसा एवं आतंकवाद की ओर बढ़ रहा है। राज्य में कानून-व्यवस्था ढह चुकी है और अराजकता हावी है। समूचा प्रशासन मूकदर्शक बनकर असामान्य होती स्थितियों को देख रहा है। खालिस्तान समर्थक उग्र होते जा रहे हैं। पुलिस और शासन-व्यवस्था एकदम लाचार बनी उपद्रवियों के सामने समर्पण करती हुई दिखाई दे रही है। ऐसे जटिल-से-जटिल हालातों में आम जनता अपनी सुरक्षा की उम्मीद किससे करेगी! यह छिपा तथ्य नहीं है कि पंजाब में जब से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तब से कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर कई बार ऐसे हालात देखे गये हैं, मानो आपराधिक तत्त्वों को बेलगाम होने का मौका मिल गया हो या यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत राज्य में अशांति, आतंक एवं अराजकता को पनपने दिया जा रहा है। जबकि चुनावों के दौरान आप पार्टी ने राज्य की जनता से कानून-व्यवस्था को पूरी तरह दुरुस्त करने से लेकर नशामुक्ति जैसे कई बड़े वादे किए थे। कितना आसान है यह कह देना कि पंजाब में अशांति फैलाने के लिये पड़ोसी देश आर्थिक मदद कर रहा है? प्रश्न है कि जो देश आर्थिक कंगाली से जूझ रहा है, वह भला क्या हिंसा एवं आतंक फैलाने के लिये भारी-भरकम आर्थिक मदद देगा? यह आप-सरकार का अपनी जिम्मेदारियों से पला झाड़ देने का सबसे आसान तरीका है।
पंजाब के दिनों दिन बिगड़ते हालातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है वहां आप सरकार पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है। आप सरकार की नाकामयाबियां इसी तरह हावी रहीं तो पंजाब में अतीत के आतंकवादी दौर को लौटने में देर नहीं लगेगी। वे अस्सी एवं नब्बे के दशक के खूनी मंजर के दिन आज भी बहुत सारे लोग भूल नहीं सके होंगे और कोई नहीं चाहेगा कि वह त्रासदी फिर से खड़ी हो। लेकिन सरकार और पुलिस-प्रशासन का रवैया अगर बेहद सुचिंतित, परिपक्व और सावधानी से भरा नहीं रहा तो आने वाले वक्त में छोटी-छोटी घटनाएं कैसा मोड़ लेंगी, कहा नहीं जा सकता! एक नया खौफनाक, डरावना एवं दहशतभरा काला पृष्ठ लिखा जायेगा। इसकी झलक पंजाब में अमृतसर के अजनाला के पुलिस थाने में गुरुवार को देखने को मिली, वहां जैसे हालात बने थे, उससे एकबारगी यही प्रतीत हुआ। नये बनते हालातों को देखते हुए यह कहा जा रहा है कि ऐसी अप्रत्याशित एवं त्रासद स्थिति कहीं भी घटित हो सकती है।
दरअसल, वहां पुलिस ने लवप्रीत सिंह नाम के व्यक्ति को अपहरण समेत कई अन्य आरोपों में गिरफ्तार किया गया था। लवप्रीत सिंह को वहां एक कट्टरतावादी सिख संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह का करीबी माना जाता है, जो उसे रिहा कराने के मकसद से हजारों समर्थकों के साथ अजनाला थाने पर पहुंच गया था। भीड़ में कई लोग बंदूक और तलवार से भी लैस थे। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि भीड़ के तेवर और दबाव के सामने वहां मौजूद पुलिसकर्मी लाचार दिखे। यों प्रदर्शनकारियों से सीधे हिंसक तरीके से ही निपटना कोई बेहतर विकल्प नहीं माना जाता है, लेकिन एक तरह से समूचे प्रशासन का मूकदर्शक रहना एक विचित्र स्थिति थी। हैरानी की बात यह है कि अजनाला थाने का घेराव दिखने में अचानक हुई घटना लगती है, मगर सच यह है कि इसकी पृष्ठभूमि कई दिनों से तैयार हो रही थी और शायद पुलिस ने सुचिंतित तरीके से इस मामले से निपटने के लिए समय रहते कदम नहीं उठाए। सवाल है कि क्या अपने एक व्यापक तंत्र के बावजूद वहां की पुलिस को कट्टरतावादी संगठन के मुद्दे, उनके काम करने के तरीके और उसके संरक्षकों की प्रतिक्रिया का अंदाजा नहीं था? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पंजाब देश का सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य है। ऐसे में मामूली कोताही की वजह से भी कोई साधारण समस्या भी जटिल शक्ल अख्तियार कर सकती है।
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अजनाला पुलिस थाने पर बंदूकों और तलवारों से लैस भीड़ के हमले ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि हमलावर भीड़ ने सिखों के पवित्र ग्रंथ का ‘ढाल’ के रूप में इस्तेमाल किया। एक वाहन में गुरु ग्रंथ साहिब के ‘सरूप’ (प्रति) को थाने ले जाया गया, ताकि पुलिस कोई कार्रवाई न कर सके। पुलिस के हाथ बांधने एवं उसे विवश करने का यह खतरनाक खेल खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह की अगुवाई में खेला गया। अगर किसी संवेदनशील मामले में पुलिस ने इस संगठन के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया भी था, तो क्या इससे पहले पूरी तैयारी जरूरी नहीं थी? आखिर क्या वजह है कि थाने पर हमले के बाद पैदा हुई स्थिति में पुलिस को अपना रुख नरम करना पड़ा? लवप्रीत सिंह की गिरफ्तारी के आधार कितने मजबूत थे कि अजनाला की एक अदालत ने उसे रिहा करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया? अगर महज उसके समर्थकों के प्रदर्शन के दबाव में आकर पुलिस ने अपने कदम पीछे खींचे तो इसे कानून-व्यवस्था के लिहाज से कैसे देखा जाएगा?
