बचपन से ही इंदिरा गांधी में अच्छे राजनेता के गुण विद्यमान थे
इंदिरा जी में बचपन से ही एक अच्छी राजनेता होने के तमाम गुण विद्यमान थे। 21 वर्ष की आयु में वह कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी। उसके बाद उन्होंने आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
19 नवम्बर 1917 को पं. जवाहरलाल नेहरू के घर जब प्रियदर्शिनी नामक कन्या ने जन्म लिया था तो किसे पता था कि यही कन्या आगे चलकर न केवल इस देश की बागडोर संभालेगी बल्कि इसकी दबंगता पूरी दुनिया में एक मिसाल बन जाएगी। ऑक्सफोर्ड और स्विट्जरलैंड में उच्च शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् इंदिरा गांधी ने भी उच्च पद पर नौकरी करने अथवा कोई अन्य कार्य करने के बजाय अपना जीवन देशसेवा में ही समर्पित करने का निश्चय किया। देशभक्ति की भावना इंदिरा जी में बचपन से ही कूट-कूटकर भरी थी। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आव्हान से प्रेरित होकर बचपन में ही इन्होंने अपने घर के बाहर अपने कीमती कपड़ों की होली जलाकर न केवल अपनी इसी भावना का परिचय दिया था बल्कि उसके बाद इंदिरा जी से प्रेरणा लेकर इस आन्दोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ा था।
इंदिरा जी में बचपन से ही एक अच्छी राजनेता होने के तमाम गुण विद्यमान थे। 21 वर्ष की आयु में वह कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी। उसके बाद उन्होंने आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1942 में उन्होंने फिरोज गांधी से प्रेम विवाह किया किन्तु कुछ वर्षों बाद 1960 में फिरोज गांधी का अकस्मात् निधन हो गया। पिता जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद देश की बागडोर संभालने की जिम्मेदारी इंदिरा के कंधों पर आई तो अपनी दृढ़ता, दबंगता, निडरता और वाकपटुता से उन्होंने दुनिया भर को अपना लोहा मानने को विवश कर दिया। अमेरिका व ब्रिटेन जैसे विकसित एवं प्रभावशाली देशों में भी उनकी तूती बोलती थी। 1966 से 1977 तक उन्होंने देश पर एकछत्र शासन किया और उनकी कार्यशैली तथा देश के प्रति उनका समर्पण भाव देखकर विरोधी भी उनकी सराहना किए बिना नहीं रह पाते थे। हालांकि लाल बहादुर शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा को शुरूआती दौर में ‘गूंगी गुडि़या’ की उपाधि दी गई थी किन्तु बहुत ही कम समय में अपने साहसिक निर्णयों से इंदिरा ने कारण साबित कर दिया था कि वो एक ‘गूंगी गुडि़या’ नहीं बल्कि ‘लौह महिला’ हैं।
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बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारत की शानदार जीत के बाद इंदिरा जी जनमानस की आंखों का तारा बन गई थी किन्तु 1975-77 के इमरजेंसी काल ने उनकी छवि पर ग्रहण लगाने में प्रमुख भूमिका निभाई और इस दौर ने उनकी छवि एक तानाशाह के रूप में स्थापित कर दी। यही वजह रही कि 1977 में इंदिरा को पहली बार हार का सामना करना पड़ा और सत्ता उनके हाथ से छिन गई किन्तु निराश होना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था, इसलिए 1980 में एक बार फिर विशाल बहुमत के साथ वह सत्ता में लौटी। अपने शासनकाल में उन्होंने कभी अलगाववादी व साम्प्रदायिक आग भड़काने वाले तत्वों को नहीं पनपने दिया। ऐसे तत्वों को उन्होंने बेदर्दी से कुचलने में जरा भी देर नहीं लगाई।
1980 में पुनः देश का शासन संभालने के बाद पंजाब में अलगाववादी ताकतों ने खालिस्तान की मांग शुरू की और दूसरे मुल्कों की शह पर अपने नापाक इरादों को कामयाब बनाने के लिए सिख अलगाववादियों ने भयानक नरसंहार का दौर शुरू किया तथा पंजाब में अवैध रूप से हथियारों के जखीरे इकट्ठे करने शुरू कर दिए। देश की जांबाज, निडर एवं साहसी नेता इंदिरा को भला यह कैसे सहन होता, इसलिए जैसे ही उन्हें खबर मिली कि सिख अलगाववादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर जैसी पाक जगह में भी हथियारों का विशाल जखीरा इकट्ठा किया है तो उन्हें देश की एकता और अखंडता कायम रखने तथा अलगाववादियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए इस पवित्र धर्मस्थल के भीतर न चाहते हुए भी ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत पुलिस भेजने का सख्त निर्णय लेना पड़ा। हालांकि उस वक्त स्वर्ण मंदिर के भीतर पुलिस बल भेजने के उनके फैसले की बहुत आलोचना हुई किन्तु जब स्वर्ण मंदिर से हथियारों का बहुत बड़ा जखीरा बरामद हुआ और धार्मिक स्थल की आड़ में चल रही इस राष्ट्र विरोधी साजिश का भंडाफोड़ हुआ तो उन्हीं लोगों ने इंदिरा जी की सराहना की, जो इस मामले का पर्दाफाश होने तक उनकी आलोचना कर रहे थे। उसके बाद इंदिरा ने जिस दिलेरी और दृढ़ता के साथ अलगाववादियों को रौंदा, वह एक मिसाल बन गया लेकिन अलगाववादियों के विरूद्ध चलाए गए उनके इसी ऑपरेशन की वजह से ही वह उनकी हिट लिस्ट में सबसे ऊपर आ गई और उन्होंने हर हाल में उनकी हत्या कर उन्हें अपने मार्ग से हटाने की ठान ली।
