खामोश हो गई वंचितों, दलितों, किसानों और आदिवासियों की आवाज

Sitaram Yechury
ANI

सीताराम येचुरी 1970 के दशक में इमरजेंसी के दौरान JNU में छात्र नेता के रूप में उभरे। वे छात्र संगठन एसएफआई के अध्यक्ष बने और 1975 में इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार भी हुए। येचुरी का राजनीतिक जीवन इस कठिन दौर में आकार लिया, जिसने उन्हें जनसरोकारों और वामपंथी राजनीति की गहरी समझ दी।

सीताराम येचुरी नहीं रहे। उनका निधन 72 वर्ष की आयु में हो गया। भारत में किसानों, आदिवासियों, भूमिहीनों, युवाओं, और श्रमिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला आवाज खामोश हो गया। येचुरी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPI-M) के महासचिव तो थे ही। ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसी वाम विभूतियों के बाद येचुरी भारतीय वामपंथी आंदोलन के निर्विवाद स्तंभ के रूप में उभरे। संसद में येचुरी की पहचान एक प्रभावशाली और जोशीले वक्ता के साथ एक तेज-तर्रार और बेहतरीन तर्कशास्त्री की थी, जिनका सभी दलों के नेता सम्मान करते थे। संवैधानिक और राजनीतिक मामलों पर उनकी पकड़ ने उन्हें सत्तापक्ष के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रतिद्वंदी बना दिया था। सरकार की जवाबदेही को लेकर स्पष्टता, विश्वास और लोकतंत्र के प्रति गहरी जिम्मेदारी से भरे उनके सवाल संसद में सत्ता पक्ष के लिए चुनौती पेश करते थे। 

उन्होंने अपने जीवन में वामपंथी आंदोलन को नए आयाम दिए और भारतीय राजनीति में अपनी खास पहचान बनाई। उनकी मृत्यु न केवल CPI(M) बल्कि पूरे भारतीय वामपंथ के लिए एक अपूरणीय क्षति है। येचुरी के निधन के साथ भारतीय राजनीति के एक युग का अंत हो गया, जिसने दशकों तक समाजवाद, समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में कार्य किया।

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सीताराम येचुरी का जन्म 12 अगस्त 1952 को मद्रास (अब चेन्नई) में एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता सर्वेश्वर सोमयाजुला येचुरी एक इंजीनियर थे और मां कल्पकम येचुरी एक सरकारी अधिकारी थीं। येचुरी ने नई दिल्ली के प्रेसिडेंट्स एस्टेट स्कूल से सीबीएसई बोर्ड की उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में अखिल भारतीय प्रथम रैंक प्राप्त की और सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से अर्थशास्त्र में बी.ए. (ऑनर्स) की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने JNU से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया, जहां उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई।

येचुरी 1970 के दशक में इमरजेंसी के दौरान JNU में छात्र नेता के रूप में उभरे। वे छात्र संगठन एसएफआई के अध्यक्ष बने और 1975 में इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार भी हुए। येचुरी का राजनीतिक जीवन इस कठिन दौर में आकार लिया, जिसने उन्हें जनसरोकारों और वामपंथी राजनीति की गहरी समझ दी।

प्रमुख उपलब्धियां

सीताराम येचुरी ने भारतीय वामपंथी आंदोलन और भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उनकी प्रमुख उपलब्धियां इस प्रकार हैं:

CPI(M) के महासचिव के रूप में नेतृत्व: 2015 में CPI(M) के महासचिव बने, जहां उन्होंने पार्टी के भीतर और बाहर अनेक चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना किया। येचुरी ने अपने नेतृत्व में पार्टी की विचारधारा को बनाए रखने और जनसंवाद बढ़ाने का प्रयास किया।

समाजवाद और वामपंथी राजनीति का मुखर समर्थन: उन्होंने हमेशा से वामपंथी विचारधारा को मजबूती से थामा और समाजवाद, समानता और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लगातार जोर दिया। येचुरी ने श्रमिकों, किसानों, आदिवासियों और समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठाई।

लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष: येचुरी ने भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि माना और इमरजेंसी के समय से लेकर अपने पूरे जीवन में इन मूल्यों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने संसद के भीतर और बाहर जनतांत्रिक प्रक्रिया की रक्षा के लिए हमेशा आवाज उठाई।

अंतरराष्ट्रीय वामपंथी आंदोलन में योगदान: सीताराम येचुरी ने न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वामपंथी आंदोलन को नई ऊंचाइयां दीं। वे कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय वामपंथ का प्रतिनिधित्व करते रहे और वैश्विक स्तर पर समाजवाद की पक्षधरता की।

कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों से गठबंधन की वकालत: भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों को मजबूत करने के लिए येचुरी ने कई मौकों पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों से व्यापक गठबंधन की रणनीति पर जोर दिया ताकि सांप्रदायिक और दक्षिणपंथी ताकतों का मुकाबला किया जा सके।

कमजोरियां और आलोचनाएं

हालांकि सीताराम येचुरी ने भारतीय वामपंथी राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनके नेतृत्व के दौरान पार्टी को कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा। कुछ प्रमुख आलोचनाएं और कमजोरियां इस प्रकार हैं:

CPI(M) का घटता जनाधार: येचुरी के नेतृत्व में CPI(M) का प्रभाव धीरे-धीरे घटता गया, विशेषकर पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में। येचुरी के तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी अपने मजबूत गढ़ों में भी कमजोर होती गई। इसके कारण उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा कि वे पार्टी को पुनर्जीवित नहीं कर पाए।

आंतरिक गुटबाजी: CPI(M) के भीतर दो गुटों के बीच हमेशा टकराव रहा—एक प्रगतिशील गुट जो कांग्रेस और अन्य दलों के साथ गठबंधन के पक्ष में था, और दूसरा कठोर वामपंथी गुट जो सिद्धांतों से समझौता करने के खिलाफ था। येचुरी इस गुटबाजी को खत्म करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए।

मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों से तालमेल की कमी: आलोचकों का आरोप है कि येचुरी ने 21वीं सदी की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों से तालमेल नहीं बिठाया। जहां अन्य पार्टियां तेजी से बदलते डिजिटल युग और नई अर्थव्यवस्था के साथ आगे बढ़ रही थीं, CPI(M) का संदेश और दृष्टिकोण पुराना प्रतीत होता रहा।

वामपंथी गठबंधन की विफलता: येचुरी ने कांग्रेस के साथ मिलकर व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की कोशिश की, लेकिन यह रणनीति खासकर पश्चिम बंगाल में सफल नहीं हो पाई। 2016 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और माकपा का गठबंधन बुरी तरह विफल रहा, जिससे उनकी राजनीतिक सूझबूझ पर सवाल उठाए गए।

सीमित क्षेत्रीय प्रभाव: CPI(M) के नेतृत्व में येचुरी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित करने में सफल नहीं हो पाए। पार्टी का प्रभाव मुख्य रूप से कुछ राज्यों तक सीमित रहा, और राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर होता गया।

युवा नेतृत्व को अवसर न देना: आलोचक येचुरी पर आरोप लगाते रहे कि वे पार्टी में युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने में असफल रहे। वामपंथी विचारधारा के प्रति युवा वर्ग में रुचि कम होती गई, और पार्टी का नेतृत्व एक वृद्धिशील नेतृत्व तक सीमित रह गया।

वामपंथी आंदोलन को भारतीय राजनीति में बनाए रखने के लिए सीताराम येचुरी को लगातार संघर्ष करना पड़ा। और कई बार उन्हें रणनीतिक समायोजन करने की आवश्यकता पड़ी।

सीताराम येचुरी द्वारा सामना की गई प्रमुख चुनौतियाँ:

वाम की घटती राजनीतिक ताकत: येचुरी के नेतृत्व में सबसे बड़ी चुनौती भारतीय राजनीति में वाम दलों की घटती ताकत को बचाने की थी। पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में जहाँ कभी वाम मोर्चे का दबदबा था, वहाँ उनके प्रभाव में गिरावट आई। पश्चिम बंगाल में 2011 में 34 साल के शासन के बाद वामपंथी सरकार का पतन इस चुनौती का सबसे बड़ा उदाहरण था।

