Ramana Maharshi death anniversary: 20वीं सदी के महान संत थे रमण महर्षि, 17 साल की उम्र में बने थे संत

रमण महर्षि अद्यतन काल के महान ऋषि थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया था। इसके अलावा उन्होंने तमिलनाडु स्थित पवित्र अरुनाचला पहाड़ी पर गहन साधना की थी। आज ही के दिन 14 अप्रैल को महर्षि रमण ने अपने शरीर का त्याग किया था।
रमण महर्षि 20वीं सदी के महान संत हुआ करते थे। रमण ने भारतीय सोच और भारतीय दर्शन को एक नया नजरिया देने का काम किया। उन्होंने तमिलनाडु स्थित पवित्र अरुनाचला पहाड़ी पर गहन साधना की थी। आपको बता दें कि रमण महर्षि को न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी शांत ऋषि के तौर पर जाना जाता था। आज ही के दिन यानि की 14 अप्रैल को रमण महर्षि ने अपने शरीर का त्याग किया था। आज भी लोग शांति कि खोज में तिरुवन्नामलाई स्थित रमण महर्षि के आश्रम अरुनाचला पहाड़ी और अरुनाचलेश्वर मंदिर पहुंचते हैं। उन्होंने न सिर्फ भारत बल्कि पश्चिम के कई देशों में उजाला फैलाकर अपने देश को गौरान्वित करने का काम किया था। आइए जानते हैं रमण महर्षि के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...
जन्म और शिक्षा
तमिलनाडु के पास 'तिरुचुली' नामक गांव में 30 दिसंबर 1879 में रमण महर्षि का जन्म हुआ था। रमण महर्षि का जन्म भगवान शिव का प्रसिद्ध पर्व 'अद्र दर्शन' के दिन हुआ था। इसी कारण इनके माता पिता ने इनका नाम वेंकटरमण अय्यर रखा था। बाद में यह 'रमण महर्षि' के नाम से फेमस हुए। उन्होंने अपनी शुरूआती शिक्षा तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में पूरी की। इसके बाद उन्होंने दिण्डुक्कल के एक स्कूल से शिक्षा प्राप्त की। 12 साल की उम्र में रमण महर्षि के पिता का निधन को गया था। इन्होंने अपना बचपन अपने चाचा के साथ बिताया था।
आध्यात्मिक अनुभव
रमण को बचपन से ही लगता था कि अरुनाचला में कुछ रहस्य है। जिसको वह समझना चाहते थे। इसलिए जब वह 16 साल के थे तो वह बुजुर्ग से मिलने के लिए वहां पहुंचे। अरुनाचला पहुंच कर रमण ने बुजुर्ग से कई सवाल पूछे। इसी घटना ने उनमें गहरी आध्यात्मिक भावना को जाग्रत किया। रमण को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ। एक दिन रमण अपने चाचा के घर में एकांत में बैठे हुए थे। तभी उनको अचानक से मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। लेकिन उन्होंने इस डर को अपने ऊपर हावी होने की जगह आत्मा के अमर होने का अनुभव किया। जब रमण ने यह अनुभव अपने भक्तों को सुनाया तो बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे था। इस प्रकार युवा वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाते चले गए।
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एक 17 साल का लड़का जो वेंकटरमण के नाम से जाना जाता था। वह एक साधु-संत बन गया। युवावस्था में संत का जीवन अपनाने वाले रमण महर्षि का जीवन अचानक से बदल गया। उनके जीवन में अध्ययन, मित्र, रिश्तेदार, परिवार आदि का कोई महत्व नहीं रह गया। वह अकेले बैठते और ध्यान लगाया करते थे। कई बार उनकी आखों से लगातार आंसू बहा करते थे। 17 साल की उम्र में वह एक योगी की तरह व्यवहार करने लगे थे। इसके बाद उन्होंने अपना घर त्यागने का फैसला कर लिया। उन्होंने घर वालों के लिए एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा था- वह भगवान की खोज में उनके आदेशानुसार जा रहे हैं।
तिरुवन्नामलाई आगमन
मदुरई से तिरुवन्नामलाई की दूरी करीब 400 किमी है। इस यात्रा को उन्होंने रेल और पैदल पूरी की। इस दौरान रमण को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कई बार कई दिनों तक भूखा ही सोना पड़ा। पैदल चलने और भोजन न मिलने के कारण वह बेहोश हो जाया करते थे। लेकिन यह सारी कठिनाइयां उनके आत्मबल को तोड़ न सकीं। आखिरकार वह तिरुवन्नामलाई पहुंचे। जहां से रमण अरुनाचलेश्वर मंदिर गए। उन्होंने औपचारिक तौर पर सन्यास नहीं लिया था। हालांकि जब उनसे किसी ने पूछा कि क्या वह अपना मुंडन कराना चाहते हैं तो उन्होंने सहमति जताई। इस तरह से पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर ही तिरुवान्नालाई में उनका पहला घर था।
मां का साथ
कुछ समय बाद रमण की मां भी उनके आश्रम में रहने लगी थीं। रमण महर्षि की मां ने यहां पर रसोई का कार्यभार संभालने के साथ ही आध्यात्मिक जीवन का प्रशिक्षण प्राप्त किया। रमण काफ़ी सक्रिय रहते और पत्तों से प्लेट बनाते थे। महर्षि के पास बाहर जाकर उपदेश देने के लिए बहुत निमंत्रण आते। लेकिन वह कभी कभी तिरुवन्नामलाई से बाहर नहीं आए। वह अपने भक्तों से सामने अधिकतर मौन रहते थे। लेकिन उनके आसपास बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव का एहसास होता था। कई लोगों का कहना था कि रमण के पास बैठने से जैसे समय रुक सा जाता था।
देहावसान
आखिरी समय में रमण महर्षि का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। वह जानते थे कि उनका अंत समय निकट है। महर्षि की आँखों में हमेशा की तरह चमक थी और वह अपने दर्द के प्रति उदासीन थे। इस दौरान भी उन्होंने अपने भक्तों से मिलना जारी रखा। 14 अप्रैल 1950 की शाम के समय महर्षि ने सभी भक्तों को दर्शन दिए। इस दौरान उन्होंने अपने सेवक से कहा कि उनको बैठा दिया जाए। महर्षि ने थोड़े समय के लिए अपनी आखें खोलीं। उनके चेहरे पर मुस्कान और आखों से आंसू बह रहे थे। एक गहरी श्वांस के साथ उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। उसी दौरान आकाश में एक धूमकेतू तारा दिखाई दिया। वह तारा धीरे-धीरे पवित्र पर्वत अरुनाचला के शिखर पर पहुंच कर उसके पीछे गायब हो गया।
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