खुद इंदिरा जी को अपनी मौत का पहले ही आभास हो गया था लेकिन फिर भी वह अपने नेक इरादों से टस से मस न हुई और अलगाववादियों के खिलाफ अपना अभियान पहले से भी तेज कर दिया। 30 अक्तूबर 1984 को भुवनेश्वर की एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए इंदिरा ने अपनी हत्या का पूर्वाभास होने का स्पष्ट संकेत देते हुए कहा था, ‘‘देश की सेवा करते हुए यदि मेरी जान भी चली जाए तो मुझे गर्व होगा। मुझे भरोसा है कि मेरे खून की एक-एक बूंद देश के विकास में योगदान देगी और देश को मजबूत एवं गतिशील बनाएगी।’’
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इंदिरा जी के इस भाषण के चंद घंटों बाद ही अर्थात् अगले दिन 31 अक्तूबर 1984 को सुबह करीब सवा नौ बजे उनके दो निजी अंगरक्षकों ने ही उन्हें उस वक्त गोलियों से छलनी कर दिया, जब वह अपने आवास से निकलकर विदेशी मीडिया को इंटरव्यू देने जा रही थी। इस हत्याकांड से जहां पूरे देश में शोक की लहर छा गई, वहीं दूसरी ओर इंदिरा जी का शहीदी रक्त रंग लाया और इस हत्याकांड से चूंकि समूचा सिख समुदाय कटघरे में खड़ा हो गया था, इसलिए सिख समुदाय की ओर से सिख अलगाववादियों को मदद मिलनी बंद हो गई और इंदिरा जी की शहादत के साथ ही खालिस्तान की मांग भी गहरे दफन हो गई। इंदिरा जी अक्सर कहा करती थी कि उन कायरों और बुजदिलों पर मातम करो, जो दुनिया के जुल्मों से घबराकर इस तरह आंखें बंद कर लेते हैं, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
बचपन की एक घटना ने तो इंदिरा जी का जीवन ही बदलकर रख दिया। एक दिन स्कूल से घर लौटते समय इंदिरा जी की नजर अपने स्कूल की नौकरानी की लड़की पर पड़ी, जो उस वक्त अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर खड़ी थी। उस लड़की के मैले-कुचैले कपड़े और उसके शरीर पर जमी मैल की परतें देखकर इंदिरा जी सोचने पर विवश हो गई कि यह लड़की दूसरे बच्चों से इतनी अलग क्यों है? क्या इसे साफ-सुथरा रखने वाला कोई नहीं है? क्या इसे भी हमारी तरह स्कूल में पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं है? आखिर यह कैसा अन्याय है?
यही सोचते-सोचते इंदिरा के कदम अनायास ही उस लड़की की ओर बढ़ गए। उन्होंने प्यार से उस लड़की का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘आइए, आज आप हमारे साथ हमारे घर चलिए।’’
लड़की इंदिरा जी के मुंह से इतनी मधुर वाणी में यह सब सुनकर आश्चर्यचकित थी क्योंकि इससे पहले कभी किसी ने उसके साथ इतने प्यार से बात नहीं की थी। लड़की चुपचाप इंदिरा जी के साथ चल दी। घर लाकर इंदिरा जी ने उसे कुर्सी पर बैठाया और फिर मल-मलकर उसे खुद अपने हाथों से नहलाया। शरीर से मैल की परतें उतरने के बाद उस लड़की का रंग निखर उठा और उसके चेहरे पर चमक आ गई। तब इंदिरा जी ने बाजार से उसके लिए नए कपड़े मंगवाए। नए कपड़ों में तो अब वह बिल्कुल गुडि़या सी लग रही थी। अब इंदिरा जी सोचने लगी कि आखिर इन बच्चों को अछूत क्यों कहा जाता है? क्यों इंसान इंसान से ही इतनी घृणा करता है?
रात को इंदिरा जी ने उस लड़की को अपने ही घर रखा और अपने साथ सुलाया। लड़की जब गहरी नींद में सो गई तो इंदिरा जी उसके भोले-भाले चेहरे को निहारते हुए सोचने लगी कि सभी बच्चे एक समान होते हैं, उनकी कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं, उनके बीच कोई अमीरी-गरीबी की दीवार नहीं, वे निष्पाप और निश्छल होते हैं, फिर भी यह ऊंच-नीच क्यों? इंदिरा जी के मन में चल रहे इस अंर्तद्वंद्व ने आखिर एक तूफान का रूप धारण कर लिया।
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अगले दिन उनके स्कूल में गांधी जी के आमरण अनशन को लेकर एक सभा का आयोजन था, जिसमें बच्चों को भी बोलने का मौका दिया गया था। जब इंदिरा जी ने बोलना शुरू किया तो सभागार में सन्नाटा छा गया और सभी एकटक इंदिरा को निहारने लगे कि इतनी छोटी बालिका इतनी गूढ़ बातें कैसे कर रही है। उन्होंने कहा, ‘‘आखिर स्वर्ण अपने ही दलित भाईयों को गिरा हुआ, छूत और निकृष्ट क्यों समझते हैं तथा उनके साथ दुव्यवहार और अत्याचार क्यों करते हैं? अगर हमने अपनी ही सेवा करने वालों का इस तरह से निरन्तर तिरस्कार न किया होता तो आज अंग्रेजों को इस प्रकार लाभ उठाने का अवसर न मिल रहा होता और न ही बापू को इस तरह से आमरण अनशन कर अपने प्राण दांव पर लगाने पड़ते।’’ इंदिरा जी की इन गूढ़ और तर्कसम्मत बातों से सभी नतमस्तक थे और उनकी सराहना कर रहे थे।
योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा तीन दशकों से समसामयिक विषयों पर नियमित लिख रहे हैं)
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