देश की आजादी के लिए अपने प्राण देने से भी पीछे नहीं हटे थे क्रन्तिकारी खुदीराम बोस
1905 में बंगाल विभाजन जिसे बंग-भंग के नाम से जाना जाता है के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में भी खुदीराम बोस ने बढ़-चढ कर हिस्सा लिया और मात्र 16 वर्ष की उम्र में सत्येन बोस के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ अपने जीवन की क्रांतिकारी शुरूआत की।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैंकड़ों वीरों ने हमारी पावन धरती पर जन्म लिया, जिनमें से एक खुदीराम बोस भी थे जिन्होंने महज 19 वर्ष की आयु में भारत की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे को भी गले लगा लिया था।
भारत के इस वीर सपूत खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले में हबीबपुर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। बहुत छोटी उम्र में ही इनके पिता का स्वर्गवास हो गया जिसके कारण उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया।
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देश-भक्ति की भावना खुदीराम बोस के मन में बचपन से ही बहुत प्रबल थी, स्कूल के दिनों में ही वे रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन गए और अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध देश की आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।
1905 में बंगाल विभाजन जिसे बंग-भंग के नाम से जाना जाता है के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में भी खुदीराम बोस ने बढ़-चढ कर हिस्सा लिया और मात्र 16 वर्ष की उम्र में सत्येन बोस के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ अपने जीवन की क्रांतिकारी शुरूआत की। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खुदीराम बोस ने पुलिस स्टेशनों पर बम फेंके और भारत की आजादी के लिए वन्दे मातरम् के पैफलेट लोगो को बांटे। अंग्रेजी हुकूमत विरोधी अपनी गतिविधियों की वजह से वे अंग्रेजों की नजरों में आ चुके थे वहीं 28 फरवरी 1906 में मिदनापुर में एक आयोजन में जब वे सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखी पत्रिका 'सोनार बांगला’ लोगो को बांट रहे थे तब पुलिस वालो ने उन्हें देख लिया और पकड़ने के लिए दौड़े तो खुदीरामबोस ने पुलिस वाले को मुक्का मारा और वहा से भाग गए जिसके लिए उन पर राजद्रोह का आरोप लगा और मुकदमा चलाया गया किन्तु कोई भी गवाही न मिलने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।
खुदीराम बोस ने तो मन में अंग्रेजों से भारत की आजादी का ठान ही रखा था, अब की बार उन्होंने 6 दिसंबर 1907 कोअंग्रेजी हुकूमत को हिलाने के उद्देश्स से नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन से गुजर रही बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया हालांकि गवर्नर उस हमले से बच निकला इसके बाद सन 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेजी अधिकारी वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर पर भी बम से हमला लिया लेकिन निशाना ठीक से न लगने के कारण वे दोनों भी बच गए।
कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड का भारतीयों पर अत्याचार तब बहुत बढ़ गया था, किंग्जफोर्ड ने बंगाल विभाजन के विरोध में सडकों पर उतरे लाखों भारतीयों को बेरहमी से पीटा जिसे सहन करना क्रांतिकारियों के लिए नागवार था। विरोध में क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड से बदला लेने की ठानी और उसे मौत के घाट उतारने का प्रण किया। क्रांतिकारियों की इस योजना को अंजाम तक पहुचाने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी का चयन किया गया। खुदीराम बोस को तो ऐसे मौके का ही इंतजार था। इस काम के लिए खुदीराम और प्रफुल्ल को बम और पिस्तौल दी गयीं और वे दोनों मुजफ्फरपुर आए।
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30 अप्रैल 1908 को रात के करीब 8.30 बजे खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी मुजफ्फरपुर क्लब के बाहर छुप कर किंग्सफोर्ड की बग्घी के आने का इंतजार करने लगे जहां से रोज किंग्सफोर्ड गुजरता था। अँधेरे में एक बग्घी आती देख दोनों ने मिलकर उस पर बम फेका गोलिया चलाईं और भाग निकले किन्तु दुर्भाग्य से उस बग्घी में क्रिग्सफोर्ड नहीं था बल्कि किसी दूसरे अंग्रेज की पत्नी और बेटी बैठी थीं जिनकी मौत हो गई। इस घटना से खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी बहुत आहत हुए। इस हमले में किंग्सफोर्ड तो नहीं मरा वहीं अंग्रेज सिपाही खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को तेजी से ढूंढने लगे। भागते-भागते जब खुदीराम बोस वैनी रेलवे स्टेशन पहुंचे तो वहां वे कुछ पुलिस वालो की नजरों में आ गए और गिरफ्तार कर लिए गए। वहीं प्रफुल्ल चाकी भी जो किसी तरह बचकर रेल में बैठ गए थे पुलिस द्वारा पहचान लिए गए, पुलिस प्रफुल्ल चाकी को पकड़ती उससे पहले ही प्रफुल्ल चाकी अंग्रेजो के हाथो आने से पहले खुद को गोली मारकर शहीद हो गये।
21 मई 1908 को खुदीराम बोस पर ब्रिटिश सरकार ने मुकदमा चलाया और 13 जून 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर में हुए बम ब्लास्ट का दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुना दी गई। इस फांसी की सजा का खुदीराम बोस ने कोई विरोध नहीं किया और जब 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी के लिए लाया गया तब हाथ में गीता लिए भारत के इस साहसी वीर ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगा लिया। महज 19 साल की उम्र में भारत की आजादी के लिए प्राण न्योछावर करने वाले इस भारतीय वीर सपूत का नाम भारत के इतिहास में सदा अमर रहेगा।
- अमृता गोस्वामी
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