Bhikaji Rustam Cama Death Anniversary: भीमाजी कामा ने फहराया था विदेश में भारतीय झण्डा, ऐसे लड़ी थी आजादी की लड़ाई

Bhikaji Rustam Cama
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मुंबई के संपन्न पारसी परिवार में 24 सितंबर 1861 को मैडम भीकाजी रुस्तम कामा का जन्म हुआ था। उनमें शुरूआत से ही सेवाभाव कूट-कूटकर भरा था। भीकाजी कामा हमेशा जनकल्याण और समाजसेवा में समय बिताना पसंद करती थीं।

भारत की आजादी के लिए न जाने कितने ही वीर सपूतों ने अपने जान की कुर्बानी दी है। न सिर्फ देश में बल्कि देश के बाहर भी आजादी की जंग को जारी रखा गया था। देश के कई वीर सपूतों ने देश के बाहर जाकर भारत का पक्ष दुनिया के सामने रखने का काम किया था। देश की आजादी की लड़ाई में न सिर्फ पुरुषों बल्कि महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। मैडम भीकाजी रुस्तम कामा को भी ऐसी ही स्वतंत्रता सेनानियों में गिना जाता है। 

मैडम भीकाजी रुस्तम कामा को विदेश जाने के बाद भारत वापस आने का मौका नहीं मिला था। जिसके बाद उन्होंने विदेश में रहकर ही देशहित में काम करना जारी रखा और दुनिया को भारत की आजादी के संघर्ष से परिचित कराने का काम किया। आज ही के दिन यानी की 13 अगस्त को मैडम भीकाजी रुस्तम कामा का निधन हो गया था। बता दें कि उन्होंने विदेश में सबसे पहले भारतीय झण्डा लहराने का गौरव प्राप्त किया था। तो आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर मैडम भीकाजी रुस्तम कामा के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...

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जन्म

मुंबई के संपन्न पारसी परिवार में 24 सितंबर 1861 को मैडम भीकाजी रुस्तम कामा का जन्म हुआ था। उनमें शुरूआत से ही सेवाभाव कूट-कूटकर भरा था। भीकाजी कामा हमेशा जनकल्याण और समाजसेवा में समय बिताना पसंद करती थीं। साल 1896 में जब बंबई प्रेसिडेंसी में आकाल के बाद बबूनिक प्लेग फैल गया, तो उस दौरान हालात बहुत ज्यादा खराब हो गए थे। ऐसे में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना लोगों की खूब सेवा की।

देशप्रेम

लोगों की सेवा करते-करते भीकाजी कामा को भी प्लेग हो गया। उनको इलाज के लिए लंदन भेजने का फैसला किया गया। लंदन जाने के बाद भी उनके अंदर देश प्रेम में कमी नहीं आई। भीकाजी कामा होमरूल सोसाइटी की सदस्य बन गई। इस दौरान उनका संपर्क दादाभाई नौरोजी, श्यामजी कृष्ण वर्मा और सिंह रेवाभाई राणा से हुआ। 

भारत लौटने से किया इंकार

भीकाजी कामा की गतिविधियों से जल्द ही अंग्रेज सरकार को आपत्ति होने लगी। इसलिए सरकार ने उनके भारत लौटने की शर्त रखी कि वह भारत वापस आने के बाद राष्ट्रवादी गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेंगी। भीमाजी भारत आना चाहती थीं, लेकिन वह यह नहीं चाहती थीं कि वह अपने देश वापस आपकर देशवासियों की सेवा न कर सकें। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों की शर्त स्वीकार न करते हुए भारत न लौटने का फैसला किया।

बता दें कि भीमाजी कामा का कार्य सिर्फ पेरिस तक सीमित नहीं था। बल्कि उन्होंने यूरोप के कई देशों में भारत के लेख लिखकर प्रचारित किया। जोकि स्विटरलैंड और नीदरलैंड में वितरित किए गए। उनके इस लेख में वंदेमातरण गीत भी शामिल था, जिसको उस दौरान अंग्रेजों ने प्रतिबंधित किया था। बताया जाता है कि भीमाजी के लेख तस्करी के माध्यम से पोंडीचेरी तक पहुंचते थे।

फहराया था देश का झंडा

भीमाजी कामा ने जर्मनी केस्टुटगार्ड में आयोजित सेकेंड सोशलिस्ट कांग्रेस में 22 अगस्त 1907 को दुनिया के सामने भारत में आकाल और मानव अधिकारों के लिए मार्मिक अपील करने के साथ ही भारत के लिए समानता और स्वशासन की मांग की थी। इसके साथ ही उन्होंने भारत की आजादी का झंडा फहराया था, जोकि विदेश में भारतीय महिला द्वारा फहराया गया पहला आजादी का झंडा था। इसे खुद मैडम कामा ने डिजाइन किया था। बाद में इसी के आधार पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया था।


मृत्यु

जीवन के आखिरी दौर में सेहत अधिक बिगड़ने के कारण भीमाजी कामा ने अंग्रेजों की शर्तों पर साल 1935 में भारत वापस आना स्वीकार किया। वहीं 13 अगस्त 1936 को मैडम भीमाजी कामा का निधन हो गया।

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