वाम विचारधारा का बदलता परिप्रेक्ष्य: भारतीय राजनीति में, आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के बढ़ते प्रभाव ने वामपंथी विचारधारा को एक नई चुनौती दी। येचुरी को मार्क्सवादी सिद्धांतों और आर्थिक वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाना पड़ा, खासकर तब जब निजीकरण और वैश्विक पूंजीवाद के समर्थन में तेजी आई।

पार्टी के अंदर विचारधारा का संघर्ष: येचुरी ने अक्सर माकपा के भीतर विचारधारा और रणनीति पर मतभेदों का सामना किया। पार्टी का एक धड़ा सख्त रूढ़िवादी दृष्टिकोण को बनाए रखने का पक्षधर था, जबकि येचुरी जैसे नेता कांग्रेस जैसी अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन की वकालत कर रहे थे।  

नई पीढ़ी से जुड़ाव: भारत में तेजी से बदलते राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में, युवाओं को वामपंथी विचारधारा की ओर आकर्षित करना येचुरी के लिए बड़ी चुनौती थी। बढ़ती बेरोजगारी, शिक्षा में गिरावट, और राजनीतिक उदासीनता जैसे मुद्दों के बावजूद, वे नई पीढ़ी को अपनी तरफ खीचने में कामयाब नहीं हुए।

धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का मुद्दा: सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर लगातार संघर्ष करते हुए येचुरी को एक तरफ बीजेपी की बढ़ती ताकत और दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और अधिकारों के संरक्षण की चुनौती का सामना करना पड़ा।  

राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रभाव डालने में असमर्थता: विपक्ष में रहते हुए येचुरी और वामपंथी दलों को अक्सर यह चुनौती महसूस हुई कि वे संसद में बहुमत वाली सरकार के सामने अपनी नीतियों और विचारधारा को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। चाहे वह आर्थिक नीतियाँ हों, किसानों की समस्याएँ हों, या विदेशी मामलों के मुद्दे, विपक्ष की स्थिति में होने के कारण उन्हें प्रभावशाली निर्णय लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ा।

राष्ट्रीय मीडिया में कम प्रतिनिधित्व: वामपंथी दलों को राष्ट्रीय मीडिया में वह जगह नहीं मिल पाई, जो मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को मिलती है। येचुरी ने इस मुद्दे पर लगातार आलोचना की कि वामपंथी दलों की नीतियों और कार्यक्रमों को मीडिया में ठीक से स्थान नहीं दिया जाता।

केरल में चुनौतीपूर्ण चुनावी परिदृश्य: केरल में, जहाँ वामपंथी मोर्चा (एलडीएफ) और कांग्रेस-यूडीएफ के बीच सत्ता बदलती रही है, येचुरी को अक्सर कठिन चुनावी मुकाबले का सामना करना पड़ा। जबकि केरल वाम मोर्चे का प्रमुख गढ़ रहा है, यहाँ भी पार्टी को सत्ता बनाए रखने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

भारत-अमेरिका संबंधों में विरोध: भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते आर्थिक और सामरिक संबंधों ने वाम दलों के लिए चुनौती खड़ी की। येचुरी ने हमेशा भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की वकालत की, लेकिन वैश्विक परिदृश्य में भारत के संबंधों और गठबंधनों को लेकर उन्हें बार-बार विरोध का सामना करना पड़ा।

लेकिन येचुरी की राजनीति और उनके योगदान को उनके समर्थक और आलोचक दोनों ही सराहते हैं। उनका जीवन उन मूल्यों का प्रतीक था जो समानता, न्याय और लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं। सीताराम येचुरी का निधन भारतीय राजनीति और वामपंथी आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति है।

- ओंकारेश्वर पांडे

(लेखक एक प्रसिद्ध पत्रकार, राष्ट्रीय सहारा के पूर्व वरिष्ठ समूह संपादक, पूर्व संपादक-एएनआई, राजनीतिक टिप्पणीकार, रणनीतिकार, जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता और विचारक हैं।)

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