हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक और तुष्टीकरण की नीतियों के खिलाफ थे पं. मालवीय
पंडित मदन मोहन मालवीय महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद् ही नहीं बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे जिन्होंने देश से जाति प्रथा की बेड़ियां तोड़ने के लिए कई प्रयास किए।
पंडित मदन मोहन मालवीय महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद् ही नहीं बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे जिन्होंने देश से जाति प्रथा की बेड़ियां तोड़ने के लिए कई प्रयास किए। पच्चीस दिसंबर 1861 में इलाहाबाद में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय अपने महान कार्यों के चलते 'महामना' कहलाए। वह तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। पहली बार वह 1909 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और 1910 तक इस पद पर रहे। दूसरी बार 1918 से 1919 और तीसरी बार उन्होंने 1932 से 1933 तक अध्यक्ष के रूप में पार्टी की कमान संभाली।
उन्हें एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। वह 1912 में 'इंपीरियल लेजिसलेटिव काउंसिल' के सदस्य बने। 1919 में इसे 'सेंट्रल लेजिसलेटिव असेंबली' के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और मालवीय जी 1926 तक इसके सदस्य रहे। इतिहासकार वीसी साहू के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक मदन मोहन मालवीय देश से जातिगत बेड़ियों को तोड़ना चाहते थे। उन्होंने दलितों के मंदिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के खिलाफ देशभर में आंदोलन चलाया।
मालवीय ने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में बढ़−चढ़कर भाग लिया। 1928 में उन्होंने लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर साइमन कमीशन का जबर्दस्त विरोध किया और इसके खिलाफ देशभर में जनजागरण अभियान चलाया। महामना तुष्टीकरण की नीतियों के खिलाफ थे। उन्होंने 1916 के लखनऊ पैक्ट के तहत मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का विरोध किया।
वह देश का विभाजन नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने गांधी जी को आगाह किया था कि वह देश के बंटवारे की कीमत पर स्वतंत्रता स्वीकार न करें। मालवीय जी ने कई अखबारों की स्थापना की और 'सत्यमेव जयते' के नारे को जन जन में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने 1931 में पहले गोलमेज सम्मेलन में देश का प्रतिनिधित्व किया। वह आजीवन देश सेवा में लगे रहे और 12 नवम्बर 1946 को उनका निधन हो गया।
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