देश के विकास के लिए किसानों की खुशहाली चाहते थे चौधरी चरण सिंह
चौधरी चरण सिंह की नीति किसानों व गरीबों को ऊपर उठाने की थी। उन्होंने हमेशा यह साबित करने की कोशिश की कि बगैर किसानों को खुशहाल किए देश व प्रदेश का विकास नहीं हो सकता। चौधरी चरण सिंह ने किसानों की खुशहाली के लिए खेती पर बल दिया था।
देश की समृद्धि का रास्ता गांवों के खेतों एवं खलिहानों से होकर गुजरता है। चौधरी चरण सिंह ऐसा कहते थे। उनका कहना था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है। चाहे कोई भी लीडर आ जाये। चाहे कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ। जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे वो देश कभी तरक्की नहीं कर सकता। गांव की एक ढाणी में जन्मे चौधरी चरण सिंह गांव, गरीब व किसानों के तारणहार बने। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन गांव के गरीब के लिये समर्पित कर दिया।
स्वतन्त्रता सेनानी से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक बने चौधरी चरण सिंह ने ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले आवाज बुलन्द की और आह्वान किया कि भ्रष्टाचार का अन्त ही देश को आगे ले जा सकता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी चौधरी चरण सिंह प्रगतिशील विचारधारा वाले व्यक्ति थे। चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर,1902 को गाजियाबाद जिले के नूरपुर गांव में एक जाट परिवार मे हुआ था। स्वाधीनता आन्देालन के समय उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। चौधरी चरण सिंह के पिता चौधरी मीर सिंह ने अपने नैतिक मूल्यों को विरासत में चरण सिंह को सौंपा था। चरण सिंह के जन्म के 6 वर्ष बाद चौधरी मीर सिंह सपरिवार नूरपुर से जानी खुर्द गांव आकर बस गये थे।
आगरा विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा लेकर 1928 में चौधरी चरण सिंह ने गाजियाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत जैसे व्यावसायिक पेशे में भी चौधरी चरण सिंह उन्हीं मुकदमों को स्वीकार करते थे जिनमें मुवक्किल का पक्ष न्यायपूर्ण होता था। 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के पूर्ण स्वराज्य उद्घोष से प्रभावित होकर युवा चरण सिंह ने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया। 1930 में महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन के तहत नमक कानून तोडऩे को डांडी मार्च किया। आजादी के दीवाने चरण सिंह ने गाजियाबाद की सीमा पर बहने वाली हिण्डन नदी पर नमक बनाया। परिणामस्वरूप चरण सिंह को 6 माह की सजा हुई। जेल से वापसी के बाद चरण सिंह ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वयं को पूरी तरह से स्वतन्त्रता संग्राम में समर्पित कर दिया।
1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी चरण सिंह गिरफ्तार हुए फिर अक्टूबर 1941 में मुक्त किये गये। 9 अगस्त 1942 को अगस्त क्रांति के माहौल में युवा चरण सिंह ने भूमिगत होकर गुप्त क्रांतिकारी संगठन तैयार किया। मेरठ कमिश्नरी में युवक चरण सिंह ने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर ब्रितानिया हुकूमत को बार-बार चुनौती दी। मेरठ प्रशासन ने चरण सिंह को देखते ही गोली मारने का आदेश दे रखा था। एक तरफ पुलिस चरण सिंह की टोह लेती थी वहीं दूसरी तरफ युवक चरण सिंह जनता के बीच सभायें करके निकल जाता था। आखिरकार पुलिस ने एक दिन चरण सिंह को गिरफ्तार कर ही लिया। राजबन्दी के रूप में डेढ़ वर्ष की सजा हुई। जेल में ही चौधरी चरण सिंह की लिखित पुस्तक शिष्टाचार, भारतीय संस्कृति और समाज के शिष्टाचार के नियमों का एक बहुमूल्य दस्तावेज है।
चौधरी चरण सिंह किसानों के नेता माने जाते रहे हैं। उनके द्वारा तैयार किया गया जमींदारी उन्मूलन विधेयक राज्य के कल्याणकारी सिद्धांत पर आधारित था। एक जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश में उनकी बदौलत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और गरीबों को अधिकार मिला। किसानों के हित में उन्होंने 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया। कांग्रेस में उनकी छवि एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हुई। देश की आज़ादी के बाद वह राष्ट्रीय स्तर के नेता तो नहीं बन सके, लेकिन राज्य विधानसभा में उनका प्रभाव स्पष्ट महसूस किया जाता था। आजादी के बाद 1952, 1962 और 1967 में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य विधानसभा के लिए पुन: चुने गए।
चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य 1951 में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। 1952 में डॉक्टर सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। वह जमीन से जुड़े नेता थे और कृषि विभाग उन्हें विशिष्ट रूप से पसंद था। चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसीलिए प्रदेश सरकार में योग्यता एवं अनुभव के कारण उन्हें ऊंचा मुकाम हासिल हुआ।
उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानने लगे थे। उन्होंने कृषकों के कल्याण के लिए काफी कार्य किए। समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में कृषि मुख्य व्यवसाय था। कृषकों में सम्मान होने के कारण इन्हें किसी भी चुनाव में हार का मुख नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें वक्तत्व कला में भी महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुटा करती थी।
चौधरी साहब 3 अप्रैल 1967 में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। तब उनकी निर्णायक प्रशासनिक क्षमता की धमक और जनता का उन पर भरोसा ही था कि 1967 में पूरे देश दंगे होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में पत्ता भी नहीं खडक़ा। 17 अप्रैल 1968 को उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। मध्यावधि चुनाव में उन्हें अच्छी सफलता मिली और दुबारा 17 फरवरी 1970 को वे मुख्यमंत्री बने। उन्होंने अपने सिद्धांतों व मर्यादित आचरण से कभी समझौता नहीं किया।
1977 में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर जयप्रकाश नारायण के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। केन्द्र सरकार में गृहमंत्री बने तो उन्होंने मंडल व अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। 1979 में वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक [नाबार्ड] की स्थापना की। बाद में मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद हो गये। 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से भारत के पांचवें प्रधानमंत्री बने। चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक रहा।
चौधरी चरण सिंह एक कुशल लेखक भी थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने अबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। उनमें देश के प्रति वफादारी का भाव था। 29 मई 1987 को 84 वर्ष की उम्र में जनमानस का यह नेता इस दुनिया को छोड़कर चला गया।
चौधरी चरण सिंह की नीति किसानों व गरीबों को ऊपर उठाने की थी। उन्होंने हमेशा यह साबित करने की कोशिश की कि बगैर किसानों को खुशहाल किए देश व प्रदेश का विकास नहीं हो सकता। चौधरी चरण सिंह ने किसानों की खुशहाली के लिए खेती पर बल दिया था। किसानों को उपज का उचित दाम मिल सके इसके लिए भी वह गंभीर थे। उनका कहना था कि भारत का सम्पूर्ण विकास तभी होगा जब किसान, मजदूर, गरीब सभी खुशहाल होंगे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रहे।
लोगों का मानना था कि चरण सिंह से राजनीतिक गलतियां हो सकती हैं लेकिन चारित्रिक रूप से उन्होंने कभी कोई गलती नहीं की। उनमें देश के प्रति वफादारी का भाव था। वो कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। इतिहास में उनका नाम प्रधानमंत्री से ज्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा। 2001 में केंद्र की अटल बिहारी बाजपेयी सरकार द्वारा किसान दिवस की घोषणा की गई जिसके लिए चौधरी चरण सिंह जयंती से अच्छा मौका नहीं था। अत: उनके कार्यों को ध्यान में रखते हुए 23 दिसम्बर को भारतीय किसान दिवस की घोषणा की गई। तब ही से प्रति वर्ष 23 दिसम्बर किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
- रमेश सर्राफ धमोरा
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