नारी सशक्तिकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम है तीन तलाक से मुक्ति दिलाना
तुष्टीकरण के चलते जो न्याय पिछली सरकारें शाहबानो को नहीं दे पायीं थीं, वह चिरप्रतीक्षित न्याय वर्तमान सरकार ने शाहबानो के हवाले से मुस्लिम महिलाओं को दिलाया और उन्हें तीन तलाक से पूरी तरह मुक्ति दिला दी।
30 जुलाई 2019 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया। तीन तलाक विधेयक को राज्य सभा ने अपनी मंजूरी दे दी। लोक सभा से इस बिल को पहले ही मंजूरी मिल गयी थी। लगभग 34 साल के अंतराल के बाद मोदी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिला दिया। सचमुच, यह महिला सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया एक अभूतपूर्व कदम है। तुष्टीकरण के चलते जो न्याय पिछली सरकारें शाहबानो को नहीं दे पायीं थीं, वह चिरप्रतीक्षित न्याय वर्तमान सरकार ने शाहबानो के हवाले से मुस्लिम महिलाओं को दिलाया।
मेरी उम्र वाले शाहबानो के केस के बारे में जानते ही होंगे, मगर नई पीढ़ी को शायद इस केस के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी। अपनी किस्म का यह वाहिद ऐसा केस है जहाँ सत्तापक्ष ने उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय को संविधान-संशोधन द्वारा चुटकियों में बदलवा दिया। नारी की अस्मिता, आत्म-निर्भरता, स्वतंत्रता और सशक्तिकरण का दम भरने वाले राजपक्ष ने कैसे वोटों की खातिर(राजनीतिक लाभ के लिए) देश की सबसे बड़ी अदालत को नीचा दिखाया, यह इस प्रकरण से जुड़ी बातों से स्पष्ट होता है। बात कांग्रेस के शासन की है जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री हुआ करते थे।
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हुआ यूँ था कि शाहबानो नाम की एक मुस्लिम औरत को उसके शौहर ने 3 बार ‘तलाक़’ ‘तलाक़’ ‘तलाक़’ कहके उससे पिंड छुड़ा लिया था। शाहबानो ने अपने मियाँ जी को घसीट लिया कोर्ट में। ऐसे कैसे तलाक़ दोगे ? खर्चा-वर्चा दो। गुज़ारा भत्ता दो। मियाँजी बोले काहे का खर्चा ? शरीयत में जो लिखा है उस हिसाब से ये लो 100 रु० मेहर की रकम के और चलती बनो। शाहबानो बोली ठहर तुझे मैं अभी बताती हूँ और बीबी यानी शाहबानो कोर्ट में चली गयी। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक चला गया और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो के हक़ में फैसला सुनाते हुए उनके शौहर को हुक्म दिया कि अपनी बीवी को वे गुज़ारा भत्ता दें। यह सचमुच एक ऐतिहासिक और ज़ोरदार फैसला था।
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भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने सीधे-सीधे इस्लामिक शरीयत के खिलाफ एक मज़लूम औरत के हक़ में फैसला सुनाया था। देखते-ही-देखते पूरे इस्लामिक जगत में हड़कंप मच गया। भारत की न्याय व्यवस्था ने शरियत को चुनौती दी थी। उस समय की सरकार के प्रधानमंत्री राजीव गांधी मुस्लिम नेताओं और कठमुल्लाओं के दबाव में आ गए और उन्होंने फटाफट अपने प्रचंड बहुमत के बल पर संविधान में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटवा दिया और कानून बना कर मुस्लिम औरतों का हक़ मारते हुए मुस्लिम शरीयत में न्यायपालिका के हस्तक्षेप को रोक दिया। बेचारी शाहबानो को कोई गुज़ारा भत्ता नहीं मिला।
-डॉ. शिबन कृष्ण रैणा
(पूर्व सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, विधि एवं न्याय मंत्रालय, भारत सरकार)
(पूर्व अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला तथा पूर्व वरिष्ठ अध्येता (हिंदी) संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार)
(सदस्य, 'पनुन कश्मीर' की मानवाधिकार समिति-संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार परिषद हेतु)
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