फिलहाल ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन का पंजाब में बड़ा जनाधार नहीं है, पर इसके जरिए आग लगाने का जो खेल खेला जा रहा है, उसे तुरंत रोकने की जरूरत है। पंजाब सरकार यदि सख्त कदम उठाने से परहेज करती है तो केंद्र सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि पंजाब में उन्माद का वैसा माहौल फिर तैयार न हो, जिसके दंश हम अस्सी के दशक में झेल चुके हैं। उस समय भिंडरावाले का नाम आया था, लेकिन सबूतों के अभाव में उस पर हाथ नहीं डाला जा सका। तब तक उसकी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जड़ें मजबूत हो चुकी थीं। धार्मिक स्थल अपराधियों के आश्रय स्थल बन गए थे। स्वर्ण मंदिर को आतंकवादियों से मुक्त कराने के लिए आपरेशन ब्लूस्टार हुआ, जिसमें 83 जवान शहीद हुए और जनरैल सिंह भिंडरावाले समेत 493 खालिस्तानी आतंकवादी मारे गए थे। आपरेशन ब्लूस्टार के 4 महीने बाद 31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने कर दी। आतंकवाद के चलते एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री को हमने खो दिया और उनकी हत्या के बाद देशभर में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे। खालिस्तानी आन्दोलन का यहीं अंत नहीं हुआ। अगस्त 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ पंजाब समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले शिरोमणि अकाली दल के नेता हरचरण सिंह लोगोंवाल की नृशंस हत्या कर दी गई। 23 जून, 1985 को एयर इंडिया के कनिष्क विमान को बम धमाके से उड़ा दिया गया, जिसमें 329 यात्री मारे गए थे। 10 अगस्त, 1986 को पूर्व आर्मी चीफ जनरल ए.एस. वैद्य की दो बाइक सवार आतंकवादियों ने हत्या कर दी, क्योंकि वैद्य ने ही आपरेशन ब्लूस्टार का नेतृत्व किया था।
पंजाब के इस काले दौर के दौरान बसों और ट्रेनों से निकाल कर एक ही समुदाय के लोगों की हत्या की गई। 31 अगस्त, 1995 को पंजाब सिविल सचिवालय के पास हुए बम धमाके में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या कर दी गई। मैं स्वयं शिरोमणि अकाली दल के नेता हरचरण सिंह लोगोंवाल एवं सुरजीत सिंह बरनाला को राजस्थान के आमेट ग्राम में जैन आचार्य तुलसी द्वारा शांति प्रयासों एवं पंजाब समझौते के लिये तत्पर होने के लिये प्रेरित करने की घटनाओं का साक्षी बना, संत लोगांवाल एवं सुरजीत सिंह बरनाला दो दिन की बैठकों के बाद पंजाब समझौते के लिये तैयार हुए थे एवं पंजाब समझौते पर हस्ताक्षर किये। ऐसे अनेक व्यापक प्रयत्नों का असर हुआ। इसके बाद आतंकवाद के खिलाफ की गई सख्त कार्रवाई के चलते खालिस्तानी आन्दोलन कमजोर होता गया। अधिकांश सिखों ने इस विचारधारा को अस्वीकार कर दिया। आतंकवाद की काली आंधी ने लगभग सभी दलों के राजनीतिक नेताओं को निशाना बनाया। इनदिनों एक बार फिर पंजाब के मामले इसलिए भी गंभीर हैं कि पाकिस्तान की सीमा से लगे पंजाब में पिछले कुछ समय से खालिस्तान समर्थकों की हरकतें फिर बढ़ रही हैं। विदेश में लम्बे समय रहने के बाद पंजाब लौटने के बाद अमृतपाल सिंह ‘वारिस पंजाब दे’ नाम के संगठन की कमान संभाल रहा है और खालिस्तान समर्थकों को इस संगठन की छतरी के नीचे लाने की कोशिशों में जुटा है। यह संगठन दीप सिद्धू ने बनाया था, जिसे किसान आंदोलन के दौरान लाल किले की घटना के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। पिछले साल सड़क हादसे में उसकी मौत हो गई थी। क्या आप सरकार एक बार फिर वही हिंसक, आतंकवादी दौर हावी होने दे रही है? क्यों खालिस्तानी स्वर उभर रहे हैं या राजनीतिक स्वार्थों के चलते उन्हें षडयंत्रपूर्वक उभारा जा रहा है? जो भी हो, हालात गंभीर है।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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